शंभुनाथ
20वीं सदी पिछले कई सौ सालों की जाति व्यवस्था से विद्रोह की सदी है। इस दौर में दलितों के आत्मसम्मान और अधिकार की लड़ाई प्रबल हुई। छायावाद के समय हिंदी क्षेत्र की दशा महाराष्ट्र से भिन्न थी, जहां अंबेडकर के नेतृत्व में महारों का आंदोलन चल रहा था। छायावाद और अंबेडकर के आंदोलन का काल एक है। इसी समय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था। हिंदी क्षेत्र में भी अछूतों को लेकर चिंताएं सामने आ रही थीं। यह सब इसलिए भी था कि शहरीकरण के प्रसार ने सभी के साथ-साथ रहने, सामाजिक न्याय और समरसता की जरूरत बढ़ा दी थी। इन सभी घटनाओं का असर छायावाद पर पड़ा।
हम देखते हैं कि छायावादी कवियों में निराला दलितों तथा अन्य वंचितों को लेकर सबसे ज्यादा मुखर हुए। उनकी ‘दलित’-कैटेगरी की खूबी यह है कि इसमें पिछड़ी जातियों के लोग शामिल हैं। प्रेमचंद और निराला दोनों ने ही दलित और पिछड़ों के बीच कभी तनाव नहीं पैदा किया और वंचितों के एक बड़े वर्ग को ध्यान में रखा। 21वीं सदी में जब जातिवाद नए सिरे से सामाजिक खाइयां पैदा कर रहा है, निराला की 1940 के आसपास की रचनाएं देखनी चाहिए।
निराला ने छायावादी दौर की समाप्ति के बाद भी ‘नूपुर के सुर मंद रहे’, ‘बादल छाए’, ‘स्नेह निर्झर बह गया है’ जैसी स्वच्छंदताबोध की कविताएं लिखी थीं। उनकी कविताओं- ‘स्फटिक शिला’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘जल्द जल्द पैर बढ़ाओ’ आदि में रोमांटिसिज्म नहीं है, यह कौन कहेगा! यह जरूर है कि 1936-45 के बीच देश और दुनिया की बड़ी घटनाओं के असर में रोमांटिकता पर यथार्थवाद का दबाव काफी बढ़ गया था।
हिंदी प्रांत में फुले जैसे दलित सुधारक नहीं हुए
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में दलितों की बढ़ती हिस्सेदारी और उनकी समझ के विस्तार से निराला परिचित थे। उनकी एक कविता है ‘डिप्टी साहब आए’। अंग्रेजी राज में डिप्टी के औपनिवेशिक अत्याचार के सामने खड़े होने के लिए पिछड़े और दलित अपने भीतरी स्तरभेद भूलकर एकजुट होने लगते हैं। वातावरण बदल जाता है- ‘तब तक बदलू के कुल तरफदार आ गए/ मन्नी कुम्हार, कुल्ली तेली, भकुआ चमार/ लच्छू नाई, बली कुम्हार, कुल टूट पड़े/ कुछ नहीं हुआ, कुछ नहीं हुआ, होने लगा/ बदल गया राग रंग/ सब लोग सत्य कहने के लिए तुल गए’। पिछड़ी जातियां और दलित एक जमाने में मुक्ति के लिए आंदोनल में एक साथ थे। उनकी एकता यदि 21वीं सदी में टूटी नजर आ रही है तो यह चिंताजनक है।
दरअसल हिंदी प्रांत में न कभी विद्रोही फुले जैसे सुधारक हुए, जिन्होंने महाराष्ट्र में ‘सत्य सोधक समाज’ की स्थापना करके दलित समाज की कुरीतियों, अंधविश्वासों अौंर आंतरिक भेदभाव का विरोध किया था और न अंबेडकर जैसे बड़े माप के आंदोलनकारी हुए। वर्ण-व्यवस्था को अपनी सीमा में ले-देकर थोड़ा-बहुत धक्का आर्य समाज ने दिया। दयानंद सरस्वती ब्राह्मण थे। उन्होंने मूर्ति पूजा के विरोध के साथ-साथ परंपरागत वर्ण व्यवस्था की जड़ता को भी अपनी सीमा में चुनौती दी। उन्होंने जब 1875 में बंबई में आर्य समाज का जुलूस निकाला था, फुले के स्वयंसेवकों ने कट्टरवादियों से बचाने के लिए उसको सुरक्षा दी थी। इसके विपरीत, हिंदी क्षेत्र काशी में दयानंद को कहीं से समर्थन नहीं मिला, बल्कि काशी के परंपरावादी पंडितों का प्रचंड विरोध झेलना पड़ा।
भारतीय समाज की विशिष्ट सामंती संरचना का दबाव ही था कि महात्मा गांधी भी एक काल तक वर्ण व्यवस्था का विरोध न कर सके थे, भले उन्होंने भंगी के घर जन्म लेने की कामना की थी। इस मामले में वे अपने समय के कई सुधारकों से जरूर आगे थे, क्योंकि वे अछूतों-शूद्रों को नहीं, अपने को शुद्ध करना चाहते थे ताकि उनकी तरह उच्च जातियों के लोग पहले खुद अपने को शुद्ध करें!
