हिंदी के साहित्येतिहास को अधिक समावेशी बनाना जरूरी
हिंदी साहित्य के इतिहास को फिर से लिखने का सवाल बार-बार उठता रहा है। 5 दिसंबर 2020 को भारतीय भाषा परिषद की एक ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में साहित्येतिहास के नए परिप्रेक्ष्य पर विचार करते हुए कहा गया कि हिंदी की साहित्येतिहास-दृष्टि इकहरी न होकर समावेशी हो। लंदन विश्वविद्यालय की प्रो. फ्रांसेस्का ऑरेसेनी ने हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में बहुभाषीय परिदृश्य को जरूरी माना। उनका कहना था, ‘हिंदी का अतीत बहुभाषीय है तो इसका वर्तमान संकीर्ण नहीं होना चाहिए। हम किसी एक भाषा की परंपरा में समूचे साहित्य को रखते हैं, जबकि वह साहित्य कई भाषाओं में और कई बार अनेक लिपियों में होता है। जायसी फारसी जानते थे, लेकिन उन्होंने अवधी में ‘पद्मावत’ लिखा। यह फारसी, कैथी और नागरी लिपियों में उपलब्ध है। जायसी बहुभाषी थे। बहुभाषीय साहित्य का इतिहास प्रतिस्पर्धा और शत्रुता मिटाने में मददगार होगा।’ उन्होंने इतिहास लेखन की पद्धति में ‘टाइम’ की जगह ‘स्पेस’ को अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व दिया।
डॉ. अजय तिवारी ने इस पर चिंता व्यक्त की कि टाइम या काल का महत्व कम कर देने से किसी भाषा के सांस्कृतिक विकास को समझना मुश्किल हो जाएगा। स्पेस-केंद्रित इतिहास विकास को रेखांकित नहीं कर सकता। वे कहते हैं ‘इतिहास का अंत नहीं हुआ है, बल्कि इसे समावेशी बनाने की जरूरत बढ़ गई है। ‘हिंदी साहित्य के इतिहास में जनपदीय बोलियों का समकालीन साहित्य, उर्दू साहित्य, विमर्शों का अनुभव-आधारित साहित्य, प्रवासी साहित्य और लोकवृत्त के विशाल क्षेत्र-फिल्म, टीवी आदि के साहित्य को भी शामिल करने की जरूरत है। हिंदी को अधिक प्रतिनिधिमूलक बनाने की जरूरत है। साहित्येतिहास लेखन में विचारधारा को अनिवार्य कसौटी न बना कर मूल्यों और दृष्टियों को आधार बनाया जाए।’
श्रीलंका के केलोणिया विश्वविद्यालय के प्रो. लक्ष्मण सेनेविरत्ने ने चिंता व्यक्त की, ‘भारत के बाहर जैसे श्रीलंका, मारीशस आदि में जो हिंदी साहित्य लिखा जा रहा है, वह साहित्य इतिहास में नहीं आता।’ मारीशस के महात्मा गांधी इंस्टीच्यूट के प्रो. वेदरमण ने सवाल उठाया, ‘क्या पुराने इतिहासों के परिप्रेक्ष्य को सुधार कर उनमें नई चमक पैदा नहीं की जा सकती? ‘साहित्य के नए इतिहास लेखन का परिप्रेक्ष्य हो सकता है लोकतंत्र, इसके लिए समावेशी दृष्टि जरूरी है। गोरखनाथ, अमीर खुसरो या तुलसी ने साहित्य के लिए अपने-अपने समय में वह भाषा चुनी थी जिसमें उन्हें लगा था कि लिखना जरूरी है और लोग सुनेंगे। संचार क्रांति ने भाषा को प्रभावित किया है। इसने कई परिवर्तन ला दिए हैं। लेकिन इतिहासकार की खूबी है कि वह ऐसा साहित्य चुनता है जिसमें विचार की प्रधानता होती है। इसके अलावा, यह भी देखना जरूरी है कि काल और कला के बीच संबंध कैसा है। पर्यावरण की दृष्टि से भी साहित्य के इतिहास को देखना जरूरी है। इतिहासकार के पास संग्रह-त्याग का विवेक होना चाहिए।’
