वरिष्ठ कथाकार। कहानी संग्रह ‘तुमको नहीं भूल पाएंगे‘।
तालाब के निथरे जल में रात्रि के अंतिम पहर का नीम अंधेरा धीरे-धीरे घुल रहा था। भोर का उजास साइबेरियन पक्षी की तरह पंख फैलाकर पेड़ों की फुनगियों पर उतर रहा था। नीड़ों में पखेरू कलरव करने लगे थे। कोयल की कूक वातावरण में मिठास घोल रही थी। मुर्गे की बांग सुनकर अरिगझावन अपनी झोपड़ी से बाहर निकला। मार्च की हवा में अभी थोड़ी कनकनी बची थी। पूर्व दिशा की ओर अपनी हथेलियों को जोड़ कर अरिगझावन ने अस्फुट स्वर में बुदबुदाते हुए प्रार्थना की ‘जय हो मुरुगन महाराज! मंजुला पर दया करो प्रभु।’
तमिलनाडु में एक छोटा-सा गांव है कुंभकोणम। ताड़, नारियल, कदली वन और बबूल की कंटीली झाड़ियों से घिरा गांव। फूस और मिट्टी से बने घरौंदे। दो चार पक्के मकान। छोटे-बड़े तालाब। हरीतिमावेष्ठित पहाड़ियों की लंबी शृंखलाएं। यही है यहां का प्राकृतिक परिवेश।
ऐसे ही एक घरौंदे में अपने परिवार के साथ रहता है अरिगझावन। पेशा दिहाड़ी मजदूरी। चौंसठ- पैंसठ वर्ष की लंबी छरहरी काया। कसी हुई देहयष्टि। उभरा हुआ सीना और अंदर धंसा हुआ पेट। तांबई रंग। लंबोतरे चेहरे पर पकी हुई घनी मूंछें। खुले बदन पर एक तौलिया और कमर में लिपटी लुंगी। यही ढांचा और परिधान है उसका।
उसके घरौंदे में एक ओर एक पुरानी साइकिल खड़ी है। दूसरी ओर खूंटे से एक बकरी बंधी है। एक मेमना अपनी मां के थन में थूथन लगा कर दूध पीने में मगन है। बाकी दो मेमने बगल में उछल-कूद कर रहे हैं।
अरिगझावन ने करवटें बदलते हुए रात काट दी है। इस उम्र में नींदभी कहां आतीहै। जब बगल में लेटी पत्नी दर्द से बिलबिला रही हो तो उसे नींद कैसे आती भला। वह पल भर के लिए झपकियां लेता, लेकिन पत्नी की कराह सुनकर उसकी नींद तुरंत उचट जाती। उसकी बेटी इरा फर्श पर ताड़ की चटाई बिछाकर लेटी थी।
अरिगझावन ने मंजुला को नींद की दो-दो गोलियां खिलाई थीं, मगर बेकार। उसके बेशुमार दर्द के सामने नींद की दवाइयां बेअसर साबित हुई थीं। अरिगझावन बार- बार घड़ी की ओर देखता।घड़ी की सूइयां भी शायद टिक-टिक करना भूल गई थीं।
अरिगझावन को ऐसा लगता था जैसे मंजुला की जिंदगी रेत की तरह उसकी मुट्ठी से धीरे धीरे फिसलती जा रही है। उसकी कराह उसके कलेजे को नस्तर की तरह छलनी कर रही थी।
अरिगझावन का बेटा परमसिवम और बहू चारुशिला अपने कमरे में निश्चिंत सो रहे थे। उन्हें इस स्थिति को झेलने की आदत पड़ गई थी। उनके कमरे से खर्राटे की आवाज साफ सुनाई दे रही थी।
अरिगझावन सोच रहा था, जिस मां की वेदना से उसकी संतान को अभी सहानुभूति नहीं है, वही उसके मरने पर चीख-चीखकर रोएंगे।उसके शव पर फूल-माला चढ़ाएँगे।इत्र-फुलेल लगाएँगे।छप्पन प्रकार के व्यंजन पंडित-पुरोहितों के सामने परोसा जाएगा।यह विडंबना नहीं तो और क्या है!
