युवा कवि।
बंदूक
इतिहास गवाह है
कि बंदूकें जब भी उठी हैं
हत्याएँ हुई हैं, रक्षा नहीं हुई कभी
किसी बंदूक से
धर्म के लिए उठी बंदूकों ने हत्या की धर्म की
संस्कृति के लिए उठी बंदूकों ने संस्कृति की
शांति की बंदूकों ने नष्ट किया
शांति को
बंदूक से कभी रक्षा नहीं हो सकी
किसी विचार की
न ही स्थापित हुआ कोई मूल्य
न ही कोई व्यवस्था
अंधी हैं बंदूकें
अंधे आदेशों का पालन करती हैं
अंधे हो जाते हैं बंदूक उठानेवाले हाथ
वह हाथ चाहे धर्म के हों
संस्कृति के हों
शांति के हों
व्यवस्था के हों या किसी देश के हों।
हम धनरोपनी स्त्रियाँ हैं
बाबूजी!
धनरोपनी, धननिरौनी और धनकुटनी भी हमारे नाम हैं
हमारी जात धान की जात है, हमारा इतिहास
धान की जड़ों का इतिहास है
हममें से कोई मिट्टी की बनी है, कोई पानी की
कोई सूखे की, कोई अकाल की
तो कोई बाढ़ की
हम बिरवा-बिरवा धान नहीं, अपने दुख रोपती हैं
अपने सपने, अपनी प्रतीक्षा रोपती हैं
बाबूजी!
दुख, जो हमारे जीवन में मिट्टी पानी-सा मिला है
जो गीत बनकर हमारे कंठों से खेतों में झरता है
जो बिरवों को अशीषता है
यह गीत हमारे बच्चों के स्वप्न में भात के गीत हैं
यह हमारे मजदूर पतियों-भाइयों-बेटों की
प्रतीक्षा के गीत हैं
ये धन्यवाद हैं दई-दहिजार को जो बारिश करवाता है
उलाहना है राजा-जमीदार को, गारी हैं
सेठ-साहूकार को
बाबूजी!
रोपनी के गीतों में जो उल्लास है
हमारे बचपन के दिनों की याद है
बेटियों के लिए हमारी करुणा है
सपनों के लिए संवेदना है
कहते हैं दुख कभी बेकार नहीं जाता बाबूजी!
जिन बिरवों की जड़ों में रहता है कोई दुख
वह जल्दी जड़ पकड़ते हैं
हरे रहते हैं
धनरोपनी, धननिरौनी, धनकुटनी ही हमारे नाम हैं
बाबूजी
हमारी जात धान की जात है, हमारा इतिहास
धान की जड़ों का इतिहास है।
ईश्वर पैरों का छाला है
जैसे गाय, भैंस, कुत्ता, बिल्ली, सुअर, चमगादड़
सबका कोई न कोई ईश्वर होगा वैसे ही
मैं भी निरीश्वर नहीं हूँ
जैसे एक पत्थर तोड़ती स्त्री का ईश्वर हथौड़ा है
और लोहा गलाने वाले मजदूरों का ईश्वर
उनकी मजबूत बाहें हैं
जैसे रोगियों का ईश्वर जो उनका इलाज करता है
जैसे पुजारियों का ईश्वर वे मूर्तियाँ जिनसे
रोजगार चलता है
जैसे लोलुप नेताओं की ईश्वर है वह मूर्ख जनता
जो जाति-धर्म पर वोट करती
दुम हिलाती है
यकीन करें ईश्वर है
लेकिन उसकी कोटियां अलग-अलग हैं
जैसे कुछ ईश्वर सड़कों पर मदद के लिए खड़े हैं
वहीं कुछ ईश्वर भरपेट भोजन कर सो रहे हैं
कुछ और भी वातानुकूलित ईश्वर हैं
जो रतिमग्न हैं
आप पूछते हैं इस संकट में मजदूरों का ईश्वर
क्या कर रहा हैं?