प्रसिद्ध आलोचक प्रो.अवधेश प्रधान ने कहा, ‘साहित्य के इतिहास में केवल आलोचना और मूल्यांकन नहीं होता और न वह घटनाओं का संग्रह है। इतिहास लेखन का परिप्रेक्ष्य बनाते समय ध्यान में रखना होगा कि हिंदी का प्रसार अब काफी बढ़कर पारदेशीय हो गया है। हिंदीतर राज्यों में हिंदीतर भाषाभाषी भी हिंदी साहित्य लिख रहे हैं। नगालैंड से कश्मीर और दक्षिण भारत तक इसके विपुल उदाहरण हैं। विभिन्न जगहों के हिंदी साहित्य को इस तरह शामिल करने की जरूरत है कि साझापन और अंतर्क्रिया झलके। अब तो भारतेंदु काल ही आदिकाल की तरह लगता है। आचार्य शुक्ल ने कहा था कि जनता की चित्तवृत्ति बदलती है; सो अब वह काफी बदल गई है। इसलिए साहित्य में बदलाव आया है तो इतिहास दृष्टि में भी विस्तार आएगा। नजरुल ने बांग्ला कविताओं के साथ हिंदी में भी लिखा है। इन चीजों को भी शामिल करना होगा। आजकल हिंदी साहित्य में लोकभाषाएं शामिल हो रही हैं, उदाहरण है आदिवासी साहित्य। हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ी में कई नाटक किए हैं। उनका ‘आगरा बाजार’ अद्भुत है।’
डॉ.शंभुनाथ ने समापन भाषण में कहा कि हिंदी का कभी अंध-राष्ट्रवाद से संबंध नहीं रहा है और हिंदी साहित्य के इतिहास में स्पष्ट रूप से आलोचनात्मक समावेशिकता रही है। उन्होंने कहा, ‘रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी की जातीय एकता के दृष्टिकोण से जो साहित्येतिहास लिखा था, उसे हजारी प्रसाद द्विेवदी ने मानवतावादी विस्तार दिया। दोनों के बीच ‘बनाम’ नहीं, ‘और’ का संबंध है। दोनों के इतिहास में बहुत कुछ मूल्यवान है, पर वे अब नाकाफी हैं। फिर भी विश्वविद्यालयों में हिंदी साहित्येतिहास की शिक्षा पुरानी जगह पर खड़ी है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि नए इतिहास लेखन का संबंध देश में नया इतिहास बनाने से है। हमारी नई इतिहास-दृष्टि बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगी कि हमारी भविष्य-दृष्टि क्या है। हम हिंदी, भारत और विश्व के कैसे भविष्य की कल्पना करते हैं- मार-काट से भरा भविष्य या शांतिपूर्ण और न्यायपूर्ण भविष्य?’
परिषद की अध्यक्ष डॉ.कुसुम खेमानी ने स्वागत वक्तव्य में कहा कि देश-विदेश के विद्वानों के बीच विश्व हिंदी संवाद की यह शुरुआत निश्चय ही चिंतन के नए गवाक्ष खोलेगी। हिंदी साहित्य के इतिहास को व्यापक बनाना जरूरी है। इसमें आप्रवासी साहित्य को भी शामिल करना चाहिए। संगोष्ठी के संचालक प्रो. संजय जायसवाल ने विषय प्रस्तावना करते हुए कहा कि साहित्य के इतिहास के प्रश्नों पर विश्व हिंदी संवाद एक सार्थक सिलसिला बनेगा। परिषद के मंत्री श्री केयुर मजमुदार ने धन्यवाद ज्ञापन किया।