यह भी एक तथ्य है कि हिंदी क्षेत्र में संत साहित्य के बाद कई सदियों तक दलितों के बीच से व्यापक प्रभाव वाले दलित कवि-लेखक या सुधारक नहीं हुए। अंग्रेजी राज में दलित सबसे अधिक उजड़े और प्रताड़ित हुए। 1990 के दशक में दलित साहित्य के बैनर तले हिंदी क्षेत्र का एक खास सन्नाटा टूटा, कुछ लेखक सामने आए और कई अन्य सामाजिक गतिविधियां शुरू हुईं जो आशाप्रद घटनाएं हैं। साहित्य की अभिजन-केंद्रिकता खत्म हुए बिना उसकी उत्तर-आधुनिक मुक्ति संभव नहीं है।
लेकिन इस सवाल से टकराने की जरूरत है कि प्रेमचंद और निराला की परंपरा से सीखकर पिछड़े और दलित आपस में और शेष वंचित समाज से रिश्ते का अनुभव कब करेंगे। यह प्रश्न भी है कि दलितों पर होनेवाले सभी अत्याचार धार्मिक-सामंती चरित्र के ही हैं या बाजारवाद, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी चीजें भी अत्याचार के रूप हैं। यह भी है, आज के दलित धार्मिक कट्टरवाद को जाति व्यवस्था को मजबूत करने वाले तत्व के रूप में देखते हैं या नहीं? आखिर पिछड़े और दलित अपने समाजों में सामाजिक सुधार और अंधविश्वासों से मुक्ति के लिए क्या कर रहे हैं?
इसपर भी सोचना चाहिए, दलितों की जिंदगी को बाहर से देखकर लेखन का विषय बनाने और भीतर से देखकर विषय बनाने में फर्क हो सकता है, लेकिन क्या साहित्यिक श्रेष्ठता का यही एकमात्र मानदंड होना चाहिए?
