कहानी संग्रह ‘एक बार आखिरी बार’ प्रकाशित। 17 वर्षों तक अध्यापन के बाद संप्रति व्यवसाय में संलग्न।
और बहुत शीघ्र मैं यहां से भी भागना चाहता था। क्यों? अपनी यह जिज्ञासा भी मैंने खत्म कर दी। कोई जगह, कोई व्यक्ति, खुद की कोई मनोदशा भी मुझे बहुत दिनों तक किसी तरह बांधकर रख सकने में असमर्थ है, यह मुझे भली-भांति ज्ञात है।
कमरे के अंदर कुर्सी पर सूखने के लिए फैलाए अंडरवियर, बनियान और टॉवल उठा कर जैसे-तैसे सूटकेस में रखता चला गया। बिस्तर पर पड़ा मोबाइल चार्जर और शेविंग का सामान भी उठाया और यहां से निकलने से पहले एक बार बाथरूम हो आया। बाथरूम से आकर पूरे कमरे को अच्छी तरह जांचा-परखा कि कोई सामान न छूटा हो, तभी कहीं से आवाज आई, ‘कई बार दिखता सामान छूटने पर भी मिल जाता है लेकिन जो दिखता नहीं, वह बस छूटता है और छूटता चला जाता है। वह भरसक कोशिश करने पर भी दुबारा कहां मिलता है।’
मैंने इस आवाज को अनसुना कर दिया और लगा कि यहां से जाने से पहले कमरे से लगी बालकनी से इस नीले रंग वाले शहर जोधपुर को एक बार फिर से निहारा जाए, जहां दूर कहीं छितर के पत्थरों से बना बेहद खूबसूरत उम्मेद पैलेस है और राजाओं के शौर्य का प्रतीक मेहरानगढ़ है। हालांकि सत्य यह है कि मुझे न राजाओं के महल आकर्षित करते हैं और न हवेलियां। फिर भी उदासीनता से ही सही, एक बार और देखने में हर्ज नहीं है- यह सोचकर मैं बहुत देर तक बाहर देखता रहा।
मैं देर तक सोचूं, तो भी तय नहीं कर पाऊंगा कि इस शहर की गर्म हवाओं ने मुझे बुलाया या इस महल और किले ने? या बेशक कोई और वजह रही हो, जो मैं यहां आया। दुबारा इस शहर से मिलने आऊंगा – यह भी पक्का नहीं। फिलहाल यहां से जाना है। कहां, नहीं पता।
पर्स में देखा तो पांच-पांच सौ के दस नोट और दो-दो सौ के पांच नोट थे। साथ ही कुछ दस-दस के नोट। गिनती करने बैठूं उन दस रुपए के नोटों की तो लगभग-लगभग दस से बारह होंगे। मतलब इतनी राशि है मेरे पास कि और कुछ दिन मेरा काम चल जाए। फिर पेटीएम है ही। मेरी गाड़ी नहीं रुकेगी, इस विश्वास के साथ मैंने होटल के रिसेप्शन पर बिल पे किया और एक कार्ड लेता, मैनेजर को धन्यवाद कहता सड़क पर आ गया।
भागते लोग, उनकी दौड़ती दुनिया। ठहरकर सुस्ताते कुछ आदमी जिन्हें आदमी, भला आदमी कहां मानता है। क्योंकि तेज गति को ही तो जीवन मान लिया गया है। जो धीरे चलते हैं उन्हें कीड़े की तरह कोई भी रौंदकर जीता चलता है।
‘रेलवे स्टेशन?’ सड़क पर दौड़ती ऑटो को हाथ दिखाकर रोका और पूछा।
‘क्या रेलवे स्टेशन जाओगे?’
मैं ऑटोवाले का प्रश्न सुनकर झुंझला रहा था। पर इस समय न खीजने का मन था और न समय। मैंने अपने डफल बैग ऑटो में रखा और बिना देर किए बैठ गया।
‘यहां के तो नहीं हैं?’
‘हां।’ मेरी नजरें उसके ऑटो का मुआयना करने लगीं। ऑटोवाला लाख बात करने के मूड में था, पर मेरा कुछ कहने का मूड नहीं था। चुपचाप देखता रहा उसका बोलना। मेरी मंशा समझकर ऑटोवाला आखिर चुप रहने को मजबूर हुआ और मायूस भी।
अस्सी रुपए जेब से निकाल उसके हवाले किए और स्टेशन के बाहर ट्रेन की सूचना दे रहे डिस्प्ले बोर्ड पर नजर डाल दी कि बिलकुल इस समय कौन-सी ट्रेन जानेवाली है, कहीं भी। ‘कहीं भी’ का मतलब मैं बस्स, बिलकुल इस समय इस शहर को छोड़ देना चाहता था। इस समय जो ट्रेन कहीं जा रही हो, उसमें बैठकर चला जाना चाहता था।
‘जोधपुर-इंदौर’ ट्रेन रवाना होने का समय आठ बजकर पंद्रह मिनट। मोबाइल इस समय साढ़े सात बता रहा था। बिना सोचे-समझे जनरल डब्बे का टिकट लेने भागा और टिकट लेकर ट्रेन पकड़ने के लिए प्लेटफॉर्म नंबर पांच पर!