अरिगझावन सोचता यदि मंजुला को कुछ हो गया तो उसके बेटे-बहू के जीवन में क्या फर्क पड़ेगा? उनका अपना सुखमय वैवाहिक जीवन तो है ही! पर उसकी जिंदगी तो वीरान हो जाएगी। कौन उसके सुख-दुख की परवाह करेगा? वह किससे अपने मन की बातें करेगा? एक विधुर के लिए एकाकी जीवन व्यतीत करना दुष्कर हो जाएगा। वह तो सामाजिक जीवन से धीरे–धीरे कट ही जाएगा। वह किसी के घर–आंगन में नहीं जा सकेगा। किसी के यहां जाने पर लोग तरह–तरह के सवाल करेंगे। पत्नी एक ऐसी डोर है, जो पुरुषों को सामाजिक जीवन से बांधे रखती है। वह किसी भी कीमत पर मंजुला को मरने नहीं देगा। लेकिन कैसे? यह सवाल सांप की तरह फन काढ़े उसके सामने खड़ा था।
डाक्टरों ने मंजुला को मार्च में ही कीमोथेरेपी का डेट दिया था। मगर कोरोना ने सबकुछ गड़बड़ कर दिया। देश में इक्कीस दिनों का लॉकडाउन था। लोगों को घरों से बाहर निकलने की मनाही थी। कोई बिलावजह बाहर न निकले इसके लिए हर गली-चौराहे पर पुलिस टीम पेट्रोलिंग कर रही थी। केवल जरूरी कामों के लिए लोगों को घर से बाहर निकलने की इजाजत थी।
लॉकडाउन में तमिलनाडु और पुद्दूचेरी के बीच यातायात सेवाएं ठप्प थीं। उसके पास कैब के लिए पैसे भी नहीं थे। अंततः उसके मन में एक सनकी ख्याल आया। वह रोज खबरों में सुन रहा था कि लोग परिवार सहित पैदल, साइकिल या ठेले पर हजारों किलोमीटर की दूरी तय करके अपने ठिकाने पर लौट रहे हैं। उसके पास भी एक पुरानी साइकिल तो है। उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान तैर गई। उसने मंजुला को साइकिल पर लादकर पुद्दुचेरी के अस्पताल में ले जाने की ठान ली। लेकिन यह दूरी कम नहीं थी। एक सौ तीस किलोमीटर की दूरी। फिर भी उसने सोच लिया तो सोच लिया। सच तो यह था कि कीमोथेरेपी से मंजुला की पीड़ा तो क्या कम होती थी, हां! कीमोथेरेपी के उपरांत अरिगझावन के ज़हन में उम्मीद की किरणें झिलमिलाने लगतीं।
मंजुला बताती, ‘सच पूछो, कीमोथेरेपी के समय ऐसा लगता है मानो मेरी नसों में बारूदी सुरंग का विस्फोट हो रहा है। आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। ऐसा लगता है कि ये लोग यमदूत की तरह मेरी जान लेने पर तुले हैं।’
स्थानीय डॉक्टरों ने उसे बता दिया था, ‘अरिगझावन! मंजुला का लंग्स कैंसर चौथी स्टेज में पहुंच चुका है। अब ज़िंदगी और मौत तो ऊपरवाले के हाथों में है। उन्हीं पर भरोसा रखो। यह जितने दिनों तक जी ले, वही काफी है। हां, जब दर्द काफी बढ़ जाए तो इसे नींद की एक गोली दे दिया करना।
अरिगझावन डॉक्टरों की सलाह को कहां मानने वाला था। पत्नी के इलाज में वह कोई कोताही नहीं करना चाहता था। इलाज से क्या और कितना लाभ हो रहा था, यह तो उसे ज्ञात नहीं था। इलाज का साइड इफेक्ट मंजुला की सेहत और चेहरे पर साफ-साफ दिखाई दे रहा है। मंजुला की काया सूखकर कांटा हो गई थी। उसके चेहरे पर झुर्रियां कुछ और छा गई थीं। उसके सांवले शरीर पर कीमोथेरेपी की वजह से कुछ ज्यादा ही झाइयां उभर गई हैं। उसके सिर, भौंह, पलकों के ही नहीं, बल्कि पूरे शरीर के बाल झड़ चुके हैं।
डॉक्टरों ने उसे तसल्ली दी थी, ‘अरिगझावन! जब रोग की रिकवरी होगी तो इसके केस फिर से उग आएंगे।’
वह मंजुला के मुरझाए चेहरे को एकटक निहारता रहता। उसके सलोने चेहरे पर जहां कभी चंदन की बिंदी लगी होती थी, बालों में गजरा सजा होता था, उसका ऐसा हश्र देखकर उसका कलेजा मुंह को आ जाता, लेकिन वह प्रकट रूप से अपने मन के भाव को मन में ही दबाए रखता।
पति की निगाहों को देखकर मंजुला सस्मित मुस्कान के साथ पूछती, ‘इस तरह मुझे क्यों देख रहे हो स्वामी? क्या इससे पहले मुझे कभी देखा नहीं है?’