निराला के दलित में पिछड़े और अन्य वंचित भी हैं
निराला ने ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ का दर्द व्यक्त करने के साथ, यह भी कहा था, ‘यद्यपि मैं ही वसंत का अग्रदूत’। यह उनकी निजी दर्पोक्ति नहीं है, बल्कि एक भविष्य कथन है कि भावी वसंत के अग्रदूत ये अछूत ही होंगे। विवेकानंद ने यही कहा था। निराला कहना चाहते हैं कि एक दिन ऐसे ही, परिधि पर रहने वाले पिछड़े और दलित, जिनके प्रति सामाजिक अन्याय का एक लंबा सिलसिला है, देश के पुनर्निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभाएंगे।
निराला के ऊपर कुछ व्यक्ति ब्राह्मणवाद का आरोप लगाते हैं, क्योंकि उन्होंने ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ कविताएं लिखीं। उन्होंने जिस तरह ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ रचनाएं खुले मन से लिखीं, स्त्रियों और दलितों पर भी खुले मन से लिखा। वे कभी रूढ़िवादी विचारों के बंदी नहीं हुए। जाहिर है, ‘तुलसीदास’ या ‘राम की शक्तिपूजा’ पर लिखने के कारण जो उच्छेदवादी बुद्धिजीवी निराला पर आरोप लगाते हैं, वे न हिंदी कविता की परंपरा को उसके समग्र विकास में देखना चाहते हैं और न वे निराला को समझना चाहते हैं। उच्छेदवादियों का ‘एरोगेंस’ तत्काल चर्चा दिला दे, उन्हें अंततः कमजोर करेगा। क्या कुछ जातियां सिर्फ अपने बल पर इतनी कठोर दुनिया जरा भी बदल पाएंगी? बड़ी-बड़ी बातें, उग्र बातें ही की जाती रहेंगी। एक विकासशील बहुलतापरक समाज में आलोचनात्मक समावेशिकता की दृष्टि कितनी अधिक जरूरी है और पृथकतावाद कितना विनाशकारी है, यह समझना चाहिए।
निराला पिछड़ा और दलित में भेद नहीं करते। वे ‘कुल्ली भाट’ में दिखाते हैं कि कितने सरल होते हैं ये लोग, ‘बिना स्तव के, बिना मंत्र के, बिना वाद्य, बिना गीत के, बिना सिंगार वाले वे चमार, पासी, धोबी और कोरी दोने में फूल लिए हुए मेरे सामने आ-आकर रखने लगे। मारे डर के हाथ में नहीं दे रहे थे कि कहीं छू जाने पर मुझे नहाना होगा। इतना नत, इतना अधम बनाया है मेरे समाज ने इन्हें। … बिना वाणी की वह वाणी, बिना शिक्षा की वह संस्कृति प्राण का पर्दा-पर्दा पार कर गई। ओफ्फ! कितना मोह है। मैं ईश्वर, सौंदर्य, वैभव और विलास का कवि हूँ। फिर भी क्रांतिकारी!’ ऐसा आत्मविखंडन, ऐसी आत्मग्लानि आज कितने व्यक्तियों में है?
निराला के चतुरी चमार अछूत हैं। झींगुर, बुद्धू, महंगू, लकुआ आदि भी अछूत हैं। बिल्लेसुर ब्राह्मण होने के बावजूद, गरीबीवश बकरियां चराने के कारण अपने गांव में अछूत समझे जाने लगे थे। निराला के दलित चरित्र ताकत भर लड़ते हैं, आवाज उठाते हैं। जिस जाल में वे फंसे हैं, उसे काटना चाहते हैं। उनका जोर उमड़ता है, फिर भी किसी कमजोरी में बार-बार अटक जाते हैं और अकेले पड़ जाते हैं। निराला दलितों की ऐसी ही सामाजिक नियति से टकरा रहे थे और अपने वर्ण-संस्कार का लगातार अतिक्रमण भी कर रहे थे। ‘संत कवि रविदास के प्रति’ में वे ब्राह्मण होकर भी यह कहने से नहीं हिचकते :
ज्ञान गंगा में समुज्ज्वल चर्मकार,
चरण छूकर कर रहा मैं नमस्कार।
तब यह नाटक नहीं था और न किसी प्रभावशाली सांस्कृतिक चिह्न का स्वार्थपूर्ण उपयोग था। यह सैकड़ों साल की संचित भारतीय करुणा का विस्फोट था। यह समानाधिकार के लिए आवाज थी। इसके पीछे वेदांत जैसी जीवंत भारतीय परंपराओं की सांस्कृतिक प्रेरणा थी।
निराला के दलित कृषक तटस्थ न थे
निराला पिछड़ों और दलितों को संकुचित राजनीतिक जरूरतों से ऊपर उठकर एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे। उन्होंने मानवता की मुक्ति की उपेक्षा करके स्त्री और दलित मुक्ति की कल्पना नहीं की। उन्हें यह भी लगता था कि सवर्णवादी धार्मिक-सामंती व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होगी, जब तक किसान नहीं उठ खड़ा होगा।
ज्योतिराव फुले ने 1885 में ‘वार्निंग’ नाम से लिखी पुस्तिका में किसानों एवं उनके परिवार के वर्ग यथार्थ का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। उनके लिए दलितों की मुक्ति का एक अर्थ था कृषकों और खेत-मजदूरों की मुक्ति। निराला के दलित भी जड़विहीन और कृषक-तटस्थ न थे। वे अपनी कविता ‘जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ’ में दलितों को नवजाग्रत किसान के रूप में देखते हैं-
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला।
धोबी पासी चमार तेली
खोलेंगे अंधेरे का ताला
एक पाठ पढ़ेंगे टाट बिछाओ।
ऊपर पिछड़ों और दलितों से एक टाट पर बैठने का आह्वान है, क्योंकि तभी अंधेरे का ताला खुलेगा। निराला का सपना था, ‘सारी संपत्ति देश की हो-जनता जातीय वेश की हो’! यह सपना भूमंडलीकरण युग की मुक्त बाजार व्यवस्था की आग में जल चुका है। इन दिनों हर जगह बाजार उपस्थित है। हर कदम पर राजनीति है। कदम-कदम पर धर्म-धर्म है। हर जगह प्रांत-जाति की बातें हैं। कोई कहां खुलकर सांस ले!
