कविकथाकार।चार कविता संग्रह, पांच उपन्यास।महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान से सम्मानित।

धीरे-धीरे छिपता और उगता है
जैसे सूर्य
सूर्य हमेशा साथ है
बस हम ही रात हो जाते हैं
किताबें धीरे-धीरे सिखाती हैं
और धीरे-धीरे समझ में आता है
आदमी का चेहरा

धीरे-धीरे फैलती है गंदगी
फिर बीमार होते हैं धीरे-धीरे
किसी दिन अचानक महामारी आ जाती है
और सब बेखबर रहते हैं
ऐसे मरना अच्छी बात नहीं है

शब्दों का जादू धीरे-धीरे सिर पर चढ़ता है
और हम उसी के हो जाते हैं
धीरे-धीरे पर्दा उठता है
तब देर हो चुकी होती है
देखता हूँ कि
मालगाड़ी सामान धीरे-धीरे ले जाती है
तब तक बहुत भूख लग चुकी होती है
उसे अपना राज्य छोड़ने से डर लगता है
जहां स्वर्ग है धरती पर
वहां भी जाना नहीं चाहता
उसका मन अपनी जन्मभूमि के अलावा
कहीं नहीं लगता
वैसे बंदूकें कहीं नहीं हैं
लेकिन बंदूक के सपने हैं
यह सब हुआ है धीरे-धीरे!

बच्चे बड़े हो गए
बाप बूढ़ा हो गया धीरे-धीरे!
फैशन में नंगे हो गए धीरे-धीरे!
साहब धीरे-धीरे होता रहेगा
धीरे से जीवन चला जाएगा
और पता नहीं चलेगा

साहब, मैं धीरे से कुछ पूछना चाहता हूँ
अब क्या पूछूं आपसे
आप सब झूठ ही बोलते हैं
और कई बार जवाब ही नहीं देते
साहब, जा रहा हूँ अपने घर धीरे-धीरे!

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