अरिगझावन अपनी नजर फेर कर अपने आंसुओं को पोंछ लेता। अरिगझावन मंजुला से उसके मर्ज की स्थिति को छिपाने की कोशिश करता, ‘प्रिय! तुम चिंता नहीं करना। डॉक्टर ने कहा है कि इस बीमारी के इलाज में थोड़ा समय लगेगा, लेकिन घबराने जैसी कोई बात नहीं है। हां, उनके क्लीनिक में साधन का अभाव है। इसलिए यहां इसका इलाज संभव नहीं है। अब हमलोगों को इलाज के लिए पुद्दूचेरी के जवाहरलाल इंस्टिट्यूट ऑफ पोस्टग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च सेंटर जाना पड़ेगा।’
मंजुला उसकी कांपती हुई आवाज और हाव-भाव को देखकर जान गई थी कि अरिगझावन झूठ बोल रहा है। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन उसने दुनिया देखी थी। उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंच कर उसे कम से कम अपने पति के चेहरे को पढ़ने का काफी अनुभव हो गया था।
मंजुला ने कहा था, ‘स्वामी, तुम्हें तो ठीक से झूठ बोलना भी नहीं आता है। तुम्हारे मुरझाए चेहरे पर तुम्हारे मन की बातें साफ-साफ लिखी हुई हैं। तुम मेरी चिंता छोड़कर अब इरा की शादी के बारे में सोचो। मैंने बेटे का ब्याह तो देख लिया। अब बेटी का ब्याह देख लूं तो चैन से मर सकूंगी। मैं सोचती हूं कि तुम कैसे घर-संसार संभालोगे? मेहनत-मजूरी के अलावा तुम्हें तो दुनियादारी आती भी नहीं है। विदा लेने से पहले मैं तुम्हें सारी बातें समझा दूंगी। और हां! एक और बात कि मेरी मौत पर तुम रोना मत, वरना बच्चे धीरज खो देंगे। तुमने जैसे मुझे दुल्हन बनाकर इस घर में लाया था, उसी प्रकार मुझे विदा करना। भगवान मुरुगन पर भरोसा रखना। वे जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे।’
अरिगझावन ने मंजुला की पतली टहनियों जैसी अंगुलियों को अपनी हथेली में भींच रखा था। अपने सूखे होंठों पर क्षीण मुस्कान बिखेरती हुई मंजुला ने कहा, ‘इस तरह कब तक मुझे बांध कर रखोगे स्वामी? मान लो कि हमारा तुम्हारा इतने ही दिनों का संग-साथ था।’
मंजुला ने उससे नहीं रोने की जरूर विनती की थी लेकिन खुद उसकी आंखों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी।
अरिगझावन एक जुझारू योद्धा की तरह एक साथ कई मोर्चे पर जंग लड़ रहा था। पहला मोर्चा तो उसकी गरीबी थी। पैसा पानी की तरह बह रहा था। जो थोड़ी-सी जमीन-जायदाद थी, वह भी गिरवी रखी जा चुकी थी। बाप बेटे की मेहनत- मजूरी से घर का खर्चा बमुश्किल निकल पाता था।
दूसरे मोर्चे पर उसे अपने लोगों से ही लड़ना पड़ रहा था। उसके लिए यह तय करना कठिन था कि परमसिवम को अपनी मां से ज्यादा प्यार है या अपनी बची-खुची जायदाद से। परमसिवम उसे समझाने की कोशिश करता, ‘अप्पा! यहां के डॉक्टरों ने जब जवाब दे दिया है, तो फिर अम्मा के इलाज में पैसा खर्च करना कहां की बुद्धिमानी है।’
बहू भी दबे-दबे स्वर में कहती, ‘अप्पा! इतना कष्ट सहने से तो मर जाना अच्छा है। ‘ठलाईकूठल’ कोई भी शौक से नहीं करता है। जब बीमारी लाइलाज हो जाए, तो इसके अलावा उपाय ही क्या बचता है? पीड़ा से निजात पाने का इससे बेहतर तरीका और क्या है? मैं तो यही सोचती हूं कि अम्मा खुद ही ऐसा करने के लिए क्यों नहीं कहती हैं? आखिर कब तक वे इस लाइलाज रोग से लड़ती रहेंगी?’
