वरिष्ठ लेखक। अद्यतन पुस्तक सर्दियों का नीला आकाश। फिल्म सोसायटी मूवमेंट से संबद्ध।

एक

पोलिश फिल्म निर्देशक किस्लोव्स्की की फिल्म ‘डबल लाइफ ऑफ वैरोनिका’ की युवा नायिका फिल्म के अंतिम दृश्य में अपने मोहभंग, अपनी हताशा, व्यथा और निराशा के साथ अपने घर लौटती है। अपने विधुर पिता के कंधों पर अपना सिर टिकाए आंसू बहाती है।

यहां नायिका के अपने बचपन में लौटने की मानवीयता, मार्मिकता और कविता नजर आती है। अपने साथ लौटने की विवेकशीलता और विवशता भी।

अंततः मनुष्य अपने पास लौटने के अलावा कर ही क्या सकता है? हम कभी जहां से शुरू हुए थे, वहीं पर लौटते हैं। लौटने की सांत्वना और सुख के बीच खड़े हो जाते हैं।

किस्लोव्स्की एक जगह पर कहते हैं कि उनकी फिल्म का अंत उनके अमेरिकी दर्शकों को अच्छा नहीं लगा था। बाद में उन्होंने जाना कि जिस समाज में घर की अवधारणा टूट रही हो, बिखर गई हो, वहां किसी का अपने घर लौटना मुश्किल से समझ आता होगा।

दो

‘पृथ्वी पर जीवन’ शीर्षक से एक विदेशी वृत्तचित्र में यह बात आती है कि जानवर पौधे की गति से बढ़ नहीं पाते हैं। जानवरों का शारीरिक विकास पौधों के विकास की तुलना में धीमा होता है।

हम बरसों से यह भी सुनते आ रहे हैं कि औद्योगिक क्रांति और उसके बाद के औद्योगिक प्रदूषण ने हमारी पृथ्वी के लालित्य, सौंदर्य, सुकून और उर्वरता को बुरी तरह नष्ट कर दिया है। मनुष्य द्वारा प्रकृति को लूटने, नष्ट किए जाने का अब यह आलम है कि अब यह संसार ही नहीं, समूची सृष्टि खतरे में नजर आ रही है। हवा प्रदूषित हो चली है। पानी बचा नहीं है। जंगल, पहाड़, नदियां पूरी तरह बर्बाद हो जाने के कगार पर खड़े हुए हैं।

कितने सारे कवियों, लेखकों, वैज्ञानिकों और विचारकों ने हमें पृथ्वी के इस विनाश, विध्वंस के प्रति सचेत किया था! हमारे अपने ही देश में रवींद्रनाथ ठाकुर और गांधी जी ने हमारी इस सृष्टि को बचाए रखने के लिए कितनी सारी चिंताएं व्यक्त की थीं, कितनी सारी हिदायतें दी थीं!

इस वृत्तचित्र में हमारे पर्यावरण से जुड़ी भीषण त्रासदियों को जानकर मेरे मन में निराशाएं उतरी हैं, नाउम्मीदगी और बेबसी भी।

तीन

इन दिनों मैं बीच-बीच में ईसा मसीह के जीवन, ईसाइयत, ईसाई संतों और चिंतकों से जुड़ी हुई चीजों को पढ़ता रहा हूँ। बाइबल को एक साहित्यिक क्रांति के रूप में, एक उपन्यास के रूप में देखना भी अत्यंत दिलचस्प और उपयोगी अनुभव बनता है। धर्म, जीवन और साहित्य का अनूठा-सा संगम, संयोजन और संतुलन जो कहीं हमारे भाव संतुलन, मानसिक शांति को बनाए रखने में हमारी मदद करता रहता है।

एक जगह यह पढ़ना एक आत्मीय अनुभव रहा कि मरियम के अपने मातृत्व के दिनों की यातना और पीड़ा की तुलना कभी, यहूदियों के लाल सागर को पार किए जाने की यातना से की गई है। एक और जगह पर लॉरेंस के उपन्यास ‘एरॉन्स रॉड’ के संदर्भ में यह आया है कि ऐरॉन ईसाइयत में पुरोहिती के जनक के रूप में, हजरत मूसा के भाई के रूप में जाने जाते हैं।

