वरिष्ठ लेखिका। प्रकाशित कृतियाँ अपनेअपने मरुस्थल’, ‘नागफनी’ (कहानी संग्रह), एक्वेरियम की मछलियां (कविता संग्रह)

 

आजी का, महाप्रयाण हो चुका था। अंतिम दर्शन के लिए, नाते-रिश्तेदारों का जमघट लग गया। बाबा पहले ही गोलोक सिधार चुके थे। जहां चार लोग हों, वहां किसी की जबान न हिले, ऐसा तो हो ही नहीं सकता!

कोई बोला, ‘बहुत नीक रहीं हमार अजिया। पूजा अउर ध्यान, नियम ते, कीन्ह करत थीं। ओनका बरत-उपास, सबै कुछ, कायदे ते होत रहा।’

‘ऊ तो पहिले की बात रही। बादै मां तो…’ इतना कहकर, प्रतिक्रियास्वरूप चर्चा अधूरी छोड़ दी गई।

इस पर किसी ने कहा, ‘हम तो सुनिन, आजी गजब मनई थीं! परिवार मा ओनका, सासन बिकट रहा। पतोहन का बहुत घुड़कत रहीं।’

‘हम तुमका कत्ती बेर बतावा, जो मनई खतम हुइ गवा, ऊकी बुराई, न करैं क चही।’ किसी बुजुर्ग ने आकर डांट पिलाई तो सन्नाटा छा गया।

पर बातें तो बातें हैं! आजी अपनेआप में इतिहास थीं। इतिहास के अपने अलग तेवर होते हैं। आजी के भी थे! कहते हैं, आजी पांच बरस पहले, विधवा हो गई थीं।

आजी की अंतिम यात्रा का प्रबंध, उनका प्राणप्रिय पौत्र अविनाश, पत्नी गरिमा संग कर रहा था। मृतका मंगला देवी चौधरी उर्फ आजी उसके साथ शहर में ही रह रही थीं। गांव में उनका कुनबा होने के कारण तमाम कुटुंबी वहां से आए।

उन्हें देख गरिमा को, वितृष्णा होने लगी। उसने पति से कहा, ‘जीते जी इन लोगों ने आजी की खबर नहीं ली और मरने के बाद भी कुछ सिरफिरे उनके बारे में उल्टा-पुल्टा बोल रहे हैं।’

‘छोड़ो भी!’ अविनाश, तटस्थ दिखने का यत्न करते हुए बोल पड़े, किंतु भीतर ही भीतर कोई तूफान उमड़ आया। मृतका की आत्मा की शांति के लिए किए गए हवन तथा मृतक भोज के उपरांत जब एक-एक कर सब आगंतुक विदा हो गए तो साहस करके एक दिन गरिमा ने अविनाश से पूछा, ‘आजी और बाबा की, बनती नहीं थी क्या?’

‘ऐसा क्यों पूछ रही हो?’

‘बस यूं ही। गांव वाले बतिया रहे थे। सुनने में आया बाबा के लिए वे करवाचौथ का व्रत नहीं रखा करतीं… घर की किसी कोठरी में, अलग-थलग पड़ी रहती थीं।’ सुनकर गरिमा के पति अविनाश कुछ भड़क गए औेर व्यंग्य से कहने लगे, ‘वे ऊलजलूल बकते रहे… और तुम चुपचाप खड़ी सुनती रहीं?’

गरिमा पहले तो स्तब्ध रह गई, फिर संभलकर बोली, ‘बिना सचाई जाने, कैसे कुछ बोलती मैं? आप भी तो कुछ बताने को तैयार नहीं थे!’

‘श्रीमती जी! पहले अपनी बात करो।  करवाचौथ का व्रत तुम इसलिए रखती हो क्योंकि मैं भी तुम्हारे लिए साथ में उपवास करता हूँ…’, पति ने पत्नी को समझाना चाहा।

वे आगे बोले, ‘गांव का माहौल दूसरा था। पुरानी पीढ़ी वाली औरतों की दशा एकदम अलग रही। न ही वे तुम्हारी तरह भाषणबाजी जानती थीं और न स्त्री विमर्श के नाम पर हंगामा करना! हाँ… आजी की बात कुछ और…’ कहते कहते, वे चुप्पी साध गए।

‘खुलकर कहिए अविनाश! क्या कहना चाहते हैं? मैं भी तो जानूं हमारी आजी के बारे में इतना प्रपंच क्यों हो रहा था?’