अरिगझावन को बेटे-बहू का सुझाव रास नहीं आया था। उसने उन्हें समझाया था, ‘बेटा ठलाईकूठल प्रथा एक तो अमानवीय है, दूसरे गैरकानूनी भी। इस परंपरा पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। मेरी मानो, तुम लोग अम्मा की परवाह करना छोड़ दो। मेरे शरीर में जब तक जान है, मैं उसे मरने के लिए नहीं छोड़ सकता हूं। अरे, कभी उस मां के बारे में सोचो, जिसने तुम्हें नौ महीने गर्भ में अपने खून से सींचा है। आज वह जब इस हाल में पहुंच चुकी है, तो तुम लोग उसे जबरन मारने की सोच रहे हो? खबरदार, तुम लोगों ने ऐसी हिमाकत की तो मैं पुलिस को इतल्ला करके सबको जेल भिजवा दूंगा।‘
नाते-रिश्तेदार और पास-पड़ोसी मंजुला के बारे में ऐसी-ऐसी बातें करते, जिसे सुनकर अरिगझावन को लगता, मानो कोई उसके कानों में गरम शीशा पिघलाकर डाल रहा हो।
वे मंजुला के ऐन सामने कहते, ‘हे भगवान! अब इसे पीड़ा से मुक्ति दे दो। इन्हें जल्दी से उठा लो प्रभु।’
वे उसके बच्चों को भी सांत्वना देते हुए कहते, ‘जब तलक इसकी सांसें चल रही हैं, खूब सेवा-जतन कर लो, लेकिन अभी से कलेजे को कड़ा करना सीख लो बेटा!’
मंजुला बिस्तर पर पड़ी-पड़ी लोगों की बातें सुनती। लोगों की ऐसी बातें सुनकर उसकी आंखों से आंसू बहने लगते। अरिगझावन को ऐसी बातें सुनकर लोगों पर बहुत गुस्सा आता, मगर वह किसी से कुछ बोल नहीं पाता था।
अरिगझावन को अपने बेटे बहू पर शक होने लगा था। उसे ऐसा लगता है कि उसकी गैरमौजूदगी में वे लोग मंजुला को मौत के घाट उतार देंगे। उसने अपनी आंखों से बालाकृष्णन मामा को ठलाईकूठल प्रथा के तहत तड़प कर मरते हुए देखा है।
अरिगझावन को दिन में ही बुरे-बुरे सपने आने लगे थे। मंजुला की मौत का मंजर उसकी आंखों के सामने कौंध जाता। वह देखता कि मंजुला की जब तक मौत नहीं हो जाती है, तब तक ये लोग उसे मिट्टी और पानी का घोल पिला रहे हैं। मंजुला के पेट में मरोड़ हो रही है। वह दर्द से बिलबिला रही है। कभी उसे लगता कि मंजुला को गर्म तेल से नहलाया जा रहा है। वह जलन से तड़प रही है। लोग उसे दर्जनों ग्लास नारियल पानी पिला रहे हैं। इससे उसका गुर्दा खराब हो गया है। वह तड़पती हुई दम तोड़ रही है। कभी वह देखता कि बालाकृष्णन मामा की तरह मंजुला को ठंडे पानी से नहलाकर गर्म दूध पिलाया जा रहा है, जिससे उसे हार्ट अटैक आ गया है। इस कुकृत्य को देखने के लिए वहां गांव भर के लोग भी मौजूद हैं। वे सभी इसे किसी उत्सव की तरह मना रहे हैं।
अरिगझावन ने अपने जीवन में बुज़ुर्गों को मारने के लिए और भी कितने नृशंस तरीके देखे हैं। वह सोचता कि कीटनाशकों का प्रयोग तो सबसे आसान तरीका है। यदि खाने-पीने के सामान में उसे कीटनाशक दवा मिलाकर दे दी जाएगी तो वह क्या कर लेगा? वह ऐसी-ऐसी कल्पनाएँ करपागलपन की हद तक पहुंच कर चिल्लाने लगता था।