स्वानुभव से संवेदना की ओर बढ़ने का अर्थ
निराला के काव्य में उनका निजी दुख है। लेकिन वे जिसके-जिसके जीवन में दुख है, उसके-उसके दुख में सहभागिता के लिए बिना बुलाए दौड़े जाते हैं। वे स्त्री के पास ही नहीं रुकते (तोड़ती पत्थर), दलित के पास भी जाते हैं। एक अच्छे लेखक का लक्षण है कि वह केवल स्वानुभव व्यक्त करके नहीं रह जाता। वह अपनी संवेदना से दूसरे वंचितों और अन्याय से पीड़ित सभी लोगों के दुख-दर्द को विषय बनाता है। ‘दूसरे’ के दुख के प्रति संवेदनशीलता ही लोकतंत्र है। निराला की ‘भिक्षुक’ कविता की आखिरी पंक्तियों की ओर कई लोगों का ध्यान नहीं जाता- ‘ठहरो अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूंगा/ अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम/ तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूंगा!’ निराला की ऐसी बेचैनी क्या आज के विमर्शवादी मध्यवर्गीय लेखकों में नहीं होनी चाहिए?
निराला ने ‘सरोज स्मृति’ में अपनी बेटी में मां की मधुरिमा देखी और साधारण परिवार की लड़की का विवाह कैसे एक बड़ी समस्या है, यह तकलीफ बताई। ‘सरोज स्मृति’ महज एक शोकगीत नहीं है। यह जन्मपत्री, वर्ण-व्यवस्था और धार्मिक पाखंड के प्रति एक करुण आक्रोश का गीत भी है। इस कविता में वे कहते हैं, ‘ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलांगार/ खाकर पत्तल में करें छेद/ इनके कर कन्या अर्थखेद/इस विषय वेलि में विष ही फल/ यह दग्ध मरुस्थल- नहीं सुजल।’ निराला को जाति व्यवस्था एक तपते रेगिस्तान की तरह लगी थी, जहां कन्या के पिता का गला दौड़ते-दौड़ते सूख जाता है। ‘सरोज स्मृति’ में उभरता है कि जाति व्यवस्था सिर्फ दलितों के लिए ही बंदीगृह नहीं है, यह स्त्री स्वाधीनता की राह में भी एक बड़ी बाधा है।
निराला ने अपनी एक कविता ‘स्फटिक शिला’ में विंध्य की अपनी एक यात्रा का वर्णन किया है। एक मान्यता के अनुसार, कभी राम ने लक्ष्मण और जानकी के साथ यह यात्रा की थी। वे एक कुंड तक पहुंचे थे, जहां सीता ने स्नान किया था। निराला पुराकथा के पवित्र अनुकरण में पैदल ही जाना चाहते थे, पर अंतत: बैलगाड़ी पर जाने के लिए विवश हुए। यात्रा के मार्ग में नदी, नाले, जंगल, गांव सब पड़े थे। कविता में एक जगह जानकीकुंड से नहाकर तुरंत बाहर निकली एक आम युवती के सौंदर्य का इरोटिक वर्णन है- ‘उठे पुष्ट स्तन दुष्ट मन को मरोड़ कर, आयत दृगों का मुख खुला छोड़कर/ आंखें फटी-सी उन स्तनों को देखती रह गईं।’ आखिरकार रामायण की कथा में इंद्र के बेटे जयंत ने कौवा बनकर सद्य:स्नात सीता के ऐसे ही सौंदर्य को देखकर घात लगाया होगा। निराला के उन्मुक्त सौंदर्यबोध में पंत के ‘बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा लूं लोचन’ से एक भिन्न दृष्टि है।