अविनाश समझ गए उनकी पत्नी बताए बिना मानेगी नहीं। वे गंभीर होकर बोले, ‘तुम्हें पता ही है, मैं गांव वालों को यहां हमारे घर के आसपास भी फटकने नहीं देता था।’

‘हां, पर आप ऐसा मुझे असुविधा से बचाने के लिए करते रहे।’ गरिमा कुछ व्यग्र होकर बोल पड़ी।

पत्नी की बात से पति के होंठों पर एक मर्मभेदी मुस्कान उभर आई। वे कुछ देर शून्य में तकते रहे, तदुपरांत मंद स्वर में बोले, ‘एक कारण और भी था। इन्हीं गांववालों ने एक प्रकार से आजी का…’

‘आजी का क्या…?’ गरिमा पूछे बिना रह न सकी।

‘सामाजिक बहिष्कार कर दिया था।’ अविनाश ने बड़े कष्ट से अपना टूटा-फूटा वाक्य पूरा किया।

‘पर क्यों?’ गरिमा को मानो 240 वोल्ट का झटका लगा! वह थोड़ी देर को सुन्न पड़ गई।

पत्नी की अवस्था देख पति भी विचलित हो गए। सामान्य होने में उन्हें कुछ समय लगा। वह समझ नहीं पाए किन शब्दों में सहधर्मिणी को आजी की व्यथा कथा सुनाएं! कभी-कभी अभिव्यक्ति जड़ हो जाती है और भाषा अशक्त!

उन्होंने खुद को सहेजा और बतलाना शुरू किया, ‘आज से लगभग 12-13 साल पहले की बात है। पर लगता है मानो कल ही की हो। दशहरे वाले गंगा स्नान के लिए आजी, बाबा संग गईं। आजी, बाबा और मैं एक बैलगाड़ी में थे। मैं यानी उनका प्यारा मन्नू चौधरी! परिवार के बाकी सदस्य और गांव वाले दूसरी बैलगाड़ियों में।गरिमा लगभग सांस रोके हुए पति की कथा सुन रही थी। उत्सुकता उसे जकड़े थी।

मन्नू चौधरी कहते रहे, ‘एकाएक ठंडी हवा चली और बाहर का जायजा लेने के लिए आजी ने टाट से बने पर्दे के बाहर झांका। इसपर बाबा चिल्लाए, ‘बैलान (पागल) अउरत! ईका बहिरै उठाय कै फेंक दीन जाय तभौं सुधरी।’

कहानी जारी थी, ‘बाबा का गुस्सा मेरी समझ से बाहर था। जरा-सा बाहर देख लेने में ऐसा क्या अंधेर हो गया?’

मौन में डूबकर अविनाश, कुछ पल खोए- खोए से रहे। गरिमा अधीर हो उठी, ‘आगे कहिए अविनाश!’

कथा अनजाने ही मन को मथने लगी थी, ‘गांव में मर्यादा की मिसाल थीं आजी। 60 साल की उम्र में भी चादर ओढ़े बगैर घर से नहीं निकलतीं। पल्ला उनके सर से कभी नहीं सरकता। बहुओं को भी संस्कार की घुट्टी पिलाए रखती थीं। पूजा-अर्चना, त्यौहार सब अनुशासित तरीके से होता। उनकी अनुमति के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता।’ कहते-कहते कथावाचक को लगा कि वे विषय से भटक रहे थे।

‘तो फिर आजी को बिरादरी की नफरत का सामना क्यों करना पड़ा?’ गरिमा पूछे बिना रह न सकी।

अविनाश बोले, ‘गंगा किनारे लगा मेला देखने की उनमें बहुत ललक थी। बैलगाड़ी से उतरकर वे जल्दी-जल्दी उस तरफ बढ़ीं। अर्से बाद ऐसा अवसर आया होगा। घरेलू स्त्रियां घर की कैदी होती थीं। कभी-कभार सामाजिक या धार्मिक आयोजनों के लिए ही वे चौखट से बाहर कदम रखतीं…वह भी गांव की सीमा में।’