कविता में कहूँ तो मजदूरों का ईश्वर पैरों का छाला है
जो फूट कर बह रहा है।
पिता के जूते
(जो हमारी पीठ का मैदान हरा किए रहते)
पिता के जूते सिर्फ पहनने के काम नहीं आते थे
हमें पीटने के भी काम आते थे
जो जूते सुबह से शाम तक पिता के पैरों में होते
और उन्हें कांटा-खूंटी-ठोकर से बचाते
वही हमारी पीठ सीधी करने का
महान काम भी करते
पिता जो हमेशा सीधी राह
और विनम्रता से सबको नमस्कार करते चलते
हम जो हमेशा क़ु-राह चलते और झगड़ा करते
तब पिता के जूते ही हमें सही राह पर लाते
पिता के जूतों के निशान खेतों-पगडंडियों पर ही नहीं
हमारी पीठ का मैदान भी हरा किए रहते
छपे रहते
हमने बचपन से टायर के जूतों को नजदीक से देखा
वे जल्दी कटते-फटते नहीं थे और न ही
ईंट-पत्थर से पैरों में ठेव लगने देते
हमें पिता के जूतों से हद दर्जे की नफरत थी
हम उन्हें कुओं में फेंक देना चाहते थे
हँसिया से काट डालना चाहते थे
कउड़ा में जलाना चाहते थे
लेकिन एक दिन पिता जब खेत में पानी से टूटती
मेढ़ बांध रहे थे तभी एक कालिया नाग ने
उनके पैर पर फन पटका
पिता कहते हैं वह छिटक कर मेड़ से दूर गिरे
यह जूते थे जिन्होंने जान बचाई
इस तरह उम्र भर के लिए हम
जूतों के शुक्रगुजार हुए
सच कहें तो किताबों और अनुभवों से
हमने जितना सीखा
पिता के जूतों ने भी हमें कम नहीं सिखाया
पिता ने हमारी टेढ़ी पीठ पर जितने जूते मारे
हम उतने सीधे हुए
इतने सीधे की छरहरे और पूरे छह फुट के हुए।
मेरी भाषा ही मेरी जाति है!
मैं चाहता था कि आपको बताऊं मिट्टी के गर्भ में बीज
और माँ के गर्भ में शिशु एक जैसे स्वप्न देखते हैं
हंसते और डरते हैं
शिशु अंखुओं के मुंह धुलाने को ही ओस झरती है
और धूप आती है फसलों और चिड़ियों को जगाने
वृक्षों की पत्तियों को डाट काम पर लगाने
फूलों-फलों को सहलाने
मैं आपको बता सकता हूँ पक्षियों के रूठने के बारे में
किस मौसमी फूल पर कब किस रंग की
तितली दिखाई पड़ती है
और किस फूल की पंखुड़ियां कितने दिनों में झरती हैं
मेरी चिंताओं में है- अनियमित क्यों है बारिश
क्यों सूख जा रहे तालाब हर बार कुछ जल्दी
क्यों झर रहे हैं वृक्षों से असमय पत्ते
कहाँ चले गए चिरई-चुरङ्गुर
क्यों भटक रहे मजदूर
और किसान क्यों कर रहे आत्महत्या?
लेकिन आप हैं कि आपको कुछ मतलब ही नहीं
आप मुझसे मेरी जाति पूछते हैं?
मैं आपसे पूछता हूँ
क्या आप बता सकते हैं अन्न की जाति क्या है?
ओस बूंदों और आंसुओं की जाति क्या है?
वृक्षों और पक्षियों की जाति क्या है?
नदियों-तालाबों-कुओं की जाति क्या है?
इनमें किसी एक ने भी कभी मुझसे मेरी जाति नहीं पूछी
लेकिन मैं आपको बताता हूँ किसानों और मजदूरों की
कोई जाति नहीं होती
रही बात मेरी तो जान लीजिए मजदूर-किसान
मेरे पिता हैं, पृथ्वी मेरी माँ है, पुस्तकें मेरा धर्म
और मेरी भाषा ही मेरी जाति है।
संपर्क: ग्राम- दरवेशपुर, पोस्ट- भरवारी, जिला-कौशांबी-212201(उत्तर प्रदेश) मो.6306813815 email- viraag1994@yahoo.com
बहुत अच्छी कविताएं।
अच्छी कवितायेँ। कुछः सोचने पर विवश करती है।
प्रत्येक कविता संवेदनाओं से भरपूर। प्रत्येक कविता परिदृश्य दरर्शाती है। वागर्थ जैसी उच्च साहित्यिक पुस्तक मेंं कविता प्रकाशन हेतु आपको बहुत बहुत बधाई।