‘स्फटिक शिला’ कविता में दलित यथार्थ उभर कर आता है। निराला की बैलगाड़ी एक कुटिया के चबूतरे से टकरा जाती है। चबूतरा कुछ टूट जाता है। इसके बाद का दृश्य है, ‘कुटिया से निकली/ काली एक नारी गाली देती/ …जैसे कोई अप्सरा/ नाचने लगी हो गालियों से भाव बतला कर/ दोनों हाथ फैलाकर/ मैंने देखा, बड़ा मैला मन उसका समाज से/ चोट खाई हुई वह रामजी के राज से/ शूद्रों को मिला नहीं/ जिनसे कुछ भी कहीं।’ इस कविता में शूद्र अप्सरा का बिंब ‘संध्या सुंदरी’ की परी से भिन्न है। पुरानी रोमांटिकता को खरोंच लगती है, पर कहा जा सकता है कि यहां रोमांटिक सौंदर्यबोध का अंत नहीं, बल्कि रूपांतरण हुआ है। उन दिनों राम राज्य का स्वप्न दिखाया जा रहा था, निराला उसमें दलित का स्थान रहे थे!
निराला ब्राह्मण होते हुए भी एक दलित के घर भोजन करने जाते थे। उन्होंने पीटे जाने के बावजूद दलित के घर जाना बंद नहीं किया। उन्होंने अपनी जाति के संस्कारों और रीतियों का जिंदगी भर मखौल उड़ाया, ब्राह्मण के घर घी की कचौड़ी छोड़कर दलित के घर में तेल की गर्म पकौड़ी खाई। यह दिखावा नहीं था, इसमें बदलते युग की सच्चाई की मुस्कुराहट थी। इसमें मानवीय उत्साह था। निराला के अछूतों से गहरे संपर्क थे। उनके साथ उठना-बैठना था। निराला के बारे में यह कहना कठिन है कि इन्होंने दलित उत्पीड़न को ‘आउटसाइडर’ के रूप में बाहर से देखा है।
निराला ने अपने काव्य में दलितों को एक महत्वपूर्ण विषय वैसे ही बनाया, जिस तरह प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में बनाया था। दोनों के लेखन में हजारों साल से चले आ रहे सामाजिक अन्याय का ॠणशोध करने के लिए मानो इतिहास खुद उतर आया था। कबीर के बाद जो आवाज सैकड़ों साल तक गुम थी, वह एक नया दर्द लेकर प्रेमचंद और निराला में पुन: उपस्थित हुई थी। प्रेमचंद की कहानी ‘सद्गति’ में ब्राह्मण रस्सी से दुखी चमार की लाश नहीं, खुद अपने धर्मतंत्र की भावी लाश खींच रहा था। देखा जा सकता है कि दुनिया में अब धर्म एक शोर भर है और धर्म के उच्च मूल्य कहीं नहीं बच पा रहे हैं।
साहित्य किसी बिंदु पर वैयक्तिक होने के बावजूद हमारे मस्तिष्क की खिड़कियाँ ‘अन्य’ और संपूर्ण विश्व की तरफ खोलता है। निराला के ‘व्यक्ति’ और ‘विश्व’ के बीच में राष्ट्र के वंचित-पीड़ित ‘अन्य’ हैं। श्रेष्ठ साहित्य केवल एक खास राष्ट्रीयता या स्थान तक सीमित नहीं होता। इसके अलावा, वह वैयक्तिक अनुभव का संसार होते हुए भी सामूहिक हित की आवाज है, क्योंकि तभी वह साहित्य है।
‘मनुष्य’ होकर लिखा : श्रेष्ठ लिखा
निराला सामाजिक अन्याय के विरोध के मामले में हमेशा सजग थे। वे सामाजिक न्याय को अपने युग के व्यापक राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए जरूरी समझते थे। इसके अलावा, समावेशी दृष्टि के कारण वे रवींद्रनाथ और विवेकानंद दोनों को अपनाते हैं, जबकि ये दोनों ही एक-दूसरे को जरा भी पसंद नहीं करते थे। इन्होंने एक बार किसी पार्टी में आमने-सामने पड़ने पर भी एक-दूसरे से बात नहीं की थी!