सीढ़ियां चढ़ता हांफने लगा तो ‘उम्र’ शब्द सोचकर मुस्कान तैर आई। बाल कुछ सफेद, कुछ काले, कुछ भूरे।
‘इस बार इन्हें कोई रंग नहीं दूंगा। सफेद ही भले। उम्र को भला कोई रोक पाया है आज तक। फिर अब काले, सफेद से फर्क भी क्या पड़ना। सफेद मतलब पूरे ही सफेद।’ कोई शपथ जैसे मैंने खुद ही को दिलाई हो।
लिफ्ट और एस्केलेटर दोनों की व्यवस्था होने पर भी चालू नहीं थी। सीढ़ियां चढ़ते लोगों से सुना, पिछले तीन दिनों से दोनों ही काम नहीं कर रहे हैं। सिर्फ एक बैग उठाने के लिए कुली लेना मैंने मुनासिब नहीं समझा। शायद सौ-डेढ़ सौ रुपए बचाने का लालच भी कहीं था। तभी नजरों ने महसूस किया, साथ-साथ चढ़ती कोई और मुझसे अधिक हांफ रही है। हांफने से उसके सीने पर पड़ा दुपट्टा हिलता नजर आया। उसके होठ प्लेटफार्म नंबर पांच बुदबुदाने लगे। वह एक-दो सीढ़ियां चढ़कर रुक जाती, फिर सूटकेस उठाकर चलती और फिर रुकती। घड़ी दो-घड़ी से मैं उसका यह रुकना और चलना देखता रहा। आखिरकार उसके पास रुककर मैंने उसका सूटकेस अपने दूसरे हाथ में ले लिया। हालांकि मेरी थकान का आलम क्या है, यह सिर्फ मैं ही जानता हूँ और चाहता भी नहीं कि कोई और जाने। चेहरे पर किसी भाव को आने दिए बगैर मैं सीढ़ियां चढ़ रहा हूँ। कहीं उसका सूटकेस उठाने का एक कारण यह तो नहीं कि मैं उसे यह जताना चाहता हूँ कि पुरुषों के मुकाबले औरतों में शारीरिक बल कम होता है, वे भारी काम करने में अधिक समर्थ नहीं होतीं।
तभी- ‘उठा लूंगी मैं, नाहक तकलीफ न करें।’
उसकी इस बात का जवाब देने का मेरा कतई मूड नहीं था। खामोश रहना मुनासिब समझकर प्लेटफॉर्म पांच पर खड़ी ट्रेन के सामने उसका सूटकेस लिए खड़ा हो गया। वह पीछे आकर खड़ी हुई।
हाथ से सूटकेस लेकर धन्यवाद कहने के लिए वह मेरे समीप आई थी। मुझे उसके ‘शुक्रिया’ और ‘धन्यवाद’ में कोई खास रुचि नहीं थी। मैं एक क्षण के लिए इधर-उधर देखने लगा, पर मुझे इस बात पर हैरानी हो रही है कि मैं किसी की कृतज्ञता का भी अपमान कर सकता हूँ! खैर, दूसरे ही क्षण मैं जनरल डिब्बा देखने आगे चला गया।
भीड़ और ऐसी भीड़, जैसे आज ही लोगों का इस जगह से जाना और कहीं पहुंचना जरूरी है। जो न पहुंचे, न जाने क्या खास खो देंगे या क्या पा लेंगे! मैं खोने और पाने की वजह जानना नहीं चाहता था। फिर यह जनरल डिब्बा है। इसमें जिसको, जिस तरह और जितनी जगह मिले, वह बैठ जाए और अपने गंतव्य तक पहुंच जाए। इस तरह भीड़ को ठेलकर भी भीतर जाया जा सकता है- यह मेरी समझ से बाहर था। इसलिए थक-हारकर उस रुकने और रोकने वाली को जहां छोड़ कर गया था, एक बार फिर वहां लौटा तो देखा बाहर ‘बी थ्री’ कोच लिखा है। वह ‘बी थ्री’ में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ चुकी थी।
मुझे देख, उसके सकपकाए चेहरे पर कई प्रश्न एक साथ आ गए थे। मेरी आदत नहीं कि प्रश्न पूछे जाने से पहले अपनी ओर से मैं कोई सफाई दूं। इसलिए बैठ गया, उसकी बर्थ के सामने की बर्थ पर। ट्रेन ने सीटी दी, फिर एक धचके के साथ चल पड़ी।
मैं खुश था, क्योंकि यह कोच काफी हद तक खाली था और मुझे भरा कुछ भी पसंद नहीं। मेरे लिए आश्चर्य की बात यह थी कि हवाई यात्रा करने वाला, कभी-कभी शताब्दी और राजधानी से भी आने-जाने वाला, जरूरत और मजबूरी में एसी सेकेंड और थर्ड कोच में सफर करनेवाला मैं आज स्लीपर में बैठा हूँ।
फिर जनरल का टिकट क्यों लिया और अब इस स्लीपर कोच में बिना टिकट? ये फालतू के प्रश्न नहीं हैं, किंतु इनका जवाब मुझे पता है, क्योंकि मैं जानता हूँ ट्रेन और टीटीई का संबंध। यात्री और टिकट का संबंध। होशियारी और बेवकूफी अंतर।
तभी- ‘आपका सीट नंबर?’ टीटीई ने मेरे साथ सीढ़ियां चढ़ी उस स्त्री से पूछा।
‘65’ यह कह महिला ने अपना टिकट आगे कर दिया।
‘और आपका?’
‘66’
‘एक और औरत।’ मैं मन ही मन मुस्कुराया।
‘और आपका?’
मैं समझ गया, तीसरा व्यक्ति मैं हूँ जिससे यह प्रश्न पूछा जा रहा है।
जनरल का टिकट दिखा मैंने कह दिया-
‘इस पर स्लीपर का जो चार्ज है लगा दें। बहुत जरूरी कारण से और जल्दी में ट्रेन पकड़ी, बस इसलिए।’
कुछ बोलकर, कुछ चुप रहकर मैंने दूसरी तरफ ले जाकर उसके हाथ में पांच-पांच सौ के दो नोट रख दिए।
‘दिन की यात्रा है इसलिए।’ टीटीई अब एहसान जताता बोलकर उसने इधर-उधर देखा, फिर अपने कोट के भीतर वाली जेब में रुपए छुपाने लगा। मैं उसके एहसान तले दबकर वहीं-कहीं दो औरतों के नजदीक लोअर बर्थ पर बैठ गया। दिन का समय है, इसलिए मीडिल सीट खोलना शिष्टाचार की तौहीन है।
मेरा मन न पाठक बनना चाहता था कि किसी के मन और चेहरे की किताब पढ़ लूं और न श्रोता जो कान लगा उनकी जुबान खुलने की प्रतीक्षा करूं।
डफल बैग को अपर बर्थ पर रखने से पहले उसमें से मैंने एक किताब पढ़े जाने की चाह लिए निकाली। वह कई दिनों से मेरे साथ यात्राएं कर रही है, पर एक भी पृष्ठ नहीं पढ़े जाने से थोड़ी नाराज है! उस नाराज किताब को आज मनाने के उद्देश्य से मैंने निकाल कर अपने पास रख लिया। पसीने से लथपथ शर्ट ने पानी की बोतल की मांग की तो बोतल निकाल गटागट पानी पीकर फिर उसे बैग में उसी तरह ठूंस दिया।
अब मेरी नजरें दोनों स्त्रियों पर थीं, जिनकी चार आंखें बहुत देर तक खुद में खोई थीं, फिर मुस्कुराती एक-दूसरे से अपने गंतव्य स्टेशन के बारे में बताने-पूछने लगी थीं।