इस तरह का बहुत कुछ फ्रेंच लेखक फ्रांकुआ मॉरिस की लिखी अपनी, एक किस्म की बौद्धिक आत्मकथा में भी पढ़ता रहा, जिसे उन्होंने अपनी पढ़ी गई किताबों का जिक्र करते हुए अत्यंत दिलचस्प ढंग से लिखा है।

चार

कस्बाती हवाओं में सर्दियों के लौटने की गंध आने लगी है। घर के पिछवाड़े में खड़े हुए बाग से। उसके पड़ोस में खड़ी हुई फसलों से, बदलते हुए मौसम की अनुगूंजें बाहर आती रहती हैं। मेरी छत पर, उसकी मुंडेर पर, सर्दियों की दस्तकें सुनाई देने लगी हैं। सुबह-सुबह देह के भीतर ठंड का डेरा रहता है। देह के बाहर और आसपास भी।

मैं अपनी छत पर उतरते धूप के एक टुकड़े पर, अपनी आराम-कुर्सी पर बैठे हुए ब्रिटिश लेखक एंजेला कार्टर की किताब ‘नथिंग सेक्रेड’ पढ़ता रहता हूँ। इस लेखक की लगभग इक्यावन बरस की उम्र में, फेफड़े के कैंसर से मृत्यु हो गई। इनके पाठकों को उनके लेखन से बड़ी उम्मीदें रहने लगी थीं। किसी सच्चे, जेनुइन लेखक का इस उम्र में चला जाना अखरता है।

लेकिन लेखन की दुनिया में कितने ही असाधारण, प्रतिभाशाली लेखकों को बड़ी उम्र नहीं मिली। चेखव, लॉरेंस, कैथरीन मेन्सफील्ड, काफ्का और कामू इसके कुछ उदाहरण है। हमारी भाषा में मुक्तिबोध को प्रकृति ने कितना कम समय दिया! श्रीकांत वर्मा भी ज्यादा बड़ी उम्र तक अपना जीवन जी नहीं सके थे।

पांच

हम लोग इतिहास को इस तरह नहीं देख सकते, जिस तरह घास को उगते हुए, परिंदे को उड़ते हुए देख पाते हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर के उपन्यास गोरा को पढ़ते-पढ़ते इतिहास की सीमा का ख्याल आता रहा। यह भी महसूस होता रहा कि किसी भी देशकाल में इतिहास की रचना कोई एक व्यक्ति नहीं, व्यक्तियों का एक समूह करता है। कभी यह समूह छोटा होता है और कभी बड़ा लेकिन होता समूह ही है, व्यक्ति नहीं।

रवींद्रनाथ ने औपनिवेशिक भारत के इतिहास का क्या-क्या नहीं देखा था? क्या-क्या नहीं सहा और समझा था? उनका अपना इतिहास-बोध, अपने चारों तरफ की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक उथल-पुथल के निरंतर और सच्चे गवाह होने से जन्मा था। इसलिए भी उनके इतिहास की समझ अत्यंत गहरी, नैसर्गिक और व्यापक बनी रही है। वे शायद अकेले ऐसे भारतीय लेखक नजर आते हैं, जिनका अपने इतिहास से इतना सहज और सच्चा संवाद बना रहा था।

छह

रवींद्रनाथ ठाकुर के कुछ निबंधों के अंग्रेजी अनुवादों को पढ़ना हुआ। सभ्यता का संकट और राष्ट्रवाद शीर्षकों के निबंधों में पीड़ित मनुष्यता के लिए, उनके गहरे सरोकारों को साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। राष्ट्रवाद को लेकर उनका चिंतन-मनन कितना दूरदर्शी था? राष्ट्रवाद की सीमाओं और खतरों को लेकर उनकी सोच ने बाद में उन देशों को भी नाराज किया था, जिन देशों में उनको स्नेह और सम्मान मिला था। प्रसिद्ध जापानी लेखक कावाबाटा ने रवींद्रनाथ को अपने बचपन में, उनके देश के लोगों को संबोधित करते हुए देखा था।