निराला के जमाने की खूबी है कि यदि एक तरफ पश्चिमी सभ्यता और देसी सामंतवाद की मिलीभगत से सांस्कृतिक अध:पतन बढ़ रहा था, तो दूसरी तरफ, सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की कोशिशें भी थीं। उस जमाने में बुराइयों के बीच अच्छाइयों की ताकत उभर रही थी। समाज में ऐसी आंदोलनकारी घटनाएं थीं, जिन्हें देखकर आशा पैदा होती थी। तब ऊंची जातियों के भी कई व्यक्ति जाति व्यवस्था के प्रबल विरोधी थे। वे दलितों की पीड़ा सच्चे दिल से महसूस करते थे। यदि यह सिद्धांत बना लिया जाए कि जिसके ऊपर बीतता है, केवल वही उस पीड़ा को अच्छी तरह व्यक्त कर सकता है तो यह पीड़ा की नाकाबंदी कही जाएगी। लोग दूसरों के दुख-विपत्ति में साझेदारी से किनारा कस लेंगे। समाज में कुछ भी साझा बचा नहीं रहेगा।
हिंदी साहित्य की सैकड़ों साल की परंपरा इतनी उदार रही है कि न इसे हिंदू साहित्य कहा जा सकता है और न उच्च जातियों या पुरुषों का साहित्य कहकर कभी ठीक से समझा जा सकता है। आमतौर पर हिंदी के कवियों-लेखकों ने जितनी लड़ाई बाहर लड़ी, उतनी ही कमोवेश अपने भीतर भी लड़ी। उन्होंने अपने धर्म, जाति और क्षेत्रीयताबोध का पर्याप्त अतिक्रमण किया। उन्होंने हिंदू और द्विज होकर नहीं लिखा, ‘मनुष्य’ होकर लिखा और तभी श्रेष्ठ लिखा।
क्या अब घृणा के भी ब्रांड होंगे
मुक्तिबोध ने ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में एक महत्वपूर्ण बात कही है- ‘प्रेम के प्रति सच्चे होने में इतनी तपश्चर्या नहीं लगती, जितनी घृणा के प्रति सच्चे होने में लगती है।’ निराला के प्रेम में जिस तरह सच्चाई थी, घृणा की अनुभूतियों में भी सच्चाई थी। वे ‘पोथियों में जनता को बांधे हुए’ पुरोहितों के प्रति ‘क्रिटिकल’ थे, पर यह जाति-विद्वेष न होकर, निर्मम धार्मिक व्यवस्था पर प्रहार था। घृणा तब सच्ची नहीं रह जाती, जब वह महज जाति विद्वेष या प्रति-घृणा होकर दमनमूलक व्यवस्था को बदलने के बुनियादी मुद्दे से भटक जाती है। एक सच्ची घृणा व्यक्ति के प्रति नहीं, हमेशा जड़ व्यवस्था के प्रति होती है। वह कभी तात्कालिक फायदा उठाने के लिए नहीं होती। कहना न होगा कि प्रेम की ही तरह घृणा के सच्चे संसार का निर्माण कठिन है।
निराला के दौर का जाति व्यवस्था-विरोध 19वीं सदी के महान नवजागरण की देन है। वह महज एक प्रहार नहीं, अंत:संस्कार भी है। इसलिए निरी घृणा नहीं है, वह सुविधाजनक घृणा नहीं है। वह बेहद असुविधाजनक घृणा है, गैर-बिकाऊ है। जब भी दलित चेतना को संकुचित जाति घृणा का पर्याय बनाया जाता है, जो लोग जाति प्रथा तोड़कर अपना परिवार या नया समाज बनाना चाहते हैं, वे भी धीरे-धीरे जातिवादी घृणा से भर जाते हैं। हाल में सांप्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए जातिवाद को अस्त्र बनाया गया, जातिवाद का मुकाबला करने के लिए सांप्रदायिकता को अस्त्र बनाया गया और दोनों बढ़े। इस स्थिति में अब केवल ‘सरवाइकल ऑफ द फिटेस्ट’ का सिद्धांत चल रहा है! जब महत्वाकांक्षाएं बढ़ जाती हैं, वंचितों की संख्या भी बढ़ जाती है।
