नवनिर्मित मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी थी।मंदिर की बाहरी-भीतरी सज्जा के लिए बशीर मियां की तारीफ हो रही थी।उसकी उम्दा कारीगरी से पूरा गांव अभिभूत था।
शाम का वक्त था।वह टहलते-टहलते मंदिर के करीब पहुंचकर ठहर गया।प्यार और स्नेह आंखों में भरकर मंदिर को निहारने लगा।उसके कदम अपने आप मंदिर के प्रवेश द्वार की ओर बढ़ गए।
‘तुम?’ उसे देखते ही पुजारी की भृकुटि तन गई।
‘जी, मैं इस मंदिर का राजमिस्त्री बशीर मियां।’
‘समझ रहा हूँ …लेकिन अब यहां क्यों?’
‘जी, इसे बनाने और सजाने में मेरा हाथ था, बस इसे देख रहा था।’
‘तो अब यहां क्यों?’
तल्ख़ आवाज़ सुनकर उसके बोझिल क़दम बाहर की ओर मुड़ गए।

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