कई वर्षों के बाद भी रवींद्रनाथ के निबंधों की ताजगी, पारदर्शिता, साफ-सुथरापन खींचता रहता है। उन्होंने अपने वक्त के सोचने-समझने की दुनिया की सीमाओं, संकीर्णताओं और पिछड़ेपन के लिए कितनी सारी चुनौतियां, कितने सारे सवालों को व्यक्त किया था? उनके विचारों में तार्किक संरचनाएं उपस्थित रहीं। मानवीय सभ्यता के लिए जरूरी नियम संहिताओं को ताक पर रखे जाने की लापरवाही से उपजा तनाव भी मौजूद रहा। दुनिया भर में जंगल के कानूनों से लड़े जाने की कवायद का जिक्र भी।

हमारे अपने देश के साहित्य में रवींद्रनाथ ठाकुर के लिखे गए का उपस्थित रहना, हम पाठकों के लिए कितना ज्यादा आत्मीय, अनिवार्य और प्रेरणादायी अनुभव बनता रहा है?

सात

पहली मंजिल के मेरे घर की खिड़की पर अक्टूबर की रात का अंधेरा और उजाला, चढ़ता-उतरता रहता है। सामने लैंपपोस्ट है, जिसका बल्ब जलता-बुझता रहता है। नींद में उतरने के पहले अपनी नोटबुक में अपनी छुट्टी के इस दिन को उतारना चाहता हूँ।

फूहड़ता, भद्देपन और भोंडेपन से भरा हुआ एक और दिन बीत गया। गैर-रचनात्मकता और बेढंगापन लिया हुआ एक और रविवार, जब न कुछ अच्छा पढ़ना हो सका और न ही कुछ ठीक-ठाक-सा लिखना। एकदम लालित्यहीन, औसत, मामूली-सा रविवार। क्या नौकरी छोड़ देने के बाद भी मैं यही जिंदगी साथ लिए हुए रहूंगा? तब क्या नौकरी से अलग होने का मेरा निर्णय ठीक रहेगा?

अक्टूबर की इस कस्बाती रात में अपनी जिंदगी का सच नजर आता है। अपनी जिंदगी का सच्चा चेहरा भी। लापरवाही, आलस्य और निष्क्रियता से भरा हुआ अपना अब तक का जीवन जो जल्दी ही अपनी चौवन बरस की जिंदगी जी चुका होगा।

ऐसे में अपने अकेलेपन का चेहरा भी सामने आता है जो मेरे भीतर किसी भी तरह की भावनात्मक और बौद्धिक गहराई को पनपने ही नहीं देता है। मेरे भीतर का खालीपन भी है, जो मुझे अपनी मामूली उपलब्धियों को लेकर आत्ममुग्ध बना देता है। क्या आगे भी मैं इतना ही असहनीय, सतही जीवन जीता रहूंगा?

रात के बारह के आसपास अपने को लेकर इस तरह सोचते चले जाना, मेरे लिए असहनीय हो गया था। मैं बाहर घूमने के लिए निकला था। कस्बे की सरहद पर खड़े हुए बांध की तरफ, जहां हनुमान मंदिर था, कोलतार की सड़क के दोनों तरफ पड़े हुए खेत थे और इन सड़कों को आलोकित करता हुआ चांद था।

आठ

हमारा जीवन हमारे पीछे किसी ठोस वस्तु की तरह खड़ा नहीं रह सकता है। हमारी जिंदगी सिर्फ एक मानवीय जिंदगी ही है। हमें निरंतर छोड़ती हुई। लगातार हमसे छूटती हुई। सिर्फ और सिर्फ एक मानवीय जिंदगी।

अपने चौवन बरस के अतीत में झांकता रहता हूँ। कभी-कभार बीच-बीच में।

कितने सारे लोगों का संग-साथ नहीं रहा। कुछ लोगों ने मुझे छोड़ दिया और कुछ लोगों को मैंने छोड़ दिया। उनके चेहरे याद आते हैं। उनकी आवाज सुनाई देती है।

हमारा लोगों के पास जाना, हमारा लोगों से दूर जाना, यह सिलसिला, अपनी तरह से, अपने तर्क से बनता-बिगड़ता रहता है। अब थोड़ा-सा ही, पर समझ में आने लगा है कि न हम सबके लिए बने होते हैं और न ही सब हमारे लिए बने होते हैं। यह जानने की खातिर भी लोगों से मिलना- जुलना पड़ता है। उनके साथ कुछ देर तक, कुछ दूर तक चलना पड़ता है।