साइड लोअर बर्थ पर एक स्मार्ट युवा बैठा था। उसने अपने कान में इयरफोन ठूस रखे थे। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि वह इतनी तल्लीनता से संगीत का आंनद ले रहा था कि उसे आसपास बैठे यात्रियों से कोई भी सरोकार न था। एक-दूसरे टीटीई ने जब बिलकुल उसके पास आकर सीट संख्या पूछी, तो उसने टिकट दिखाया। फिर अपने आनंदित करते पलों में खो गया। एकबारगी मन हुआ, वर्षों पहले ट्रेन में किसी अनजान आदमी से मैं जिस तरह कुशलता से बात करता था, उस कुशलता को आज परखा जाए। इस युवा से देश की राजनीति और खेल जैसे महत्वपूर्ण विषय पर बात की जाए! पर क्षण भर बाद ही मैंने अपने मन की चाहत रोक दी, क्योंकि मुझे पता है बड़े शहर ने मेरी यह कुशलता कब की छीन ली है।
मैं चाहता तो अपर बर्थ पर रखे बैग को थोड़ा सरका कर, पिछली रात की बची नींद पूरी कर सकता था। पर मेरी आंखें यह नहीं चाहतीं। सच यह है कि मैं इन दिनों कुछ भी चाहने की चाहत नहीं रखता। कई बार जो हो रहा है, उसे दूर से तटस्थ व्यक्ति की तरह होते देखता रहता हूँ। मैं जानता हूँ मुझे जल्द ही किसी में रुचि नहीं रह जाएगी। मैं अरुचिकर कहा जानेवाला व्यक्ति रह जाऊंगा। यह भी ज्ञात है कि इस बात का मैं अफसोस नहीं करूंगा।
मैं बैठा रहा, मन मारकर तो नहीं, पर बैठा रहा। मुझे नहीं पता है कि यात्राएं मुझे हमेशा कितना बदलती हैं। मैं बदलने के लिए आता हूँ खुद के पास कई बार। हालांकि कितना बदलता हूँ, इसका हिसाब–किताब आज तक नहीं किया। इन यात्राओं पर जाने से पहले कोई लाख पूछ ले पर मैं कहां, क्यों और कब का कोई उत्तर नहीं दे पाता और खुद से भी उन दिनों बस खामोश रहने को कहता हूँ, क्योंकि जुबान से थोड़े से शब्द खर्च करना भी मुझे तकलीफदेह लगता है।
इसबार का ‘कहां’ मुझे गर्म और सूखा कहलाए जाने वाले राजस्थान में ले आया था। यह सूखा राजस्थान जरूर है, लेकिन प्रेम से लबालब भरा भी। सूर्यनगरी जोधपुर के मेहमान नवाजी के ये शब्द ‘आओ सा’, ‘बैठो सा’, ‘जीमो सा’ मेरी स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो गए हैं। पर मैं जानता हूँ कि इस तरह के शब्द इन शहरों के लिए ही बने हैं। हमारे महानगर में इन्हें बोलकर अपनी इज्जत का फलूदा किसी भी तरह नहीं बनाया जा सकता। आभास होता है, इन मिश्री घोलते शब्दों को मैंने पहले भी किसी की हँसी के साथ सुना था। किससे, दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी याद नहीं आता।
मुझे यकीन है अपनी व्यस्तता की दौड़ में दौड़ते हुए मुझ जैसे आदमी के पास किसी को ध्यान से सुनने का वक्त कहां है। और तो और मैं अधिकतर ‘हां, हूँ’ से ही काम चलाने लगा हूँ। देश की राजधानी में रहते हुए मुझे सब कुछ धुंधला दिखाई देने लगा। वहां न जाने कौन किस बढ़ते प्रदूषण का प्रभाव है कि उसने आंखों के साथ आत्मा पर भी बहुत कुछ जमा दिया है। उसकी पकड़ इतनी मजबूत है कि कितनी भी धुलाई करने से वह नहीं छूटती।
अपने मन के साथ उलझा मैं सुलझ नहीं पा रहा हूँ। खिड़की की सीट बाहर खेजड़ी के पेड़ देखने के लिए उकसा रही है। बाहर दूर-दूर तक दिखती बलुई मिट्टी और पेड़ों को मैं कुछ देर एकटक देखने लगता हूँ। लेकिन यह देखना मुझे बहुत थकान भरा काम लगता रहा है। मैं पीठ सीट से सटाकर आंखें मूंद जैसे बहुत धीमे से खुद के भीतर की सीढ़ियां लांघता जा रहा हूँ। अंतिम सीढ़ी के बाद मुझे क्या अनोखा मिलने वाला है, यह आज तक समझ नहीं पाया, क्योंकि हमेशा उस अंतिम सीढ़ी से पहले कोई मेरा हाथ खींचकर फिर ऊपर बुला लेता है और उस अनोखे संसार के मिलने से मैं हमेशा वंचित रह जाता हूँ।
फोन बज उठा। देखते-देखते एक नंबर चमकने लगा। फोन रिसीव करते हुए मैं सीट से उठकर बाथरूम की तरफ चला गया।
‘कब लौटोगे?’ एक प्रश्न जो मैं सुन रहा था।
‘फिलहाल नहीं, और यदि कभी नहीं कहूं तो?’ मैंने प्रत्युत्तर में एक रूखा-सा प्रश्न किया।
फोन दूसरी तरफ से कट हो गया। आश्चर्य है कि मैं फूला नहीं समा रहा था अपनी इस बचकानी हरकत पर। मैं बाथरूम की तरफ से लौट आया और अपनी सीट पर बैठ गया। मुझे इस बात की निश्चिंतता थी कि बहुत देर तक अब यह फोन नहीं बजेगा। बजे तो इसकी आवाज कोच में न सुनाई दे, इसके लिए उसे साइलेंट पर रखना मुझे वाजिब लगा।
आमने-सामने की बर्थ पर बैठी स्त्रियां बहुत जल्द एक ही सीट पर आ गईं। मैं हैरानी से उन अजनबी स्त्रियों को एकटक देख रहा था जो इस तरह घुल गई थीं एक-दूजे में, जैसे चीनी घुल जाती है दूध में।
‘इतनी शीघ्रता है इन औरतों को खुलने और खोलने की।’ मन ही मन बोलते ये शब्द उन स्त्रियों में से एक के चेहरे पर अंटक गए।
मेरे हाथों में मेरी किताब थी। किताब खोलने से पहले मैंने खुद को एक और शपथ दिलाई- ‘आहिस्ता-आहिस्ता मैं अपने मन की सारी खिड़कियां बंद कर लूंगा। मन के दरवाजे पर मोटा पर्दा लगा दूंगा। नहीं जाऊंगा किसी के पास, न आने दूंगा किसी को पास।’
शपथ जैसे मुझे मजबूत बना रही हो। इसी मजबूती के तहत मैंने किताब का पहला पन्ना खोलकर चश्मा आंखों पर चढ़ाया ही था कि मेरे कान न चाहते हुए भी सुनने लगे।
‘मैंने हर संभव कोशिश की, लेकिन रिश्ता रिसता रहा और अब…।’
पहली ने दूसरी स्त्री का हाथ आहिस्ता से दबा दिया, जैसे सांत्वना दे रही हो।
‘वे उनके पिता हैं, फिर पिता शब्द बहुत बड़ा अर्थ देने वाला है। कोरोना में जीवनसाथी को खोना बहुत दुखद है। लेकिन मैं उनकी जीवनसाथी नहीं हूँ। पर वे मुझे अपने जीवनसाथी जैसा…’ आगे के शब्द जैसे उसके गले में अटक गए। वाक्य अधूरा छोड़कर दूसरी स्त्री सूनी आंखों से खिड़की के बाहर उन शब्दों का बाकी हिस्सा खोज रही थी।
मुझे इस तरह की बातें सुनने का कभी उत्साह नहीं था, पर इस माजरे की तह तक जाना चाहता था। मैंने खुद को व्यस्त दिखाने की कोशिश की और किताब पर नजरें गड़ाने लगा। लेकिन यह सिर्फ और सिर्फ मुझे पता है कि आंखें किताब पर गड़ी थीं, पर मन कहीं और था।
‘अब?’