अरिगझावन मंजुला के प्रति इतना निर्दयी कैसे हो सकता था। जिसके साथ उसने अग्नि की साक्षी में सात फेरे लिए हैं, जिसने उसकी जिंदगी को संवारने में अपनी उम्र बिता दी, जिसने अपने हाथों से उसके घर-संसार को सजाया, उसे बचाने के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार था।
अरिगझावन चाहता था कि मंजुला अपनी जिंदगी के हर लम्हे को भरपूर जिए। मौत को तो एक दिन आना ही है। लेकिन मौत से पहले जो जिंदगी है, उसे जीने का और भरपूर जीने का सबको हक है। मौत से पहले मरना क्यों ?
अरिगझावन साइकिल से एक सौ तीस किलोमीटर का रास्ता तय करने के लिए सुबह पांच बजे ही निकल पड़ा है। वह मंजुला के किसी भी तर्क को मानने के लिए तैयार नहीं है। मंजुला कहती है, ‘स्वामी मेरे कारण क्यों अपनी और पूरे परिवार की जान खतरे में डाल रहे हो ? तुम्हें कुछ हो गया तो परिवार को कौन संभालेगा?’
अरिगझावन परिस्थिति की गंभीरता को खूब समझ रहा था। लेकिन इसके अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था। वह सोच रहा था सरकार ने भी इस कोरोना से बचने के लिए कोई ठोस तैयारी नहीं की है। हाँ, बस कोरोना के संदर्भ में बड़ी-बड़ी डींगे हांकते रहे हैं। अधिकतर मौतें ऑक्सीजन की कमी से ही हो रही हैं। ख़ामियाज़ा आम जनता को उठाना पड़ रहा है। हज़ारों मौतों के लिए कोरोना महामारी ही नहीं, बल्कि लचर सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था भी ज़िम्मेदार है। अधिकांश ज़िंदगियां बचाई जा सकती थीं, किंतु नहीं बचाई जा सकीं। सरकार ने इस महामारी में आम जनता के लिए कोई बेहतर इंतज़ाम नहीं किया। उसने कोरोना महामारी में लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया। ग़रीब आदमी कोरोना महामारी या लॉकडाउन में काम बंद होने के चलते भूख से मरने को मजबूर हैं। कितने लोग घर वापसी के समय रास्ते में ही मर-खप गए। रेल की पटरी के किनारे किनारे चलते हुए लोग पटरी पर ही सो गए और रेलगाड़ी गहरी नींद में निढाल लोगों को रौंदती हुई गुजर गई। कटी हुई लाशों के पास रोटियां बिखरी पड़ी रह गईं।
परमसिवम भी पिता के फैसले से कतई सहमत नहीं था। उसने पिता को समझाया था, ‘अप्पा, इस महामारी ने विकराल रूप धारण कर लिया है। हास्पिटलों में बेड खाली नहीं है। लाशों को जलाने के लिए श्मशानों में लाइन लगी हुई है। इस हाल में घर से बाहर निकलना उचित नहीं है। यह घड़ी अपनी रक्षा के उपायों की है।’
अरिगझावन ने किसी की एक नहीं सुनी। उसके माथे पर भूत सवार था। वह मंजुला को साइकिल के कैरियर पर बैठा कर इलाज के लिए निकल पड़ा। उसने मंजुला को एक तौलिए से अपने साथ बांध रखा था, ताकि तेज चलने से वह गिर नहीं जाए। रास्ते में पुलिस उसे रोकती थी। वह पुलिस को इलाज से जुड़े दस्तावेज दिखाता और आगे बढ़ जाता।