सवाल है, पिछड़ी और दलित जतियों के बुद्धिजीवियों में सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, भूमंडलीकरण, पर्यावरण, अमेरिकी पागलपन, स्त्री आदि के मुद्दों पर कितनी बेचैनी है? कहने की जरूरत है कि जब किसी प्रतिवाद के पीछे बड़ी तपश्चर्या या मूल्यनिष्ठा नहीं होगी, घृणा अंतत: बाजार का माल बन जाएगी और भिन्नता पर आधारित घृणा के अनगिनत ब्रांड बनेंगे। समाज अहंकार, अंतर्शत्रुताओं और हिंसा से भर जाएगा।
वस्तुतः अवधारणाओं के संकट की देन है आज की अवधारणात्मक कट्टरता जो धर्म, जाति और प्रांतीयता सभी स्तरों पर देखने को मिल रही है।
हो सकता है, आज कहा जाए कि दलितों को उनकी सामुदायिक स्थानीयता में ही जगाया जा सकता है, जबकि हमें तेजी से बदलते अपने युग को नए सिरे से समझने की जरूरत है। इधर दलित चेतना वस्तुतः धर्मांधता और बाजारवाद के बीच सैंडविच होती जा रही है। निजीकरण और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने नौकरियों के मामले में विकल्प तैयार कर लिए हैं। स्थिति भयंकर होगी। इस वातावरण में उत्पादकता के साथ-साथ निराला युग की मानवता और सामाजिक अखंडता के भाव की फिर जरूरत पड़ेगी।
प्रबंधन के युग में रोमांटिसिज्म
इस तथ्य को ध्यान में रखने की जरूरत है कि हिंदी संसार में 1900 से 1945 के बीच नवजागरण की पृष्ठभूमि में छायावाद, यथार्थवाद और आधुनिकतावाद आसपास ही उभरे थे। औपनिवेशिक बाधाओं के कारण इन साहित्यिक सिद्वांतों में से किसी को यूरोपीय देशों की तरह विकसित होने के लिए अलग-अलग लंबा समय नहीं मिला था। प्रेमचंद और प्रसाद-निराला का युग एक था। प्रगतिवाद और ‘तारसप्तक’ (1943) का युग एक था। इस युग में निराला भी लिख रहे थे। यह कहना मुश्किल है कि इस युग का कौन कवि प्रगतिशील है तो रोमांटिक नहीं है या रोमांटिक है तो प्रगतिशील नहीं है। दरअसल दूसरे विश्व युद्ध ने फासीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध वैचारिक अंतर्मिश्रण बढ़ा दिया था।
देखा जा सकता है, रामांटिसिज्म छायावाद युग के बाद भी साहित्य का एक प्रमुख सृजनात्मक तत्व बना रह गया, हालांकि अब नहीं है। यह प्रबंधन का युग है। साहित्य के संसार में भी ‘मैनेजमेंट’ बढ़ता जा रहा है और ‘रोमांटिसिज्म’ खत्म होता जा रहा है। दोनों का एक साथ होना संभव नहीं है!