‘मैं चाहती हूँ, वे जब इस बार छुट्टियों में घर आएं तो कुछ कहें इस विषय पर।’
‘मतलब?’
‘मतलब क्या हमारे पास कहने के लिए बातें नहीं होतीं? मेरे पास बहुत कुछ होता है कहने को और मेरे पति! उनके पास होती थकान। मेरे पास हँसी होती जो सप्ताह के छह दिन से इकट्ठा करके रखती उनके इंतजार में। सोचती कि साथ होंगे तो हँसेंगे। आंसू आंखों से बाहर आने को मचलते, पर कम्बख्त वे भी उनका रूखा व्यवहार देखकर बाहर नहीं आ पाते। मैं उन्हें इतने वर्षों से जानती हूँ, इसलिए कह सकती हूँ कि अपने पिता के बारे में इस तरह की बातों का विश्वास यह आदमी बिलकुल नहीं करेगा।’
मुझे अब हँसी आने को थी। न जाने कैसे रुक गई। बेवकूफ़ औरत! ‘पर्सनल स्पेस’ शब्द नहीं जानती, साथ हँसेगी। खुद तो अव्वल दर्जे की मूर्खता भरी बातें बढ़ा-चढ़ाकर कह रही है। और तो और एक बूढ़ा क्या खोजेगा इसमें। खुद की शक्ल देखी नहीं है शायद आईने में। पिचका मुंह, हड्डियों का ढांचा, सपाट-सी छाती और गंवई पहनावा!
एक से एक ओपन माइंडेड औरतें हैं हमारे महानगर में। इस तरह की संकुचित मानसिकता वाली बातें कौन करता है! यह सब निठल्ली औरतों के काम हैं, व्यस्तता इतना सोचने का समय नहीं देती। मैंने घृणा से उसे देखकर ‘मूर्ख’ शब्द धीरे से बुदबुदाया।
साइलेंट पर रखा फोन घुर्र-घुर्र करने लगा। शर्ट के ऊपर की जेब से छाती तक कुछ हिलने लगा!
फोन निकालकर कॉल काट दी। पूरा शरीर इस बार कान बनने के मूड में था।
‘वे हँसते नहीं?’ पहली स्त्री ने प्रश्न किया।
‘पहले हम दोनों खूब हँसते थे, वह भी जरा-जरा सी बात पर। किंतु अब जैसे उदासी उनके चेहरे पर रहने को मजबूर है। पूछती हूँ तो जवाब मिलता है, ऐसा ही हूँ। बस एक रोज कारण जानना चाहा तो बोले शादी के बाद के अठारह वर्ष दे दिए तुम्हें, और कितना चाहिए?’
‘अरे हर समय हँसता रहे कोई, और कोई काम नहीं है हँसने के सिवाय? सही है, आदमी बेचारा इस उम्र में और क्या जवाब देगा। बस लिजलिजा प्रेम का नाटक करता रहे उम्र भर, यही चाहिए तुम्हें?’ मेरे भीतर का दंभी पुरुष आहिस्ते से बोला।
मुझे, न जाने क्यों, चिढ़ होने लगी। यह चिढ़ क्रोध बनकर मेरे चेहरे पर झलकने लगी। हालांकि मैं माहिर हूँ हमेशा से चेहरे पर नकाब लगाने में!
‘क्या ये बातें मुझे प्रभावित कर रही हैं?’ खुद से प्रश्न किया।
‘नहीं! जरा भी नहीं। मेरी बला से गाती रहे यह औरत अपने दुखों का गीत।’ मुझ जैसे दंभी व्यक्ति ने खुद से यही कहा।
‘क्या विवाह के अठारह वर्ष तक ही हमें साथ रहना था, हँसना था और बाकी जीवन…? और, बिना बताए लौट जाते हैं दूसरे शहर, जहां वे नौकरी करते हैं। बना खाना टेबल पर छोड़ जाते हैं। हँसते तो मेरे साथ कभी नहीं। हां, रुलाने की कोई कोशिश नहीं छोड़ते।’ दूसरी औरत पहली औरत के चेहरे पर पसरे दुख को देख फिर से अपना मर्सिया गाने लगी।
उन स्त्रियों के अलावा भी मेरे कान में एक अन्य आवाज कहीं दूर से आ रही है- ‘आपकी पसंद की सब्जी, ‘भिंडी’ के साथ परांठे पैक कर दिए हैं रास्ते के लिए। जब मन करे खा लेना।’
‘अव्वल दर्जे की मूर्ख हो। बच्चा समझा है मुझे। डिब्बा लेकर डोलता रहूँ। हरगिज़ नहीं। मुझे भूख-प्यास लगेगी तो इंतजाम करना आता है। समझी!’
लैपटॉप वाले बैग के साथ अपना बैग उठाकर रवाना होता एक आदमी पीछे मुड़कर भी नहीं देखता। बस उसे सुनाई पड़ती है रुलाई की आवाज, वह मन ही में हँसता है, खूब तेज। उस याचक औरत की रुलाई की आवाज जैसे इस दूसरी औरत के दुख के गीत के साथ कहीं गहरे तक पैठ गई है। मैं अपने कानों को अपने दोनों हाथों से बंद नहीं कर पा रहा हूँ।
‘यहां पर भी चैन नहीं लेने देती।’ बुदबदाता हुआ मैं किताब के काले अक्षरों को पढ़ने की कोशिश करता हूँ।
हैरानी इस बात की है, इतना समय बीत गया और किताब का पहला शब्द भी मुझे छू नहीं पाया। क्या यह किताब का क्रोध है जो हद से अधिक बढ़ गया है! मैं उसे अपने हाथ में फिर से पकड़कर दुलारता हुआ किसी तरह मनाने की असफल कोशिश करता हूँ, पर वह नखरैल प्रेमिका-सी अपने नखरे दिखाने में लगी है।
दूसरी तरफ मेरी पीठ पर दो आंखें लगी थीं। वे पीछा नहीं छोड़ रही थीं। पानी की बोतल हाथ में है, पर हलक से एक घूंट भी नहीं उतर पा रहा है।
पूरी रात आंखों में गुजरती है। दरवाजे पर जरा-सी दस्तक मुझे चैन नहीं लेने देती। एक डर हमेशा मेरा पीछा करता रहता है। दूसरी स्त्री बोलती जा रही है। पहली खामोशी से उसका कंधा सहलाती है।
वह फिर बोल पड़ती है- ‘किसी के भी पास सुनने वाला कान नहीं है। और मेरी आंखें किसी कान की खोज कर पाए, वे अब इतनी तेज नहीं रहीं।’
मैं उकता रहा हूँ। ‘कान, आंखें, नाक और किसकी जरूरत है तुम्हें?’ मुझे लगता है कि मैं पूछूं ‘हे देवी! इस संसार के ऐसे दुख जो दुख की श्रेणी में नहीं हैं वे सब इस ईश्वर ने तुम्हें न चाहते हुए भी दे दिए है। सब कुछ छोड़कर हिमालय पर चली जाओ या तुम दुख को लेकर सिर पीटती रहो!’