सड़कें सूनी थीं। केवल माल से लदी हुई एक दो ट्रकें तेज़ रफ़्तार में गुजर रही थीं। सड़क के किनारे खड़े छतनार पेड़-रूख, गांव-घर, ढोर-डांगर, नदी-पोखर और हरियाली की चुनर ओढ़े हुए पहाड़ियों को पार करता हुआ अरिगझावन बढ़ता जा रहा था। उसके मानस में अतीत की यादें बिजली की मानिंद कौंध रही थीं।
तकरीबन तैंतालीस वर्ष पहले मंजुला नई नवेली दुल्हन बन कर उसके जीवन में आई थी। उन दिनों सतरह साल की सुंदरी का यौवन परवान चढ़ रहा था। उसकी चाल में झरने की रवानगी थी, हँसी में फूलों की मादकता थी और दुबली- पतली देह में बिजली की फुर्ती। उसके हाथों में ऐसी सिफत कि चंद दिनों में ही उसने घर को मंदिर जैसा पावन बना दिया। सुबह-सुबह घर के बाहर फर्श पर पानी उड़ेल कर जब वह चावल के चूर्ण से रंगोली बनाती तो धरती पर रंग-बिरंगे बेल बूटे जगमगाने लगते। फसलों की कटाई के बाद चार दिनों तक चलने वाले पोंगल पर्व -भोगी पोंगल,सूर्य पोंगल,मट्टू पोंगल और कन्या पोंगल वह बड़े धूमधाम से मनाती। गीत-नृत्य या व्यंजन बनाने में वह किसी से पीछे नहीं रहती। महिलाओं के साथ लकड़ी की गेंद से अम्मानाई खेलते हुए गीत गाने में उसकी शानी नहीं थी।
आज भी घर के सामने उसके हाथों से रोपा हुआ बोगनबेलिया लहलहा रहा है। अब तो उसकी लतरें काफ़ी घनी और मोटी हो गई हैं। अक्तूबर से लेकर ठंड के मौसम तक बोगनबेलिया के लाल-लाल फूलों से पूरा छप्पर लाल हो उठता है।
रास्ते में चलते हुए उनके बीच विशेष संवाद नहीं हो पाया। बीच-बीच में अरिगझावन मंजुला की तबीयत के बारे में पूछ लेता। सूरज देवता सिर पर चमकने लगे थे। वह अपने चेहरे पर चुहचुहाते पसीने को पोंछते हुए आगे बढ़ता जा रहा था। उसके पैरों की पिंडलियां ऐंठ गई थीं। होंठ प्यास से सूख रहे थे। अतीत की खट्टी- मीठी यादें शीतल बयार के झोंके की तरह उसकी थकान को हर लेती थी।
अरिगझावन थकान के बावजूद एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं करना चाहता था। वह हर हाल में जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंच जाना चाहता था। उसने रास्ते में तीन जगह पानी पीने के लिए साइकिल रोकी और मंजुला के इसरार करने पर केवल दो घंटे विश्राम किया।
विश्राम के क्षणों में मंजुला अरिगझावन को घर की एक-एक चीजों के बारे में बताती। जमीन-जायदाद के कागजात, बेटी के ब्याह के लिए खरीदे गए कुछ बरतन-बासन, गहने-गुड़िया उसने कहां रखे हैं। वह जितना बोल पा रही थी, उससे ज्यादा उसकी आंखें मुखर थीं। वह मौन दृष्टि से अरिगझावन को एकटक निहारती। अपने पति के प्यार और समर्पण को देखकर उसकी आंखें बरस रही थीं। उसकी आंखों में कितनी अनकही बातें छिपी हुई थीं। शायद वह कहना चाहती थी, ‘इस विदाई की बेला में क्यों इतना मोह दिखा रहे हो?’
