काव्य संग्रह – ‘भाषा के सरनेम नहीं होते’। संप्रति अध्यापन।

1.

जब युद्ध की घोषणा हुई
तब  हँसते हुए बच्चे
फूल वाले पौधों को पानी दे रहे थे

उनकी हँसी के भार से डरी कई बंदूकें
पौधों के पीठ के पीछे जा छुपीं
उनमें फूल के बीज होने की जिद होने लगी
जिद थी  कि देह पर फूटे मीठी गंध
जिद थी कि बस फूल खिले माथे पर

दुनिया की समस्त बंदूकें
फूल बन जाएं
इस उम्मीद की मौत नहीं होनी चाहिए
क्योंकि अभी सींचने हैं  बच्चों को
धरती के सारे फूल।

3.
सीमा पर
युद्ध चल रहा था
और टी वी पर
सत्ताईस सैनिकों के मरने की
उन्नीस के लापता होने की
खबर आई

उसी समय सातों महाद्वीपों पर
ढेर बच्चे
बस्तों में हजारों प्रार्थनाएँ भर
स्कूल बस के इंतजार में खड़े थे
ताकि वे भविष्य में
विश्व के सभ्य और शांत नागरिक बन सकें।

2.
बरसों पहले
प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध
की तारीखों को रटते-रटते
उस बच्चे ने इतिहास की कॉपी में
इन प्रश्नों के आस-पास

युद्ध से कभी न लौटकर आने वाले अपने पिता के
असंख्य चित्र बनाए थे

उस दिन से आज तक ये तारीखें
चुपचाप गीली आँखें लिए
संसार के प्रत्येक बच्चे से क्षमा माँग रही हैं।

4.
आज ही युद्ध खत्म हुआ था
और अब बारूद के कारखानों की अंतिम इच्छा थी कि
वे खेल के मैदान बन जाएँ
उनकी छाती पर दौड़ें असंख्य मुस्कराते बच्चे

छुपम-छुपाई, पकड़म-पकड़ाई की हँसी
उनके जले हुए काले फेफड़ों को साँस दे

बच्चों की हँसी बोधिवृक्ष है
उसी की जड़ों में मिट्टी होकर
बारूद के कारखानों की
अब बुद्ध होने की तीव्र इच्छा है

युद्ध के समर्थकों सुनो!
हमें ऐसी महान इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए।