युवा लेखिका।कविता संग्रह– ‘लड़की कैक्टस थी’, ‘मैं किसी कालिदास की मल्लिका नहीं’।
प्रेम के लौटने पर
देह और मन में इतनी टूटन रही
कि दोनों की पीर मिलाकर
बटी जा सकती थी एक रस्सी
और चढ़ी जा सकती थी उससे फांसी
पर मैंने उसे ठीक वैसे ही रोपा इस तन में
जैसे रोपे जाते हैं खेतों में धान
फूलों की सुगंध से भरता है संसार
जैसे चैत में हर बरस
नीम के फूलों से भर जाती है वसुधा
जैसे वासना के ज्वर से
देह की नस-नस फड़कती है
और फागुन में जगता है कौमार्य
भादों में जैसे मेह बरसता है
और स्पर्शों की धुंध से भरते हैं स्मृति के कोटर
जैसे स्पर्श का स्वाद
देह पर चढ़ता-उतरता है अनजाने ही
प्रेम के लौट आने पर
जीवन की लय पर
वैसे ही मलंग हो कर झूमती है आत्मा।
लौट आओगे तुम
वर्षा लौटेगी तो लौट आओगे तुम भी
कहोगे पांव में लगा है कीच
जरा जल तो लाओ
चूल्हे में आंच सुलगती होगी
तुम्हें देखकर भभक उठेंगी लकड़ियां
आंच की ढेरी से कोई नीचे गिर पड़ेगी
पेड़ों से झरने लगेंगे कल के उतरे हुए फूल
चौरे की तुलसी झूम-झूम उठेगी
कदंब पर बैठी कोयल चुपचाप सुनेगी
तुम्हारे मीठे बोल
हल्की बरखा गहरी हो जाएगी
बूंदों के जोर से थिरक उठेगी टीन की छत
तुम चौके में बैठकर मांगोगे गुड़ और पानी
मैं तुम्हारे मुंह में मिश्री की डली घोलूंगी
पकाऊंगी तुम्हारे लिए मकई की रोटियां
और सन के फूल
चिड़ियों को चुगाऊंगी चावल
और चुपके से निहारूंगी
तुम्हारी आंखों के बैंजनी डोरे
तुम मेरी पीठ पर उतार देना थकान
मैं तुम्हारी बांह से लग सोई रहूंगी
घिर-घिर आएंगे मेघ और भीषण हो उठेगी वर्षा
गहराएगा अंधका सांझ की बेला में
दो जोड़ी अंधमुदी आंखों से
हम देखेंगे वह दुर्लभ क्षण
जब घनघोर वर्षा में
तारापथ से गुजर रही होगी
वह बगुल पंक्ति।
उस गुलमोहर तले
कितना भरा है यह मन
या कि कितना रीतापन है भीतर
इतना कि सोचती हूँ, कि तुम यहां होते
तो तुम्हारे कंधे पर रख लेती सिर
अपने आंसुओं से भिगोती तुम्हारी शर्ट
तुम्हारी बांहों में झूल-झूल जाती
तुम्हारे सीने में छुपा लेती मुंह
तुम्हारे गालों पर टिका देती हथेलियां
तुमसे कहती कि सत्यानाशी का पौधा
फूलों समेत मेरे गले में उग आया है
मेरे सीने पर लहराते हैं सरसों के फूल
मन की जमीन पर अब तक बिखरे पड़े हैं
तुम्हारे जूठे बेर, जो चखे थे तुमने एक रोज
मगर तुम नहीं हो
और मेरे सिर से पांव तक नाचती हैं
कामनाओं की मछलियां
और जेठ दुपहरी-सी धूप से जल उठे हैं पांव
तुम नहीं हो
और मैं एड़ी की खिली दरारों में भरती हूँ
टेसू के दहकते फूल
मसलती हूँ कामनाएं
पुकारती हूँ तुमको कितने आवेग
कितनी चाहना से
इस घने वन में आओ प्रिय
डुबो दो मेरे पांव प्रेम की नदी में
छांव में ले चलो साथी!