बोलते हुए वे पुनः चुप हो गए। उनकी मनोदशा देखकर पत्नी की हिम्मत सवाल-जबाव करने की नहीं हुई। जिज्ञासा चरम पर थी किंतु उसे शांत करने के लिए पतिदेव को कोंचना ठीक नहीं लगा।

मन्नू चौधरी दिमाग ठंडा करने के लिए ट्रेडमिल पर दौड़ते रहे। शवासन किया और आलथी- पालथी मारकर ध्यान भी लगाया। छुट्टी के दिन यों भी वे इसी प्रकार समय बिताते। इतने में पत्नी नींबू पानी ले आई। शरबत रखकर वह जाने लगी, तो अविनाश ने उसे हाथ पकड़कर बैठा लिया।

बोले, ‘आगे का किस्सा, नहीं जानना चाहोगी?’

प्रश्न पर प्रतिप्रश्न हुआ, ‘क्या आप बताना चाहेंगे?’

मन्नू चौधरी एक मंद स्मित को अधरों तक आने से रोक न पाए और कह उठे, ‘कहानी शुरू की है, तो पूरा करना ही है। हां, तो मैंने बताया कि आजी तेजी से मेला-मैदान की तरफ जा रही थीं धोबन से बतियाते हुए। बाबा के पैरों में चोट थी। वे लंगड़ाकर घिसटते हुए चल पा रहे थे। लिहाजा पीछे छूट गए।’

‘तो?’

‘तो वे बाद में आजी पर टूट पड़े। उन्हें बहुत लताड़ा, बहुत गरियाया! बोले, ई तरह भगी जात रही के मेला देखै बगैर ऐके परान निकरि जइहैं…’

अविनाश ने कथा के चरम बिंदु पर गरिमा को उचाट दृष्टि से देखते हुए कहा, ‘उन्होंने एक ऐतिहासिक घोषणा की। यह कि ई मेहरिया के हाथे कभौं पानी ना पियब…।’

‘तब फिर…?’

‘उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा अंत तक निभाई। इसके बाद वे सात बरस तक जीवित रहे, लेकिन आजी के हाथों से छुआ पानी नहीं पिया।’ मन्नू चौधरी ने भींगे हुए स्वर में कहा। जाने क्यों उनकी पत्नी को लगा कि वे कुछ छुपा रहे थे।

‘इस तरह तो उन्होंने अपनी ही छीछालेदर करवाई। क्योंकि पत्नी से ज्यादा पति की सेवा कोई नहीं कर सकता!’

‘यह तुम्हारी गलतफहमी है। उनका भरा-पूरा परिवार रहा। बेटे-बहू, नाती-पोते सब उनका खयाल रखने के लिए ही तो थे।’ उदासी से  छलकता हुआ उत्तर मिला।

‘कितनी गलत बात है… जिस औरत ने बरसों बरस मेहनत कर इतने बड़े फलते-फूलते हुए कुटुंब को खड़ा किया, उसकी तपस्या का कोई मोल नहीं! अपने ही परिवार में!’ स्त्री विमर्श सर उठाने लगा था।

अविनाश ने तंज भरे अंदाज में कहा, ‘पितृसत्ता ने सबके भेजों की कंडीशनिंग जो कर रखी थी। अपने अनुसार उन सबका अनुकूलन किया हुआ था। बाबा को अपने चौधरी होने का मद था। पंचायत में उनकी ठसक थी। वे एक माने हुए व्यापारी थे। एक बड़े जमींदार, पर अंत में…!’

‘अंत में?’

‘कुछ नहीं… कभी बाद में बताऊंगा।’ मन्नू चौधरी ने हतप्रभ होकर कहा।

‘मुझे अभी भी लगता है इस कहानी में कुछ झोल है। समथिंग इज मिसिंग इन द स्टोरी’, गरिमा बोली और निराश होकर रसोई में चली गई।

अविनाश सोच में पड़ गए। सही बात थी। उन्होंने पत्नी को सब कुछ नहीं बताया। आजी ब्याह कर जिस गांव से आई थीं, वह गांव कस्बे जैसा था। आजी आठवीं पास थीं और बाबालगभग अंगूठा टेक! आजी के नाम मैके की कुछ जमीन भी रही। बटाई से जो पैसा आता था  उनके अकाउंट में जमा हो जाता रहा। वे कोई ऐसीवैसीऔरत नहीं थीं। बाबा को कदाचित यही बैर हो उनसे!