वह अपना सिर पीटे न पीटे, मैं कुछ देर बाद अपना सिर पकड़ कर अपर बर्थ पर चला जाता हूँ। मुझे लगता है, यहां बैठा रहा तो दो-तीन डिस्प्रिन खानी पड़ सकती है। और हमेशा साथ रखने वाला डिस्प्रिन का पत्ता फिलहाल मेरे पास नहीं है।
तभी- ‘सो गए? देखो न, मेरी आंखों में नींद नहीं है, रात के दो बजे हैं। मैं बस छत देख रही हूँ।’
‘सो जाओ, आंख बंद करके। पूरे दिन ऊल-जलूल, फालतू बातें सोचोगी तो ऐसा ही होगा। दिमाग को कचरा घर बना लिया है पूरा का पूरा। ठूंसती रहो इसमें जो मिल जाए।’
पास लेटी यह स्त्री जिसे मैं अपनी पत्नी कहता हूँ फिर करवट बदलती है। वह चादर ओढ़कर सोने का जबरन प्रयास करती है। सुबह जब मिलती है तो आंखें लाल, पर तवे पर करारे परांठे सेंक रही है। टेबल पर अचार और दही निकाल कर रखा है। मेरी तरफ न जाने कौन-सी उम्मीद की खिड़की खोले देख रही है!
मेरी आंख खुल जाती है। ट्रेन की सीट इतनी छोटी है फिर यह उसकी आवाज! मैं पसीने से नहा जाता हूँ।
नीचे वाली सीट पर बैठी औरत सिसक रही है।
‘क्या तुमको भी लगता है कि मुझे साइकेट्रिस्ट की जरूरत है?’
पहली स्त्री इस बात का कोई उत्तर नहीं देती। कुछ देर के लिए उन दोनों के मध्य चुप्पी पसर जाती है।
मैं फिर नीचे आकर बैठ जाता हूँ। अब दो औरतों की जगह तीन औरतें दिखाई देती हैं। मेरी आंखें ठीक हैं, यह चेक करने के लिए मैं फिर चश्मा चढ़ा लेता हूँ।
वाकई वे तीन हैं। दो से तीन कब हुईं? तभी टीटीई एक बार फिर डिब्बे में।
‘लूनी से कौन चढ़ा?’
‘आपका सीट नंबर?’
‘68’
वह अपने हाथ में पकड़े कागज पर टिक लगाता है और आगे बढ़ जाता है। मैं समझ गया अभी कुछ देर पहले आए स्टेशन से यह मोहतरमा चढ़ी होंगी। मुझे बाथरूम जाने की तलब लगती है, सीट के नीचे जूते खोजता हूँ। तीसरी महिला अपना बैग हटाती है, मैं अपने जूते पहनकर बाथरूम की ओर आ जाता हूँ। वहां की हालत देखकर चेहरा नाक-भौं सिकोड़ने लगता है। फिर अपने छोटे शहर में गुजरे बचपन से युवा होने का लंबा समय और तंग हालात का ख्याल मेरी पेशानी की सलवटें हटाने में कामयाब हो जाता है। बाथरूम के बाहर लगे वॉश बेसिन से हाथ धोकर फिर अपनी सीट पर बैठ जाता हूँ। फिलहाल जिद्दी किताब को मनाने का जतन स्थगित कर देता हूँ।
उन दो महिलाओं के चेहरे से ध्यान हटकर सहसा मेरा ध्यान अब तीसरी महिला पर केंद्रित हो गया है, जो फोन पर बात कर रही है।
‘तीन वर्ष बाद मेरी याद आई। बहुत पहले मैंने कहा था इस शराबी, मारपीट करने वाले आदमी के साथ नहीं रह सकूंगी। तुम मुझे ले चलो। जब भी मौका मिला तो खूब चूमा-चाटा तुमने मुझे, लेकिन अपने साथ नहीं…।’
‘नहीं, बिलकुल नहीं। अब न तुम, न तुम्हारा चूमा-चाटा ही मुझे अपने फैसले से हिला पाएगा। हां, मेरे शराबी पति ने भी कब का दम तोड़ दिया। तुम तो बहुत ही हरामजादे निकले। अब जहां है, जिसके पास है, वहीं रह। लौटना मत मेरे पास, समझा।’ यह कहकर तीसरी औरत का चेहरा लाल हुआ, आंखें गीली हुईं और होंठ कांपे। फोन बंद कर वह सीट से पीठ सटाकर बैठ गई।
वे दो औरतें अचानक अपना दुख भूलकर उसके दुख में शरीक होने लगीं।
‘क्या है मेरे चेहरे पर? घूर-घूरकर देखे जा रही हो। फोन पर बातें सुनकर न?’ तीसरी औरत इधर-उधर देखकर उन दोनों से बोली।
‘मेरे उसका फोन है जिसका इंतजार करती आंखें थक गईं। जब उसकी जरूरत थी, मुंह छिपा भाग गया। अब क्या है! माफी यूं नहीं मिलती। बहुत पागल और बीमार हुई हूँ मैं। फिर समय ने बहुत सिखा दिया।’ वह सुबक पड़ी।
तीसरी औरत उन दो औरतों के सामने अपनी जिंदगी की बंद किताब के पन्ने खोल रही है या खुद के घाव को सहला रही है, मुझे नहीं पता।
मुझे लगता है मैं नीम बेहोशी में हूँ। कोई कह रहा है मुझसे – ‘सुनो।’
‘बोलो जल्दी।’
‘हम हमेशा साथ रहेंगे न?’
‘देखो, ऐसा वादा कभी नहीं किया मैंने।’
‘पर मैं तुम्हारी…।’
‘पत्नी बनने की कोशिश बेमानी है। फिर घर में एक पत्नी है। और तुम हमेशा एक ही रट…।’
‘नाराज मत हो, जानती हूँ सब। पर फोन तो उठा लिया करो।’
ख्याल आया, कितने दिनों से उस एक नंबर से बात नहीं हुई। उस नंबर को मैं खोजने लगता हूँ। न जाने कैसे कांटेक्ट लिस्ट में से वह नंबर गायब हो गया है। पहले कई रोज तक उसके नंबर मुझे जुबानी याद थे। अब कहां, कैसी होगी वह?