अरिगझावन ने सुबह पांच बजे यात्रा शुरू की थी। वह उसी रात साढ़े दस बजे एक सौ तीस किलोमीटर की दूरी तय करके अस्पताल पहुंच गया। वहां पहुंच कर उसे अपने मंसूबे पर पानी फिरता हुआ देखकर बड़ी निराशा हुई। उसने उसी दिन मंजुला को एडमिट कराने की बात सोची थी, लेकिन वह जब अस्पताल पहुंचा तो ओडीपी और रीज़नल कैंसर सेंटर दोनों बंद हो चुके थे। मेन गेट पर झूलता हुआ ताला और चारों ओर पसरे हुए सन्नाटे को देखकर उसका हौसला पस्त हो गया।
पिछली बार जब वह यहां आया था तो अस्पताल परिसर में कितनी चहल-पहल थी। कभी यहां मरीजों, मरीजों के तीमारदारों, नर्सों और डॉक्टरों की रेल-पेल हुआ करती थी। इस बार परिसर में मसान की तरह सन्नाटा पसरा हुआ था। वह सोच रहा था, दुनिया में न तो रोगियों की तादाद कम हुई है, न ही रोग की, लेकिन इस कोरोना ने जन-जीवन को एकदम ठप्प कर दिया है। इस बंदी के माहौल में भला कौन अपनी जान हथेली पर लेकर घर से निकलने का दुस्साहस करेगा।
उसने अस्पताल के आस-पास घरों में टिमटिमाती रोशनी देखी। उसके मन में आशा की एक क्षीण किरण उदित हुई। उसने कई दरवाजों पर दस्तक दी, कई बंगले के कॉल बेल बजाए। अंततः उसे सफलता मिल ही गई। उसने किसी प्रकार गेटमैन को ढूंढ ही निकाला।
अरिगझावन की इस साहसिक यात्रा की कथा सुनकर गेटमैन का कलेजा पसीज उठा। उसने तत्काल अस्पताल के अधिकारियों को इस बात की सूचना दी। डॉक्टरों ने जब उनकी कहानी सुनी तो उनके भी आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने मंजुला को न केवल एडमिट किया, बल्कि उसका बकायदा इलाज भी शुरू कर दिया।
मंजुला को स्ट्रेचर पर जब कीमोथेरेपी के लिए ले जाया जा रहा था तो वह निरीह नजरों से उसे निहार रहा था। अस्पताल कर्मी उसे अजीब-सी निगाहों से हेर रहे थे। पहले वह एक आम आदमी हुआ करता था, लेकिन इस कारनामे के बाद आज वह बहुत खास हो चुका था। सबके होठों पर उसके साहस और अपनी पत्नी के प्रति डेडिकेशन की चर्चा हो रही थी। अरिगझावन ही नहीं, बल्कि सबको मंजुला के भवितव्य का पता था। बावजूद इसके अरिगझावन के दिल में मौत से पंजा लड़ाने का जो शौर्य था, मंजुला को बचा लेने के लिए वह जो जद्दोजहद कर रहा था, उसकी जिद की सभी लोग सराहना कर रहे थे।
अस्पताल से डिस्चार्ज होते समय अरिगझावन ने कौतूहलवश डॉक्टर से पूछा, ‘डॉक्टर साहब! इस इलाज के बाद यह दो-चार साल जी लेगी ना?’
डॉक्टर ने अरिगझावन को एंबुलेंस के लिए और रास्ते के खर्चे के लिए रुपये देते हुए कहा, ‘अरिगझावन! तुम्हारी सेवा और अपने भाग्य से यह जितने दिनों तक जी ले यही काफी है।’
डॉक्टर के मुंह से सच्चाई सुनकर अरिगझावन का दिल टूट गया। उसे समझाते हुए डॉक्टरों ने अरिगझावन को एक महीने की दवा भी दी। उसने अपनी आंखें पोंछते हुए कहा, ‘डॉक्टर साहब! मैं गरीब आदमी भला आप लोगों के इस अहसान को कैसे चुका पाऊंगा?’
