वरिष्ठ लेखक और विचारक। छत्तीसगढ़ के पूर्व एडवोकेट जनरल। समाचार पत्रों से संबद्ध रहे। ‘फिर से हिन्द स्वराज’, ‘बस्तर–लाल क्रांति बनाम ग्रीन हंट’, ‘गांधी और पंचायती राज’, ‘लोहिया’ समेत विचारपरक कई पुस्तकें प्रकाशित।
2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 10,42,81, 034 है, जो देश की जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। जनजातीय समुदाय अत्यंत विविध और विजातीय हैं। सभी प्रयासों के बावजूद यही सच है कि आदिवासियों के जीवन स्तर का मानव विकास सूचकांक बाकी जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है। साक्षरता दर में भी विशेष प्रगति नहीं है। गरीबी रेखा के नीचे अन्य समुदायों के बनिस्बत आदिवासी परिवार ज़्यादा हैं। आरक्षण के बावजूद सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिशत उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है। सामान्यतः जनजातियां अपने मौलिक, विधिक एवं संवैधानिक अधिकारों से अवगत नहीं हो पातीं।
वन क्षेत्रों में सदियों से रह रहे लगभग सभी लोग आदिवासी समझे जाते रहे हैं। शिक्षा, ट्रेनिंग, सभ्यता से साहचर्य रहित तथा औपचारिक संचार संसाधनों वगैरह की कमी के बावजूद वे वनों के एडवेंचर पर ही निर्भर रहे हैं। आदिवासियों ने सदियों में खेती करने की अपनी दुर्लभ पद्धति का आविष्कार भी कर लिया। प्रकृति के आकस्मिक प्रकोप मसलन भूकंप, ज्वालामुखी, भूस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि वगैरह भी उन्हें विचलित नहीं कर पाए। उनमें न प्रकृति को जीतने की साम्राज्यवादी अहंकार कभी आया और न उन्होंने अपने जीवन को किसी पापजनित गतिविधि का प्रतिफल समझा। अंग्रेजों से आदिवासियों के विद्रोह और छिटपुट प्रतिरोध के सैकड़ों उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। आदिवासियों ने बर्तानवी अत्याचार का खुलकर मैदानी मुकाबला किया।
संविधान सभा की कार्यवाही 9 दिसम्बर 1946 को शुरू हुई थी अपने पहले भाषण में ही धाकड़ आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा ने 11 दिसंबर को शिकायत करते हुए कहा था कि हम केवल पांच आदिवासी सदस्य ही इस सदन में हैं। हमारी संख्या लाखों और करोड़ों में हैं और हम ही भारत के असली मालिक हैं। जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसंबर 1946 को लक्ष्य (उद्देशिका) संबंधी प्रस्ताव संविधान सभा में रखा था। उसपर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 19 दिसंबर को जयपाल सिंह ने कहा कि मैं उन लाखों अज्ञात लोगों की ओर से बोलने यहां खड़ा हुआ हूँ, जो आजादी के सबसे महत्वपूर्ण, लेकिन अनजान लड़ाके हैं और भारत के मूल निवासी हैं। एक ‘जंगली‘ और एक आदिवासी होने के नाते इस संकल्प में गुंथी गई जटिलताओं में हमारी खास दिलचस्पी नहीं है। हममें से हर एक ने आजादी के लिए संघर्ष की राह पर एक साथ मार्च किया है। पिछले छह हजार सालों से हमारी उपेक्षा हुई है और अपमानजनक व्यवहार किया गया है। पंडित नेहरू के शब्दों पर विश्वास करते हुए भी मैं कहूंगा कि हमारे लोगों का पूरा इतिहास गैर-आदिवासियों द्वारा किए गए अंतहीन उत्पीड़न और बेदखली को रोकने के लिए हुए विद्रोहों का इतिहास है। संवैधानिक इतिहास लिखने वालों ने जयपाल सिंह की भूमिका की उपेक्षा की है। एडवाइजरी कमेटी के 52 सदस्यों में एक भी आदिवासी नहीं होने पर जयपाल सिंह ने कटाक्ष किया था कि भारतीय आजादी के लिए संघर्ष करते हुए हम आदिवासी विदेश नहीं गए और न अपने अधिकारों के लिए कैबिनेट मिशन के पास गए।
संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत मूल अधिकारों पर बहस हुई। उसमें प्रावधान था कि कोई भी नागरिक भारत के किसी भी इलाके में आने जाने बस जाने और कोई भी व्यापार कारबार या उपजीविका करने का मूल अधिकार रखेगा। केवल जयपाल सिंह सूंघ पाए थे कि शहरों के रहने वाले अमीर और समर्थ लोग इन मूल अधिकारों का उपयोग करने लगेंगे, तो वन संस्कृति में सीमित और सुरक्षित रहे आदिवासी जीवन में उनका अनावश्यक हस्तक्षेप कैसे रुकेगा। उनकी अनसुनी कर दी गई। पूंजीवादी सभ्यता और अफसरशाही बेरोकटोक हस्तक्षेप की बारूद का पलीता आदिवासी इलाकों में बिछ ही रहा है। धरती आदिवासी की स्थानिकता, पहचान और विशेषता की सूचक है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ङ) और (छ) में लिखा है कि अपने जीवनयापन के लिए प्रत्येक नागरिक को भारत के किसी भी भू भाग में बस जाने का अधिकार होगा। इसलिए अपने बसे हुए भूभाग से नहीं हटने को आदिवासी अपनी सांस्कृतिक संवैधानिकता समझता रहा है।
आदिवासी जीवन की जरूरतें लूट के लिए विकसित बाजारतंत्र के अर्थशास्त्र पर निर्भर नहीं हैं। उसमें गरीब और अमीर, साधनसंपन्न और साधनविहीन, उच्च वर्ग या अकिंचन जैसे भेद-विभेद नहीं रहे हैं। जंगल आर्थिक सहकार का ही परिवेश नहीं अपनी प्राकृतिक संरचना के कारण जीवन में संगीत, संस्कृति, कला-कर्म, पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम और अनुकूलन जैसी अनोखी अंतर्लय विकसित करते रहने के कारण मानवता का एक विश्वविद्यालय होता गया है। जंगल से आदिवासी का विलग होना उसके लिए कल्पनातीत बात है।
देखा जा सकता है कि ‘सामाजिक-आर्थिकी’ का नया प्रशासनिक द़ृष्टिकोण आदिवासियों की ‘आर्थिक-सामाजिकी’ के पुश्तैनी द़ृष्टिकोण का विकल्प बनने की हविश में हिंसा का हथियार बना हुआ है। आदिवासियों ने सदियों में यही सिद्ध किया कि जीवन की सामूहिकता, मनुष्यों की अंतर्निर्भरता के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों के विकास और अनुपालन के लिए मशीनी शासनतंत्र को अंतस्थ करना कतई जरूरी नहीं है। लेकिन वन-उपज सहित खनिजों जैसे लोहा, कोयला, लूरोस्पार, मैंगनीज, बॉक्साइट, तांबा वगैरह के उत्खनन से जुड़े उद्योगपतियों और विदेशी कॉरपोरेटियों की सरकार से भ्रष्टाचार की बहुस्तरीय सांठगांठ के कारण आदिवासी जीवन तहसनहस हो रहा है। मशीनी व्यवस्था पर निर्भर विकास और व्यापार के नाम पर बाजारवाद उसे प्रभावित कर रहे हैं। वस्तुतः आदिवासियों की सरलता, सादगी और अहिंसकता के कारण उनका शोषण करना अपेक्षाकृत सरल है।
