चर्चित युवा कवि तथा लेखक।अद्यतन कविता संग्रह आंख में तिनकाऔर लेखों का संग्रह बाजार के अरण्य में

कला ऐसे ही मरती है

चेहरे पर भय करुणा
दुख और विषाद के साथ
थोड़ी तड़प और ज्यादा बेचैनी
मिलाती हुई वह
लालबत्ती पर खड़ी
हर गाड़ी पर देती है दस्तक

जिंदगी के बंद किवाड़ों से
नहीं आती कोई आवाज
आंखें मिलती नहीं
होठ हिलते नहीं
गोया कटे गर्दन से छूटते
लहू के फव्वारे की तरह तेज
भागती हैं गाड़ियां

कुछ भी रुक नहीं रहा
समुद्र पी रहा है अपना जल
आसमान सोख रहा है
अपना निचाटपन
धर्मग्रंथों का कोई शब्द
नहीं फूटता बम की तरह
हालांकि इस क्षण भी
मिट्टी ने सोखा होगा
कुछ बूंद जल
सुदूर किसी चिड़िया की
आंख खुली होगी
एक सूखे पत्ते ने वृक्ष को अंतिम
बार छुआ होगा
एक बच्चे ने कसकर
भींचा होगा मां की उंगलियों को
मरते हुए शख्स ने चखा होगा
हवा का स्वाद आखिरी बार

यह सबकुछ दुहराया
जाएगा बार बार
जीवन और अभिनय के बीच
एक चिड़िया छोड़ जाएगी तिनका
वहां लालबत्ती पर
कोई ढूंढेगा जीवन
कोई ढूंढेगा करुणा
कोई प्यार कोई घृणा
कला ऐसे ही मरती है
जीवन ऐसे ही बचता है।

उतनी ही आवाज

कोयले की कड़वी गंध फैलती है
भोर हो रही है
सिंदूरी आसमान में चमकते हैं
बादल के टुकड़े
मां का चेहरा सपाट है
दृश्य बेरंग जैसे

सड़क पर टघर रही है गाय
पीतल की घंटी में गूंजता समय
एक औरत बुहार रही है पत्ते

कलकत्ते से आई ट्रेन रुक गई
छुकछुक करता दिन शुरू हुआ

बीस बरस बाद भी
दिन ऐसे ही शुरू होता है,
बीस बरस बाद मां का चेहरा
पोपला, मगर उतना ही सपाट
इतनी मृत्यु, इतनी हत्या, इतना चीत्कार
बीस बरस बाद भी सूखे पत्तों को बुहारते
आती है
उतनी ही आवाज।

चिड़ियां की आंख भर रोशनी में

पहाड़ों को पता है
अपनी ऊंचाई का
समुद्र जानते हैं
अपना विस्तार
नदियों को मालूम है
सरलता का महत्व
फूल जानते हैं
रस को भीतर बचाए
रखने का हुनर

दरवाजे अपनी छाती पर
थामें रखते हैं विपत्ति
सड़कें बनाए रखती हैं
दुनिया के वृत्त को सपाट
पहुंचने और छूने की इच्छाएं
बनाती हैं आकाश
सोचने के विस्तार ने
खोजा क्षितिज

रोशनी में छिपी है सूक्ष्मता
अंधकार ने बचाया अनिश्चितता
मृत्यु ने सिखाए खेल के नियम
चुंबन ने बचाया स्पर्श
हाथों ने निर्मित किया साथ

इन सबसे मिलकर बना आदमी
आदमी का दिमाग
आदमी का दिल
आदमी का एहसास
जो करता है हत्या
पीता है रक्त
और बहुत दुर्लभ क्षणों में
चिड़िया की आंख भर रोशनी में
लिखता है कविता।

अ-संगीत समय

मार्मिक धुन
रोने के सघन क्षणों से ठीक पहले
भूख की तड़प सी उठती है
कुचली जा रही आत्मा के चीत्कार की तरह

दुख के छोटे पहाड़ों के ऊपर से उठते हैं
सांवले बादल दिशाहीन
एक आवेगहीन लहर लौटती है
एक नाराज बच्चा पटकता है पैर
एक लड़की अपने हाथों में
कस कर भींचती है रुमाल
भर्र से खुलता है एक बीमार दरवाजा
शाम की मद्धिम रोशनी बुझती है
उम्मीद की तरह
पत्ते झड़ते हैं बेआवाज

देर तक बातचीत के बाद गूंजती है चुप्पी
लंबी खामोशी
रेगिस्तान के अंतहीन रास्तों की तरह
नहीं सुनी गई चीखों की अनुगूंज
बदलती है एक लंबे आलाप में
संगीत बचाती है आत्मा का विषाद
शब्दहीन शब्दों में बचा रहता है नकार
कंठ की घरघराहट में ठहरा हुआ समय
संस्कृति के सितार पर धूल जम रही है
अ-संगीत समय में हर चुप्पी
दर्ज करती है सभ्यता का रुदन।

संपर्क : हिंदी विभाग, श्री शंकराचार्य संस्कृत यूनिवर्सिटीकलाडी683574, जिला : अर्नाकुलम, केरल  मो.9213166256