युवा कवि। म. ज्यो. फु. रूहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली में शोधार्थी।

दूर वट की छांव से

इस तरह स्वच्छंद
बालाएं हुई हैं
पायलें भी छिन गई हैं
पांव से!

आ, नगर की धड़कनों में
खो गई हैं
बादलों की पीठ पर
नव बीज बोने
रोलरों से देह-अंकुर
को बचाकर
चाहती हैं दुधमुंहे
सपने संजोने

आंख से यादें ढुलक कर
आ गई हैं
जुड़ रहीं संवेदनाएं
गांव से!

सूंघ आर्टिफिशियल अब
खुशबुओं को
घूमती दुर्गंध में
वे जी रही हैं
मॉल, ऑफिस, साथियों की
डोर से ही
रिस रहे जो घाव
उनको सी रही हैं

सावनों के मस्त झूले
जीभ पर बस
दूर कोसों नीम, वट की
छाँव से!

बूढ़ा घर

कब लौटेंगे परदेशी अब
सोच रहा है बूढ़ा घर!

पाल-पोसकर बड़ा किया है
जिसने छाया दी
खुद की देह घिसी साबुन सी
सुंदर काया दी

चेहरे पर जम आई दाढ़ी
नोंच रहा है बूढ़ा घर!
पढ़-लिख शहर बसे स्वजनों ने
अब तन्हाई दी
नम नयनों के रुके अश्रु को
जमती काई दी

धीरे-धीरे खंभे जैसा
लोच रहा है बूढ़ा घर!

पुट्टी से झड़ते किवाड़ पर
ताला जड़ा हुआ
आंगन में यादों सा बटुआ
औंधा पड़ा हुआ
तप्त देह में खाली ‘निडिलें’
कोंच रहा है बूढ़ा घर!

संपर्क : ग्रामताहरपुर, पोस्टचौहनापुर, थानाकांट, जिलाशाहजहांपुर, पिन-242406 मो.9958017216