एक कुटिल विधान भारतीय वन अधिनियम के नाम से किया गया। फिर कई अधिनियमों, अधिसूचनाओं और आदेशों के तहत अखंडित चला आ रहा आदिवास का अधिकार जगह–जगह नष्ट करते हुए कुचल दिया गया। आदिवासियों के पुश्तैनी व्याकरण में अधिकारहीनता, लाचारी, निराशा और लुट जाने का मनोवैज्ञानिक भाव इंजेक्ट कर दिया गया। कुदरती परंपराओं, स्मृति संचय, व्यावहारिक बुद्धि और आंतरिक आग्रहों को दाखिलखारिज करते हुए वन विभाग नाम का शासन तंत्र स्थापित हुआ। आदिवासियों को अपराधबोध कराया गया कि वे अपने ही घर संपत्ति और परिवेश में एक अतिक्रमणकारी हैं।
आदिवासी जीवन में व्यवस्था का एक और आक्रमण, हस्तक्षेप या प्रभाव शराबखोरी की बुराई घुसाना है। अंगरेजी शासन के समय ही वन क्षेत्रों में लोकनिर्माण के कार्यो- जैसे सड़क, पुल, भवन आदि बनाने में आदिवासियों को श्रमिकों के रूप में तब्दील किया जाना शुरू हो गया था। हालांकि धन का लालच देने पर भी काफी आदिवासी मुनासिब संख्या में काम करने नहीं आते थे तो साजिश के तहत उन्हें शराबखोरी करने का आमंत्रण या झांसा दिया जाना शुरू हुआ। महुआ या चावल के माड़ वगैरह से कच्ची शराब बनाकर पीना, पिलाना और धार्मिक मनोरंजन के अवसर का प्रथागत उपभोग करना आदिवासी जीवनांश रहा है। इस पारंपरिकता को सरकारी व्यवस्था पर निर्भर मदिरापान में ढाल दिया गया।
आदिवासी जीवन में सरकारी अपराधविज्ञान ने पूरी धमक के साथ दखल की दस्तक दी। सरकारी नियमों की भूलभुलैया में आदिवासियों को फंसाया जाना शुरू हुआ, कुछ उसी तरह जैसे जंगल में हांका करने के बाद वनैले पशुओं को मारा जाता है। तकनीकी कानूनों के मकड़जाल में फंसकर आदिवासियों द्वारा सरकारी दफ्तरों, अदालतों और कुटिल जनप्रतिनिधियों के इजलास में चक्कर लगाना शुरू हो गया। यदि आदिवासी लकड़ी का एक टुकड़ा भी हल बनाने के लिए काट लेता, तो जंगल विभाग के जंगली कानून वन उत्पाद की चोरी के आरोप में मुलजिम बनाकर उसका दमन और शोषण करते।
जंगल से आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक रोमांस आदिवासियों का सदियों पुराना रोमांचकारी अनुभव रहा है। जंगल उनके जीवन में एडवेंचर, उन्माद, उत्साह और उत्फुल्लता का स्वाभाविक और बुनियादी कारक रहा है। जनजातियों को मजबूर किया गया कि अपनी खेतिहर उपजें और कुदरती वन उत्पाद बाजार नामक नई व्यावसायिक एजेंसी को ऐसी दरों पर बेचने आएं, जिन्हें सरकार और बाजार ने अपने अधिकारों के जरिए तय किया है। स्त्रियों के शील और सम्मान के प्रति चरित्रवान रहा आदिवासी समाज कथित सभ्य लोगों के कुटैव का शिकार रहा है। दरअसल इधर उन्हें अपनी स्वायत्तता, इयत्ता, पहचान और प्रकृति से तादात्म्य को लगभग पूरी तौर पर खो देना पड़ा है।
आदिवासियों का विश्वास रहा है कि वे नागर सभ्यता के पूरक हैं, उसके अधीन या उससे कमतर नहीं। वे शत्रु, प्रतिद्वंद्वी या ईर्ष्यालु घटक भी नहीं हैं। फिर भी लक्षित किया जा सकता है कि आदिवासियों और अन्य मजदूरों का सभ्यता के प्रतिमानों पर लगातार हाशियाकरण होता रहा है। इस शैतानी षड़यंत्र का सबसे बुरा असर झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी इलाकों को भोगना पड़ा है। ये इलाके आदिवासी सांस्कृतिक जीवन की रीढ़ की तरह हैं। उनकी बरबादी में नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के साथ कॉरपोरेट गठजोड़ भी शामिल है।
औद्योगिक, खनिज, सिंचाई और विद्युत प्रोजेक्ट विशेष तौर पर आदिवासियों की जमीन पर उगाए गए हैं, लेकिन उनका लाभ उन्हें नहीं मिल पाता। आदिवासी अपने परिवार, परिवेश और पुश्तैनी संस्कृति की लाक्षणिकताओं से च्युत होकर किसी उपग्रह की तरह आशंकाओं और अनिश्चितताओं के अंतरिक्ष में चक्कर लगाते रहे हैं। उनका जीवन बूर्जुआ नौकरशाही की समझ और उद्योगीकरण के चारों ओर घूमता रहा है। उनके जीवन को अस्तित्वहीन नामालूम इकाइयों में तब्दील करने को भी आज आदिवासी जीवन कहा जाता है। उन्हें फैक्टरियों में काम करते, रिक्शा चलाते, कुलीगिरी करते ऐर हर तरह के असुरक्षित काम करते अकुशल श्रमिकों के रूप में देखा जा सकता है। ऐसे लोगों की किसी प्रामाणिक सांख्यिकी का मिलना अब तक संभव नहीं हो पाया है। जंगल के माहौल में कुदरती रूप से जन्मे और उपलब्ध कई पशु-पक्षी भी अब विलग हो रहे हैं। कॉरपोरेट औद्योगीकरण के कारण उसके कारिंदे, लूट के के सर्जक, साहूकार और शराब ठेकेदार बढ़ गए हैं।
इस समय नए ज्ञानशास्त्र का एक सिद्धांत प्रचलित है कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास के लिए निर्णायक भूमिका बाजार को सौंप देनी चाहिए, सरकारों को इन मामलों से धीरे-धीरे हट जाना चाहिए। उद्योगपति अब बाजार की सत्ता के केंद्र हैं। आदिवासी, दलित और गरीब तथा मध्य वर्ग परिधि पर हैं। मंत्री परिषदें, नौकरशाह और तथाकथित विशेषज्ञ- नवोन्मेषी बुद्धिजीवी त्रिज्या की भूमिका अदा करने लगे हैं। आदिवासियत को इतिहास की स्मृति बनाने का खेल चल रहा है। खनिज, वनोत्पाद, जल, भूमि आदि के साथ-साथ आदिवासी संस्कृति को भी कमोडिटी समझकर व्यापार के योग्य बना दिया गया है।
तर्क यह है कि आदिवासियों के रहन सहन, बोलियों, जीवनयापन, संगीत, कलाओं आदि की समुच्चय–संस्कृति विश्व बाजार की नई उपभोक्ता वस्तु बना दिए जाने से आदिवासी–संस्कृति तालाब के बदले समुद्र का विस्तार पा जाएगी। वह दुनिया की सार्वजनिक संपत्ति बनती जाएगी।
आदिवासियों का जीवन आत्मसम्मान, आत्मसंयम और आत्मविश्वास की प्रयोगशाला है। यह प्रयोगशाला बंद की जा रही है। उसकी चीजों को दुनिया पेटेंट कराकर, डिब्बा–बंद करके उसके अन्वेषकों को ही बेचा जा रहा है।
दलित और आदिवासी चेतना अभी भी न सामासिक है और न ही पूरी तरह प्रबुद्ध है। दलित और आदिवासी नेता इस बात को कहां समझ पाते हैं कि राजनीति उनका उपयोग कर रही है या वे राजनीति का उपयोग कर रहे हैं? समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक आधार पर अभी अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं शोषणमूलक परंपराओं को समर्थन और मजबूती दिया जा रहा है, जिनके आधार पर सदियों से उनके पूर्वजों को उत्पीड़ित किया गया है।
सैकड़ों आदिवासी बोलियां नष्ट हो गई हैं। माना जाता है दुनिया में 6000 से 7000 बोलियों में से अधिकांश बोलियां छोटे समूहों द्वारा बोली जाती हैं, जबकि बहुत कम बोलियां बहुत बड़े वर्गसमूहों द्वारा। विश्व की लगभग 97 प्रतिशत आबादी दुनिया की 4 प्रतिशत भाषाएं ही बोलती है, जबकि 3 प्रतिशत आबादी करीब 96 प्रतिशत भाषाओं-बोलियों का उपयोग करती है। अधिकांश बोलियां मृत्यु की कगार पर हैं। एक शोध सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि विश्व की लगभग 90 प्रतिशत भाषाएं/बोलियां आगामी सौ वर्षों में इतिहास की खंदकों में दफन हो जाएंगी। बोलियों के विनाश या क्षरण के लिए उद्योगीकरण इकलौता कारण नहीं है, गरीबी भी एक मुख्य अभिशाप है।