‘जब तक घर के बड़े-बूढ़े रहे, आजी उनके दबाव में जीती रहीं। एक समय ऐसा भी आया, जब वे परिवार हेतु मुखिया जैसी हो गईं। उनका वर्चस्व बढ़ता चला गया। उनके व्यापारी पति जब व्यापार के काम निपटाकर घर लौटते, तो वहां की सब व्यवस्था पत्नी के हिसाब से चलती हुई पाते।

‘हो न हो पति के भीतर का पुरुष, उसके भीतर का गृहस्वामी आहत हुआ होगा… और एक दिन पितृसत्ता ने मातृसत्ता को पटखनी दे ही डाली! आजी का कद घटने लगा। परिवार में उनका दबदबा समाप्त हो गया। बहुएं उनकी अवज्ञा करने लगीं। वे सह ना सकीं और अपना चूल्हा-चौका अलग कर लिया!

‘गांव में कुछ भले लोगों का सहारा न होता, तो उनका जीना मोहाल हो जाता। एक परित्यक्ता की हैसियत ही क्या! इस बीच चौदह वर्षीय मन्नू को नवीं कक्षा में दाखिला मिल गया। गांव में आठवीं कक्षा तक ही पढ़ाई की सुविधा थी। इसके चलते उसे निकटवर्ती कस्बे के छात्रावास में जाकर रहना पड़ा। उस मातृविहीन बालक में आजी की जान बसती थी। जचगी के दौरान ही जिसकी मां चल बसीं!’

‘आइए, खाना लग गया है।’ पत्नी ने पुकारा तो वे बेमन से उठे। खाना खाते हुए, दंपति का जी अच्छा नहीं था। उनके मिजाज उखड़े-उखड़े से थे। अन्यमनस्कता उन पर हावी थी।

गरिमा ने डरते-डरते बोला, ‘एक सवाल और करूं आपसे?’

‘हां… हां, क्यों नहीं!’ खाने के बाद अविनाश चौधरी का मन कुछ हल्का-सा लगा।

‘बाबा के छोड़ने के बाद आजी का क्या हुआ?’

‘होता क्या? उनका प्यारा और मेधावी पोता मन्नू भी उनसे अलग हो गया। आगे की पढ़ाई के लिए उसे हॉस्टल जाना पड़ा। वे उससे लिपटकर, फूट-फूटकर रोईं!’

‘ओह!’ कहते हुए गरिमा के नैन छलछला गए। परंतु अविनाश ने तो जैसे उसे देखा ही नहीं। वे अपनी ही रौ में बह रहे थे। ‘सिंगार-पिटार का बराबर ध्यान रखने वाली आजी, उस सबसे निर्लिप्त हो गईं। बहुएं असगुन के भय से तीज- त्योहारों में उन्हें नई धोती, बिछुवे, टिकुली, सेंदुर वगैरा लाकर दे देतीं, पर उन्हें तो मानो कोई सरोकार ही नहीं! वे गेरुवा तिलक लगाए, साध्वी जैसी दिखतीं।’

पति ने पत्नी को विस्फारित नेत्रों से अपनी ओर देखते हुए पाया। वे बोल उठे, ‘बाबा सात साल बाद नहीं रहे, किंतु आजी तो पहले ही विधवा हो गईं! उनके बच्चे खुलकर उनका समर्थन नहीं कर पाए। इतना जरूर था कि उनके लिए बाजार से सौदा-सुलुफ ले आते। आजी की नातिन तो शिक्षिका की नौकरी पाने के बाद बेझिझक उनकी तरफदारी करने लगी। पुजारी बाबा आजी के मैके से थे, इस कारण उनसे सहानुभूति रखते थे।’

अविनाश ने फीकी हँसी हँसते हुए पुनः कहा,  ‘जिंदगी चल रही थी, मगर विलंबित लय से!’

वे रुके और अर्थपूर्ण ढंग से बोले, ‘बाबा भी परिस्थितियों से बिलकुल अछूते नहीं रहे। वे आजी की तरह परिवार को बांधकर नहीं रख सके। कुटुंब बिखर गया और संपत्ति का बंटवारा करना पड़ा। उनका वजूद भी ज्यों बंट गया हो। कुटुंबियों ने उन्हें उनकी जिम्मेदारियों को आपस में बांट लिया।’

‘आखिर आजी पर किए अन्याय का कुछ तो सिला मिला।’ गरिमा ने फुसफुसाकर कहा, परंतु फिर भी अविनाश ने सुन लिया। औचक ही बोल पड़े, ‘तुमने ठीक कहा… अंत में दुख तो उनको भी झेलना था। एक दिन जब उन्हें अस्थमा का दौरा पड़ा, दवा की गोली निगलने के लिए पानी तक न बचा। उनके पास तब कोई नहीं था। सब मंदिर गए थे आरती करने। उनकी देखभाल के लिए छुटके चाचा के जुड़वां लड़के तैनात किए गए थे, जो बंदर का नाच देखने मदारी के पास भाग गए। बाबा गोली ले लेते, तो उनकी जान बच सकती थी!’

‘आपको कैसे पता चला कि उन्हें अस्थमा का दौरा पड़ा था? वहां तो कोई नहीं था!’

इस पर वे झुंझला उठे, ‘और क्या हो सकता था? उनकी यही एकमात्र बीमारी थी!’ पत्नी पति की मनःस्थिति में होने वाले उतार-चढ़ावों से त्रस्त होकर उधर से चली आई।

मन्नू चौधरी विचारने लगे, ‘ठीक ही तो कह रही थी गरिमा… मैं उसे स्पष्ट कुछ नहीं, बता रहा!’

कैसे बताते… क्या बताना इतना सहज था! अतीत पर पड़ी धूल स्वतः ही हटने लगी… और सब कुछ साफ होता चला गया। उस शाम वे छात्रावास से बस पकड़कर गांव की सीमा तक आए थे। आजी और परिजनों से मिलने का उछाह था। मौसम भी साथ दे रहा था। राह में एक बुजुर्ग मिले। उन्होंने पूछा, ‘कैसन हउ बिटवा?’

‘ठीक हन काका’ उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा था। कुम्हार चाचा, नाऊ काका, रामू बटैया और मनसुख तेली भी मिले। कोई उनकी सेहत के बारे में तो कोई उनकी पढ़ाई के बारे में पूछता। सबसे बोलते-बतियाते वे आगे बढ़ते जाते थे। गांव के अंतिम छोर पर परिवार वालों के मकान थे।

जब नजदीक पंहुचे तो खांसने, कराहने और चीखने की आवाजें सुनाई पड़ीं। वे बाबा के स्वर को पहचान गए और दौड़कर वहां पहुंचे। बाबा आर्तनाद कर रहे थे, ‘हमका दवाई खातिर, पानी चही… कउनो पियावैं वाला नाहीं… मंगलिया री! कत्ती दइयां बुलावा… ससुरी, निर्लज्ज! यहिसे हम परेशान हन!!’

और तब…! उनकी आंखों ने आजी को देखा। वे पत्थर बनी अपनी कोठरी के दरवाजे से सटी खड़ी थीं। बगल में पानी की बाल्टी!!

अविनाश को विश्वास नहीं हुआ कि बाबा पानी पिलाने के लिए आजी को पुकार रहे थे! वह आनन-फानन में आजी की बाल्टी लेकर बाबा की तरफ गए, परंतु जब तक उनके पास पहुंचे, मौत उन्हें छीन ले गई थी!!

आजी अब तक वैसे ही खड़ी थीं। प्रस्तर-सी। स्पंदनहीन। निर्विकार दृष्टि… भावहीन चेहरा… अविनाश को झुरझुरी-सी हुई!!

‘आज बड़ी सोच में हो? क्या बात है?’ पत्नी के कुरेदने पर विचार तंद्रा टूटी। वे चौंककर बोले, ‘नहीं… कोई बात नहीं… कुछ भी तो नहीं!’

परंतु पत्नी जानती थी कि वे जरूर किसी बात पर पर्दा डाल रहे थे… कोई रहस्य तो था!!

 

संपर्क सूत्र : टाइप 5 /9 एन. पी. . एल. क्वाटर्स, ‘सागररेजिडेंशियल कंप्लेक्स, पोस्ट त्रिक्काकारा, कोची– 682021(केरल) मो.9447870920