डॉक्टरों ने कहा, ‘अरिगझावन इस उम्र में तुमने अपनी पत्नी के लिए जो काम किया है,वह कोई बड़ा योद्धा ही कर सकता है। हमलोग तुम्हारे जज्बे को सैल्यूट करते हैं। और हां, यदि तुम्हें भविष्य में यहां आना हो तो ऐसी हिमाकत नहीं करना। तुम हमें एक कॉल कर देना। अस्पताल से एंबुलेंस तुम्हें लेने के लिए पहुंच जाएगा।
एंबुलेंस पर अपने गांव वापस आते समय अरिगझावन को ऐसा लग रहा था मानो वह एक जंग जीतकर लौटा है। लेकिन गांव पहुंच कर उसने देखा कि यहां का मंज़र ही कुछ और है। उसे रोकने के लिए गांव वाले हाथों में लाठी, भाला, बल्लम लेकर गांव के सीमाने पर खड़े थे। उसे आश्चर्य तो तब हुआ जब उसने देखा कि परमसिवम और चारुशिला उनकी अगुवाई कर रहे हैं। केवल इरा जार-जार रो रही थी। गांव के लोगों ने एक स्वर से कहा, ‘अरिगझावन! तुम बहुत दूर से यात्रा करके आए हो, इसलिए तुम्हें भी दूसरे मजदूरों की तरह गांव के बाहर पंचायत भवन में तेरह दिनों तक कोरोनटाइन होना पड़ेगा।’
अरिगझावन के पास कोई चारा नहीं बचा था। झक मारकर उसे पंचायत भवन में शरण लेनी पड़ी। इरा ने उनके लिए घर से भोजन-पानी भिजवाना शुरू किया।
पंचायत भवन के कमरे में लेटी मंजुला का चेहरा कंदील की पीली रोशनी में दिप-दिप कर रही थी। रात में मंजुला थोड़ी देर तक बेचैन रही, लेकिन अगली सुबह अरिगझावन ने देखा मंजुला अपनी पलकें बंद किए नींद में निढाल पड़ी है। उसने मंजुला की नाक के पास हाथ ले जाकर परखा। उसकी सांसें चल रही थीं। उसने आश्वस्त होकर बाहर मैदान में देखा। घास की नोंक पर ओस की बूंदें मोती के दानों की तरह झिलमिला रही थीं। उसने किसी अज्ञात देवता के सामने कुछ बुदबुदाते हुए अपने हाथ जोड़ लिए।
संपर्क : सालडांगा, बरदही रोड, पोस्ट रानीगंज, जिला पश्चिम बर्दवान, (पश्चिम बंगाल) 713347 मो. 9434390419
दर्द भरी मर्मस्पर्शी योद्धा कर्मवीर अपनी पत्नी मंजुला की लाईलाज बीमारी की देखरेख और इलाज के लिए विश्वव्यापी महामारी कोरोना से जूझते हुए।जीवन के हर खुशियों को दांव पर लगाकर पत्नी सेवा में समर्पित हो। घर परिवार संतवाना देते हुए। एक योद्धा बन,मनोरम प्रकृति की
दृश्य को दर्शाते हैं।
वास्तव में लेखक रवि शंकर सिंह जी
एक कुशल साहित्यकार व सामाजिक बंधन में बंध कर उसकी र्निवाह भी करते हैं। अपनी कृतज्ञता से प्रेरित होकर जीवन को अपनी काबिलियत पर विश्वास करने में सफल हासिल हैं।
। इसके लिए मैं सच्चिदानंद किरण साहित्य साधना से प्रेरित होकर ज्योतिर्मय में साधुवाद व शुभकामनाएं ं
अपनी जीवन संगिनी के लिए कोरोना जैसी महामारी जनित विपरीत परिस्थिति से सीमा परे जाकर लड़ना, अरिगझावन के प्रेम का साक्षी है
श्री रवि शंकर जी को इतनी मर्मस्पर्शी कहानी के लिये साधुवाद👏👏👏👏