हमारे जीवन में लोगों का आना, हमारे जीवन से लोगों का जाना न यह कोई नई बात है और न ही सिर्फ हमारी बात है। बरसों-बरसों से हम, सिर्फ एक मानवीय जीवन जीने के लिए, अभिशप्त रहते आए हैं।

नौ

बीच-बीच में अंतोन चेखव की कहानियों के साथ-साथ उनके पत्रों को भी पढ़ता रहता हूँ। उनके पत्र भी अत्यंत दिलचस्प महसूस होते हैं। उनमें भी चेखव का ग्रेसफुल लेखक, सभ्य नागरिक, जिम्मेदार व्यक्ति नजर आता रहता है। अपनी चिट्ठियों में भी चेखव गहरा साहस लिए हुए, उजला स्वतंत्रता-बोध लिए हुए, एक साथ सरल और जटिल व्यक्ति नजर आते हैं।

चेखव की प्रसिद्ध कहानी ‘डार्लिंग’ के बारे में सोचते हुए एक तरह के विस्मय, आश्चर्य से गुजरता हूँ कि कैसे उनकी तरह के जटिल व्यक्तित्व लिए हुए व्यक्ति ने ओलेंका की तरह के भोले- भाले, सीधे-साधे बच्चों का कुंवारापन लिए हुए पात्र को रचा होगा?

‘डार्लिंग’ की नायिका का एक ऐसा अलौकिक व्यक्तित्व है, जो बिना किसी को प्यार किए रह ही नहीं सकता है। जिसे अपने आत्म पर, अपने अस्तित्व पर भरोसा ही तब होता है, जब वह किसी को प्यार कर रहा होता है। किसी के प्यार में डूबा हुआ होता है। एक शाश्वत प्रेमी। एक असाधारण प्रेमी।

टॉलस्टॉय ने चेखेव से अपनी एक मुलाकात में इस कहानी की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। इस कहानी की तुलना किसी सुंदर स्त्री के हाथों से बनी हुई स्वेटर से की थी। अमेरिकी कथाकार रेमंड कार्वर, आजीवन चेखव की कहानियों से प्रभावित रहते आए थे। उन्होंने अपने लेखन में चेखव की कुछ कहानियों के हिस्सों का उपयोग भी किया था।

दस

कभी-कभी अपनी बरसों पुरानी डायरियों को पढ़ता हूँ। बरसों पहले के अपने नीरस, निष्क्रिय, कस्बाती दिनों का लेखा-जोखा। सुबह, शाम और रात के वक्त में आमला के अलग-अलग हिस्सों में अकेले घूमना और भटकना।

डायरी के कुछ पन्नों में कभी, चांदनी रात के सौंदर्य का जिक्र नजर आता है और कभी किसी सूनी गली, गीली और संकरी सड़क के किनारे खड़े हुए पेड़ की डालियों से झरती हुई बारिश की बूंदों का। इन पन्नों पर रात के वक्त की छायाएं रहती हैं। गर्मियों के दिनों की घास की गंध भी।

एक जगह पर गर्मियों की दुपहरी में कस्बानी म्यूजियम में मूर्तियों के कक्ष में, अपने अकेले होने, अकेले ही होने का जिक्र देखा। फिर लगा कि किसी भी म्यूजियम में अकेले होने पर भी, क्या कोई अकेला रह सकता है? म्यूजियम में किसी का अकेले रहना, एक तरह की संभावना ही हो सकती है।

न जाने कहां से इस बात का, कैसे और क्यों ख्याल आ गया कि वर्जीनिया वुल्फ अपनी डायरी में बाजार से खरीदे गए अंडों की कीमत का भी जिक्र किया करती थीं।

इतना जरूर महसूस होता रहा कि अंततः डायरी एक तरह का कच्चा माल ही है। एक आधा-अधूरा अधपका अनुभव, एक तरह की तैयारी। डायरी लिखना कोई कला नहीं हो सकता है। इसे अपनी अल्पकालिक, अस्थायी उपलब्धि के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

शकुंतला, 33, प्रकाश  नगर, नियर जीमखाना, गोधनी रोड, नागपुर, 440030, (महाराष्ट्र). मो. : 9425670177