पिछले कई दशकों से ‘रोमांटिक’ का अर्थ फिल्मी दृश्यों के असर में बिलकुल सीमित हो चुका है। राजकपूर की खूबियों वाला रोमांटिक तत्व कभी से नदारद है। रोमांटिक विचारों का एक अर्थ लगाया जाता है तथ्य के विपरीत होना, जबकि रोमांटिकता का अर्थ छायावाद के बृहत्तर संदर्भ में रूढ़ियों और बंधनों से नए मानवीय सपनों के लिए विद्रोह है। रोमांटिक विचार तथ्य न हों, पर वे तथ्य या बुद्धि के विरुद्ध भी नहीं होते।
कुकुरमुत्ता : साधारण की श्रेष्ठता और शक्ति
काव्य की दो आद्यशक्तियां हैं- संगीत और कथा। निराला की कविताओं में ‘लिरिक’ के अलावा ‘लिरिक का उपन्यासीकरण’ भी है। संगीत के अलावा कथा हर युग के काव्य को प्रभावशाली बनाने का एक प्रमुख माध्यम रही है। प्रायः सभी कवियों ने कथाओं को चुना है। निराला ने छायावाद को यथार्थ भूमि पर लाते हुए कथा को भी यथार्थ जमीन दी। ‘कुकुरमुत्ता’, ‘खजोहरा’, ‘डिप्टी साहब आए’, ‘महगू महगा रहा’ आदि कविताएं ऐसी ही हैं। इनमें ‘कुकुरमुत्ता’ को एक श्रेष्ठ उपलब्धि माना गया है। यह ‘साधारण’ के असीम सौंदर्य के उद्घाटन और उसकी दिग्विजय की कविता है। इसमें औपनिवेशिक बौद्धिकता को चुनौती देते हुए भारतीय सांस्कृतिक आत्मपहचान का संघर्ष व्यक्त हुआ ही है, गुलाब को सामने रखकर पूंजीवाद पर भी व्यंग्य है। निराला ‘कुकुरमुत्ता’ में अपने युग के एलीट सामाजिक-सांस्कृतिक दबदबे को नकारते हैं, असीमित भौतिक समृद्धि का मखौल उड़ाते हैं और साधारण की असाधारणता का सौंदर्य व्यक्त करते हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ में ‘साधारण की गरिमा’ का एक अनोखा महावृत्तांत है :
सब जगह तू देख ले
आज का फिर रूप पैराशूट ले
विष्णु का मैं ही सुदर्शन चक्र हूँ…
उलट दे मैं ही यशोदा की मथानी…
तीर से खींचा धनुष मैं राम का…
पड़ा कंधे पर हूँ हल बलराम का
सुबह का सूरज हूँ मैं ही
चांद मैं ही शाम का…
निराला ने जब ‘कुकुरमुत्ता’ में साधारण लोगों की भावभूमि से नगरीकरण का मनोहर चित्र खींचा था, उस समय सामाजिक जहर बस्तियों तक नहीं पहुंचा था। वह सत्तालोभी शिक्षितों के उच्च समाज तक सीमित था। राजा की बेटी बहार और माली की बेटी गोली मिलजुलकर खेलते थे, पड़ोसी प्यार से साथ रहते थे। ‘कुकुरमुत्ता’ कविता यह भी बताती है कि लोक उत्थान और सांस्कृतिक आत्मपहचान के लिए संघर्ष का मुख्य हथियार प्रेम ही हो सकता है!
निराला भारतीय जनता की अखंडता के पक्षधर थे। वे दुखों के बीच खाइयां नहीं पुल चाहते थे। वे चाहते थे, अंधेरे का ताला खुले। उन्होंने राष्ट्रीयता, मानवतावाद और सामाजिक परिवर्तन को एक-दूसरे से जोड़ना चाहा, क्योंकि देश के लोगों की वास्तविक मुक्ति के लिए इनमें अंतस्संबंध जरूरी है। निराला के सपने समाज में बिखर गए, पर साहित्य में बचे हुए हैं। साहित्य में सपने कभी नहीं मरते। यदि साहित्य में भी मर जाएं, समाज में कैसे लौटेंगे?
vagarth.hindi@gmail.com
अद्भुत और अत्यंत सार्थक लिखा है आपने ।
निराला जी अपने आप में निराला थे। यह लेख अद्भुत है।