ले चलो उस गुलमोहर तले
जिसे तुम अपना कहते हो
जो तुम्हारे मन में खिला रहता है।
मेरा नाम लेकर पुकारते हो तुम
मेरा नाम लेकर पुकारते हो तुम
तो लगता है ऐसे
कि कितनी गिरहें हैं जो अचानक से खुल गई हैं
जैसे मेरे भीतर की अनछुई कुंवारी कंदराओं में
तुम्हारी ही ध्वनि गूंज रही है शंखनाद सी
सुर्ख कलियां चटक कर एकाएक फूल हो गई हैं
वसंत तुम्हारे ही कहने पर लौट आया हो जैसे
पतझड़ के मौसम में जमीन पर झरे पत्ते
हरे होकर वापस अपनी टहनियों से जुड़ गए हैं
पत्थरों में भी खिल आए हैं फूल
नदियां कुछ और निर्मल होकर बहने लगी हैं
जैसे हथेली में अभी-अभी टपका हो
बरगद का पका हुआ फल
और मैं दूब से भरी धरती पर बैठी
अपने भीतर महसूसती हूँ
वही सुवास, वही तीक्ष्णता, वही बनैली गंध
वही गाढ़ा लाल उतर आया है हृदय में
या मेरे भीतर उतर आया है पूरा पलाश-वन
जब तुम मेरा नाम लेकर पुकारते हो
लगाते हो मेरे नाम की टेर
तब गूंज उठता है समूचा जंगल
पत्ता-पत्ता डोल उठता है
और फूलों में उतर जाती है
तुम्हारी आवाज की सिहरन
तब जान पाती हूँ कि
कैसी होती होगी आत्मा की पुकार
इतना रीता हुआ यह जीवन
इतनी सदियों से अभिशप्त
इसीलिए तो, ताकि
एक रोज सुनाई पड़ सके इसमें तुम्हारी अनुगूँज।
वासनाओं की जाग के दिन
वासनाओं की जाग के ये दिन हैं
मन के सूखे कुएं को जल से सिक्त करने के दिन
नंगी टहनियां नई कोंपलों के इंतजार में
डोलती हैं बेसब्र
भटकती हूँ मैं नंगे पांव तुम्हारी ही प्रतीक्षा में
मेरे पांवों पर कितनी रेत चढ़ गई है देखो
कितने चुभे हैं तलुवों में कंटक, फिर भी
धरती की छाती में जब-जब उतरते हैं खुरपे
तो प्यास से भरा कंठ और प्यास से भर उठता है
आंखों में चुभती रेत को
तुम्हारी अंजुरी में भरे जल से धोने के दिन हैं
ये दिन हैं मौसम के गुलाबी होने के
तुम्हारे कान और मेरे गालों का रंग एक हो गया है
उतना ही लाल जितने दाड़िम के फल होते हैं
हवाओं ने बुहार दी हैं सड़कें हमारे लिए
घोल दी है हमारे सीनों में मिठास
अनार के पत्तों की ओट में
चूमते हैं हम एक-दूजे को
और फूलों का रंग हमारे होंठों पर उतर आया है
कितने आवेग से तुम मसलते हो कोमलता
पेड़ से छनकर आती धूप
चुपचाप देखती है यह कौतुक
इतनी डूब से
कि बेखयाली में बिखरता हैं इंद्रधनुष
और सर से पांव तक कितने ही रंग
हमारे चक्कर लगाते हैं।
हमें नहीं लौटना था
प्रेमी बनकर
कई बार लगता है
हमें प्रेमी बनकर कभी नहीं लौटना था
इस जीवन में
यह जीवन जो शापित है
हम जोड़ों में खिले थे कभी
किसी पेड़ पर पुष्पगुच्छ बनकर
हम हंसों के जोड़े रहे थे उससे भी पिछले जन्म
कुमुदिनी बनकर खिले थे किसी सरोवर में
उससे भी पहले के किसी और जन्म में
हम मेघों से भरे बादल के टुकड़े थे
जो एक होकर बरसे थे
किसी बंजर भूमि पर धारासार
हम पंडुक के वह जोड़े थे
जो साथ-साथ चुगते थे अन्न
शीशम के वो घनेरे वृक्ष रहे थे
जो दूसरे के कितने करीब खड़े
हवाओं संग झूमा करते थे
हम पिछले कई जन्मों से एक-दूसरे के साथी थे
मगर इस जीवन में हमें प्रेमी बनकर नहीं लौटना था
मेरे प्यार!
यह जीवन तो इतना शापित
कि शब्दों मैं जिसका कोई बयान संभव नहीं!
इतना शापित
कि प्रेम का नाम लेते ही बार-बार जाग जाते हैं
पीड़ाओं के प्रेत
इस संबंध को अनकहा ही रहना था साथी
अनगढ़ा ही भटकना था हवाओं के संग
अपने अस्तित्व की खोज में
वही जो कभी पूरी नहीं होती
हम हर बार लौटे थे प्रेम करने को इसी धरा पर
पर इस बार इस तरह नहीं लौटना था मेरे प्यार!
संपर्क :द्वारा दीप्ति सिंह, गांव–पोस्ट – बेयुर, जिला – बदाऊं–२४३६३४ (उत्तर प्रदेश) मो.८२७९७१५३२८
अति मनभावन हृदयस्पर्शी
हर एक हरफें मनको छुकर जाति है । बहुत खुवसुरत !