दिमाग सुन्न पड़ गया। ट्रेन के कोच में घूमते चायवाले को आवाज लगाई।
‘एक चाय।’
‘दस रुपए।’
जेब से दस रुपए का एक नोट निकालकर चाय वाले को देते हुए मैं सोचता हूँ, तीन चाय और ले लूं। इतना अधिक बोल रही स्त्रियों का सिर भी भारी हो गया होगा। मेरे सोचने से पहले मेरे साथ सीढ़ियां चढ़ती उस पहली स्त्री ने तीन चाय बोलकर तीस रुपए आगे कर दिए।
मैं हतप्रभ होकर देखता हूँ कि कुछ घंटे पहले ये औरतें एक-दूसरे को नहीं जानती थीं और अब बहनापा!
बेकार चाय, बिना अदरक की। भन-भन करते सिर को आराम नहीं। जीभ और कसैली हो गई।
मैं फिर मोबाइल में आंखें घुसा देता हूँ। हजारों बार देखा सारे नंबर कांटेक्ट लिस्ट में है, पर उसका नंबर नहीं है। किससे पूछूं, कहां पता करूं, समझ में नहीं आ रहा था।
फिर एक आवाज- ‘बेवकूफ हूँ न?’
‘बिलकुल’
‘तुम पूरा एक दिन दोगे मुझे?’
‘एक दिन पूरा?’
‘हां’
‘क्या करोगी?’
‘तुम्हारे साथ बाजार जाना है, कॉफी पीनी है। पास्ता खाना है और हाथ पकड़कर घूमना है।’
‘तुम सचमुच बेवकूफ हो। इतना वक्त मेरे पास कभी नहीं होगा।’
रुलाई फूट पड़ती है। बस रोना। हर बात पर रोना।
कोई मर गया है शायद इस डिब्बे में, सारी औरतें रोती हैं एक साथ।
मैं किताब एक तरफ रखकर फोन में नंबर खोज रहा हूँ और निराशा हाथ लगती है।
‘बहुत गिड़गिड़ाती उसके सामने। एक दारू पीकर मारता तो सोचा दूसरा मेरे जख्म पर दवा लगाएगा। लेकिन वह बिना बताए ऐसे भागा कि जैसे मैं उसकी जायदाद मांग लूंगी। अरे, औरतें देना जानती हैं, बेवकूफ साला!’
मैं उसकी भाषा पर ध्यान देता हूँ। उसकी पहनी अस्त-व्यस्त साड़ी देखता हूँ। चेहरे पर नजर जाती है तो उसकी उम्र मुझे चौंतीस-छत्तीस से ज्यादा की नहीं लगती।
‘बेवकूफ’ शब्द मेरे कानों से टकराने लगता है। मैं कान को आज काटकर अपने बैग में रखना चाहता था। पर कान न जाने कौन से मजबूत जोड़ से चिपके हुए हैं।
तीन औरतें जब रोती-बिलखती थक गईं, वे एक-एक करके बाथरूम की तरफ चलीं, दो दूसरी औरतें उसके पर्स और सामान की ऐसे देखभाल कर रही थीं, जैसे अभी कोई चोर-उचक्का यहां आकर छीनकर ले जाएगा उनका सामान।
मुझे अब हँसी आने को थी। उनका एक-एक का बाथरूम जाने का कार्य जब संपूर्ण हुआ, उन्होंने अपने-अपने बैग से टिफिन निकाल लिए और अचार, आलू, नमकीन और पूरी की खुशबू मेरे नथुनों में प्रवेश करने लगी।
ललचाती नजरें देख रही हैं उनके टिफिन, कागज की प्लेटें और अखबार।
मैं अपने बैग से एक सेब निकालता हूँ और कुतरता हूँ धीरे-धीरे। ट्रेन में घूमते एक सेल्समैन से बिस्कुट का एक पैकेट खरीद लेता हूँ।
मुझे मेरी पसंद की सब्जी और परांठे आसपास दिखाई देने लगते हैं। मेरी भूख तेज हो जाती है। सेब कुतरना बंद कर आधा खाया सेब खिड़की से बाहर फेंक देता हूँ।
ट्रेन में सीट के नीचे झाड़ू से कचरा निकाल हाथ आगे करती एक छोटी लड़की को देखकर बिस्कुट का पूरा पैकेट उसके हवाले कर देता हूँ। दस-बारह साल की वह लड़की फटी फ्रॉक पहने थी। उसके गंदे चिकट बाल न जाने कितने दिन से धुले न होने की कहानी सुना रहे थे। मिट्टी से सना चेहरा उसकी लाचारी का जिक्र कर रहा था तो नन्हे उभार जवानी का ढिंढोरा पीट रहे थे।
बिस्कुट का पैकेट देखकर उसकी आंखें चमक उठीं। कुछ पलों में उसकी मां उसके साथ आ खड़ी हुई। हाथ में पकड़ा उसका बिस्कुट का पैकेट झोले में डालकर, उसका हाथ खींचते हुए किसी और कोच में ले गई। जाने मन कैसा-कैसा हो गया। कुछ देर के लिए कोच के गेट पर जाकर खड़ा हो जाता हूँ। बाहर झुलसाती हुई तेज गर्म हवा चल रही है, पर मन बिलकुल ठंडा पड़ा है। ठंडा मन फिर भी हवा के वेग-सा भाग रहा है। मैं उसे रोकने का कोई प्रयत्न नहीं करता।
मैं चाहता था कि जब अपनी सीट पर लौटूं, तब तक उन तीनों के खाने का कार्य समाप्त हो जाए। इसलिए मैं देर तक वहां से नहीं हिला। हालांकि मैं साइड लोअर सीट पर जाकर बैठ सकता था, पर वह युवा बहुत देर से अपनी सीट पर लेटा खर्राटे भर रहा था। उसके कानों में अभी भी इयरफोन ठूंसे हुए थे।
तभी तीनों स्त्रियां वॉश बेसिन पर एक–एक कर हाथ धोने व डस्टबिन में कागज की प्लेट और अखबार डालने के लिए आती हैं। मैं समझ जाता हूँ, और अपनी सीट पर आकर बैठ जाता हूँ। अपनी जेब से चश्मा निकालकर आंखों पर चढ़ा, एक बार फिर हाथ में किताब लेता हूँ। तभी मेरी नजर पहली स्त्री पर पड़ती है जो मेरे साथ सीढ़ियां चढ़ रही थी और जिसका सामान मैंने उठाया था। मैं ध्यान से देखता हूँ उसका चेहरा। उम्र उसकी भी पैंतीस या चालीस के आसपास।
बहुत सुंदर नहीं है पहली स्त्री, फिर भी वह खूबसूरत है। खूबसूरत इसलिए कि उसके ऊपर वाले होंठ के पास तिल है और आंखें बड़ी-बड़ी। मुझे हमेशा बड़ी आंखों वाली औरत आकर्षित करती है।
मेरे भीतर का मन अब उसकी बड़ी किंतु उदास आंखों तक जाकर रुक गया। मैं देर तक उन उदास आंखों का सामना नहीं कर पाया।
तभी दूसरी स्त्री ने पूछा- ‘खाने की बड़ी दिक्कत होगी न तुम्हारे उनको, जब तुम कहीं बाहर जाती होगी?’