आदिवासी इलाकों को छद्म रूप से जीवित रखते हुए उसे इतिहास का अनाथालय बना दिया गया है। सरकार अकेले तय करती है कि वन, पहाड़ या नदी जैसी संपदा को किसी उद्योगपति को बेच दिया जाए। वह इतनी क्षमतावान हो चुकी है कि दलितों, आदिवासियों की बस्तियों, गांवों को खाली करा दे और उसका ‘देश का विकास’ जैसा नामकरण कर दे। खनिज संपदा का एक या दो दशकों में दोहन कर लेने के बाद भविष्य की पीढ़ियों के लिए क्या बचेगा? जेनेवा, रियोडिजेनेरो और कोपेनहेगन वगैरह की बैठकों के बावजूद क्या सरकारों में इतनी नैतिकता है कि वे जहरीले प्रदूषण से आच्छादित होते देश को बचाएं, वे वन और खनिज संपदा सहित आदिवासी जीवन संस्कृति को नष्ट होने से बचाएं।
आदिवासी जीवन में पारंपरिक ज्ञानस्रोत हैं- हस्तकलाएं, चित्र, नृत्य और अन्य किस्म की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां। इनमें धरती की सोंधी गमक है। सुप्रीम कोर्ट की भूमिका कई बार सार्थक दिखाई पड़ती है, लेकिन उसके हस्तक्षेप क्षेपक हो जाते हैं। कुछ सांसदों के बयान, न्यायपालिका के कुछ निर्णय और जनआंदोलनों की चिनगारियां भीषण अंधकार में जुगनुओं की तरह टिमटिमा भर जाती हैं। यदि पांचवीं और छठी अनुसूची सहित संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन, वन भूमि की मान्यता का अधिनियम वगैरह मिलकर भी सरकार और कारपोरेट जगत की हिंसक जुगलबंदी के सामने लाचार हो गए तो समतामूलक समाज का दावा करने वाला देश अपने ही पिंजरे में तोते की तरह कैद होकर रह जाएगा। समय आ गया है, अंगरेजी ज्ञानशास्त्र की समझ से आगे बढ़कर नवोन्मेषी तथा जनधर्मी देशज अवधारणाएं उपजाई जाएं। संविधान तभी दिमागी संकीर्णताओं और प्राचीनताओं के बरक्स आधुनिक समय का अर्थवान दस्तावेज हो सकता है।
आदिवासी उन दुश्मनों से लड़ सकते हैं जो उनके शरीरों पर हमला करते हैं। उनसे नहीं लड़ पाते जो सभ्यता के हथियार लेकर तथाकथित ‘असभ्यों’ को जबरिया सभ्य बनाने पर तुले हुए हैं। जुमलेबाजी से बेहतर है कि कानून की आत्मा का अनुपालन किया जाए। यह अच्छी बात है कि आदिवासियों में जनतांत्रिक चेतना उसकी नई पीढ़ी के लगातार शिक्षित होने से मुखर हो रही है।
संविधान में आदिवासी के बदले कभी ‘आदिम जनजाति’, कभी ‘ट्राइबल’, कभी ‘वनवासी’ वगैरह शब्द से संबोधित किया जाता रहा है। समाजचेता बुद्धिजीवी रमणिका गुप्ता का कहना था कि आज सबसे बड़ा खतरा अगर आदिवासी जमात को है, तो वह है 21वीं सदी में उसकी पहचान मिटाने की योजनाबद्ध तरीके से कोशिश। किसी भी जमात, जाति, नस्ल या कबीले अथवा देश को मिटाना हो तो उसकी पहचान मिटाने का काम सबसे पहले शुरू किया जाता है।
यह समझने की जरूरत है कि आदिवासी अस्मिता इतिहास की चिनगारी बनकर बार-बार कौंध रही है। आदिवासियों की समस्याएं पेंचबाजी और हिंसा के जरिए हल नहीं हो सकतीं।
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