‘नहीं, बिलकुल नहीं होती।’ पहली स्त्री बोली।
‘मतलब वे खुद बना लेते हैं खाना?’ दोनों स्त्रियां जैसे एक साथ बोलीं।
‘वे इस दुनिया में हैं ही नहीं, तो दिक्कत कैसी!’ वह अपने फोन से नजरें हटाती हुई बोली।
‘आत्महत्या कर ली पिछले साल उन्होंने। सब परेशानियों से निजात।’
इतनी आसानी से उसके मुंह से इतनी मुश्किल बात आखिर निकली कैसे। मैं और मेरे साथ दोनों औरतों के लिए यह विस्मय की बात थी। बिना पलकें झपकाए वे देखती रहीं बहुत देर तक पहली स्त्री को।
‘सब राज किसी को कहने न थे। मेरी गलती थी कि मुझे कुछ छुपाना नहीं आया।’
यह औरत पहेलियां बुझाना बंद कर दे तो कितना अच्छा होता। मैंने एक बार फिर हाथ में पकड़ी किताब सीट पर रख दी।
‘जब दस साल की थी, मेरे मामा ने मुझे गुड़िया का लालच देकर अपने कपड़े खोलने को कहा और बस…।’
‘तो तुमने किसी को बताया क्यों नहीं?’ दो स्त्रियों में से एक ने पूछा।
‘मम्मी मेरी बात समझी नहीं। वर्षों तक घुटते रहने के बाद मैंने पति को यह बात बताई तो वे जब तक जीवित रहे, उस रात के बाद मेरे पास कभी नहीं आए। मुझसे कोई बात नहीं की। फिर एक रोज आधी रात को…।’
मेरी स्मृति में एक डायरी दिखाई देने लगी। मैं प्रश्न पूछता- ‘यह अंकित कौन है?’
‘मेरा क्लासमेट।’
‘क्लासमेट या और भी बहुत कुछ!’
उसकी चुप्पी, उसका डायरी को जलाना, फिर कई वर्षों तक ‘हां’ और ‘ना’ का संवाद।
मैंने किताब अपने डफल बैग में रखी और बोतल से दो घूंट पानी पी लिया।
मेरे सामने ट्रेन में झाड़ू लगाती वह दस वर्ष की लड़की और उसकी छोटी होती फ्रॉक में से झांकते नन्हे उभार फिर दिखाई देने लगे।
मुझे अपनी घृणित सोच पर ग्लानि हुई, कैसे उस बच्ची के बारे में मैं इस तरह सोच सका। उसके नन्हे उभार पर दृष्टि डाल सका। क्या मैं भी…।
आगे मुझे सोचने समझने की अपनी शक्ति क्षीण होती दिखने लगी।
‘विधवा कोटे में नौकरी लग गई एक स्कूल में टीचर की, अजमेर। इसलिए अपनी बेटी और बूढ़ी मां के साथ वहीं रहती हूँ। बस दस-बीस दिन में एकबार घर संभालने यहां आ जाती हूँ। अभी बिटिया को मां के पास ही छोड़कर आई हूँ। भरोसे के लायक यह दुनिया मुझे कभी नहीं लगती। किसी पुरुष से बात करने में डरती हूँ!’
यह कहकर पहली औरत सीढ़ियां चढ़ने से अधिक अब हांफने लगी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि सीढ़ियों से उसका सूटकेस लाने के बाद उसके धन्यवाद कहने पर मैं उसकी उपेक्षा कर रहा था या उसका खुद में सिमटा उसका डर ही व्यक्त हो रहा था।
‘क्या कहूं इन औरतों से!’ मेरी समझ मुझे नासमझ बनने के लिए उकसाने लगी।
दूसरी औरत ने उसकी हथेली पर अपनी हथेली रखी, जैसे कह रही हो कि हम साथ हैं। तीसरी ने उसे पानी का गिलास पकड़ाया।
ट्रेन मारवाड़ जंक्शन स्टेशन पर रुकी। स्टॉल पर चाय बेचता आदमी कोच के भीतर आकर चाय-चाय की पुकार लगा रहा था। साइड लोअर बर्थ पर बैठा युवा नींद से जागा। उसने ही बताया कि यहां इंजन चेंज होगा, ट्रेन आधा घंटा रुकेगी।
मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा था। मैंने चार चाय ली, तीन उन औरतों को दी और एक मेरे पास वाली सीट पर मेरे लिए रखी तो तीनों एकबारगी तो चाय के लिए हैरत से मुझे देखने लगीं। फिर आंखों से आभार जताया। मैंने प्रत्युत्तर में मुस्कुरा दिया।
मेरी नजरें एक बार फिर मोबाइल पर वह नंबर खंगालने लगी, जिससे महीनों से बात नहीं हुई थी। मुझे लगा, वह लड़की अकसर एक बात कहती है जब मैं उससे कहता, ‘तुम्हारा ख्याल रहता है मुझे हमेशा।’
‘मुंडा देखी प्रीत है।’
‘मतलब!’
‘सामने देखा तो प्रेम की बात करने लगे।’ यह कह वह खूब हँसती।
जब होटल का बिल पे किया तो कोई और यही बोल रहा था। मतलब वह लड़की इस शहर की है। क्या यह कारण था मेरे यहां आने का? पर अब नंबर तो मेरे पास नहीं है।
मुझे जल्दबाजी में कुछ नहीं सूझ रहा था। मैं अपना डफल बैग लेकर ट्रेन के बाहर खड़ा हूँ।
मेरे पास होटल का कार्ड था।
‘मैं दो दिन और रुकना चाहता हूँ।’
‘बिल्कुल सर। आपरी ही होटल है सा। स्वागत है आपरो। पधारो सा!’
इतने बड़े शहर में वह लड़की कहां होगी। मुझे नहीं पता लेकिन मैं कुछ भी विचार करने की स्थिति में नहीं था।
होटल के मैनेजर से बात खत्म होते ही एक फोन और लगाया।
‘चिंता मत करो। जल्दी ही लौट आऊंगा तुम्हारे पास।’ फिर रुलाई की आवाज।
‘अरे आ जाऊंगा जल्द ही। कह दिया न!’
बहुत दिनों बाद मोबाइल के भीतर जैसे रोते हुए मुस्कुराया कोई।
ट्रेन धीरे-धीरे पटरी पर सरकती रफ्तार पकड़ने लगी। ये स्त्रियां अब क्या बातें कर रही होंगी, यह सोच, मुझे बेचैनी होने लगी है। लेकिन कुछ क्षणों बाद मेरा चैन लौट रहा है, क्योंकि मैं अगली ट्रेन से फिर नीले शहर लौट रहा हूँ… उसके बाद जल्द अपने शहर।
मैं कान बनूंगा, क्योंकि कान बहुत ज़रूरी है, लेकिन मेरा कान कौन है…?
संपर्क : बाड़मेरा स्टोर, कमल मेडिकल के सामने, नगरा, अजमेर, राजस्थान-305001 मो.9680571640
हमें कान चाहिए था
हिन्दी कथा परिदृश्य में इधर कुछ नए प्रयोग हो रहे हैं। मैं इनमें से एक प्रयोग की चर्चा विनीता बाडमेरा की कहानी”हमें कान चाहिए था”के संदर्भ में कर रहा हूं।पहली बात तो शीर्षक प्यारा है। कहानी की सफलता की पहली कसौटी है पाठकों में जिज्ञासा उत्पन्न करना।सच पूछिए तो जिस प्रकार ग़ज़ल कही जाती है,उसी प्रकार कहानी भी कही जाती है। कथाकार पाठकों को कहानी सुनाता है।उसके लिए पाठकों की सहमति महत्वपूर्ण है।यदि कथावाचक कहानी सुना रहा है और हूंकारी भरने वाला श्रोता नहीं हो तो कहानी सुनाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
इस कहानी में दो प्रकार के प्रयोग हैं।पहला यह कि कान यहां प्रतीक के तौर पर उभर कर सामने आया है।दूसरा यह कि दो तीन स्त्रियों का एक समूह ट्रेन यात्रा के दौरान अपने- अपने दुख की पोटलियां खुलकर बैठ गया है।वही कहानी की नैरेटर है।यह कहानी एक नायक और एक नायिका की नहीं सबकी कहानी है।ऐसे में बहुत से पात्रों को एक साथ लेकर चलने पर कहानी के बिखरने की प्रबल संभावना रहती है।पर सधी हुई कलम कहानी को सुरक्षित रूप से लक्ष्य तक पहुंचा कर दम लेती है।इस कहानी में स्त्रियों के साझा दुःख को यात्रा के जिस छोटे कालखंड में प्रस्तुत किया गया है वही इस कहानी की सफलता है। विस्तृत फलक को संक्षेप में इस कौशल से समेटना कि कुछ भी छूटने नहीं पाए और अनावश्यक विस्तार भी नहीं हो ,ऐसी कुशलता इस कथाशिल्पी में है।
महाभारत में युधिष्ठिर ने स्त्रियों को शाप दिया था कि वह किसी भी बात को गोपनीय नहीं रख पाएंगी।कुंती ने कर्ण के जन्म प्रसंग को संसार के समक्ष छुपाए रखा था।जब युधिष्ठिर को यह ज्ञात हुआ तो वे माता से क्षुब्ध हुए और ऐसा शाप दिया । दरअसल वर्तमान परिवेश में स्त्रियों की मनोदशा में बहुत बदलाव आया है और वे खुल कर अपनी बात रखना चाहती हैं लेकिन दुखद यह है कि उनकी आवाज अनसुनी रह जाती है।इस कहानी की सभी स्त्रियां एक दूसरे से अपरिचित हैं लेकिन थोड़ी ही देर में दूध शक्कर की तरह घुल मिल जाती हैं।वे यहां भयमुक्त और बिंदास हैं और उन्हें परवाह नहीं कि एक पुरुष भी उनकी गोपनीय बातों को सुन रहा है। जैसे रेल के सभी डब्बे अलग होते हुए भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं वैसे ही ये स्त्रियां भी नितांत अलग होते हुए एक दूसरे से जुड़ गई हैं। सचमुच दुख एक दूसरे को जोड़ता है।उनकी पीड़ा यह है कि जिस घृणित कृत्य की एक स्त्री घर में ही शिकार हो रही है,उसके समाधान के लिए उसके पति का ही सहयोग प्राप्त नहीं होता।इसी प्रकार रिश्तों की देखरेख और पालन पोषण तो पौधों की तरह अपेक्षित है लेकिन यहां भी पति की घोर उदासीनता पीड़क है।एक स्त्री अपनी पति की आत्महत्या की बात इतनी सहजता से लगभग प्रसन्न भाव से बतलाती है। कहानी का एकमात्र पुरुष पात्र अचरज से इन बातों को सुनता है और मन ही मन इन सब स्त्रियों को भला – बुरा भी कहता है।हैरत की बात यह है कि अंततः उसे भी इनके दुखों से सहानुभूति हो जाती है।वह भी अपनी मित्र या प्रेयसी को काॅल कर अपनी वापसी की सूचना देता है।एक बार अपनी यात्रा को विराम देकर पुनः नीले शहर की ओर लौटता है। यहां एक पुरुष के दोहरे चरित्र को उभारने की एक कोशिश है परंतु कुछ दबी हुई सी।
कुल मिलाकर यह कहानी प्रयोगधर्मी चेतना की कहानी है जो अपनी तकनीक के साथ साथ अभिव्यक्ति के स्तर पर भी सधी हुई है।विनीता बिना शोर – शराबे के सारी विद्रूपताओं को बेपर्द कर देती हैं। सामूहिक दुख को जिस सधे हुए सुर में वह व्यक्त करती हैं कि कहीं कोई घालमेल नहीं दिखाई देता।यह कहानी इस अर्थ में विशिष्ट है कि कथाकार अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ रहीं हैं। पात्र अपनी आपबीती सुना रहीं हैं और कहानी स्टेशन तक पहुंच कर समाप्त हो जाती है। यहां से सभी अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।रह जाती है तो पाठकों के मन में उनके दुखों की लावारिश पोटलियां!
कहानी में विस्तृत कथा वस्तु नहीं है लेकिन न्यूनतम कथ्य में अधिकतम तथ्य को परोसने का हुनर विनीता में है।इस कहानी में विजुअलाइजेशन के साथ अनूठा बतरस है जो भले ही संक्षिप्त है लेकिन पाठकों को बांधने में सक्षम है। विनीता में कहन की प्यारी भंगिमाएं हैं और इधर भाषा के स्तर पर भी उन्होंने काम किया है।हिन्दी कथा परिसर में इस विनीत स्वर को शुभकामनाएं!
ललन चतुर्वेदी