वरिष्ठ लेखिका।सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)एक शख्स कहानीसा’ (जीवनी) लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्याएं’,  ‘मारवाड़ी राजबाड़ी’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

‘‘हैल्ल्यो!! बानी माशी.. क्या ख़बर.. शोब ठीक?..’’ कहते हुए मैंने किताबें एक ओर पटकीं और माशी की गोद में पसर गई।

‘‘बोलो तो आज तुम मुझे क्या खिलाओगी’’ कहने के साथ ही मैंने माशी की लम्बी चोटी को एक झटका दिया.. और उन्होंने आँखों ही आँखों में मुझे धमकाते हुए चोटी का ‘हाथ जूड़ा’ बाँध कर सिर पर कस लिया फिर अपने पान रंगे ओठों से माँ को लाड़ भरी इतराहट से कहने लगी, ‘‘शाबी! शोत्ति तुम्हारा इस लड़की का माथा ऐकदोम खाराप है। .. घोड़ा माफ़िक हो गया किन्तु जरा भी हूस नेई है.. मेरा नोकोल में खाराप हिन्दी बांग्ला बोलेगी.. मेरा ‘साड़ी’ खींचेगी,.. ‘चोटी’ खींचेगी बस्स- शोब समय खी खी खी दाँत देखाएगी। आँख दैखाओ तो टे़ंडा मुख बनाएगी।.. शोब शोमय बदमाईशी खाली बदमाईशी। देखना, दूसरा घर जाकर के माँ-माशी का नाम बोदनाम ना कोरे तो हमरा नाम बानी नेईं।.. हे भोगबान! कितनी दुष्टु लड़की!’’

पर बानी माशी की बातों की तरह ही उनके हाथ भी लगातार चल रहे थे और देखते ही देखते मेरी प्लेट में गरमागरम ‘राधाबल्लभी’, ‘आलूदम’, ‘संदेश’, ‘रसगुल्ला’ आदि के ढेर लग गए थे। मैंने जैसे ही लपक कर प्लेट खींची,.. पंखे की डंडी हाथ पर पड़ी.. ‘‘ऐई पागला लड़की, आगे हाथ धो!’’ मैं हुँ.. हाँ.. करती हुई दौड़ कर बेसिन से हाथ पर पानी छिड़क कर वापस आई और दमादम नाश्ता ठूँसने लगी।

माँ ने खिलखिलाते चेहरे से बानी माशी की ओर देखकर कहा, बानी, तुमने इसे जितना सिर पर चढ़ा रखा है उसमें मेरी गुंजाइश कहाँ? यदि इसके ससुराल से कोई शिकायत आई तो उसकी ज़िम्मेदारी तुम पर ही होगी, मुझ पर नहीं।

‘‘हुँह.. भला बदनामी देने का हिम्मत किसमें होगा? एक तो रुपवती और ऊपर से गुणों की खान।.. ऐसा लेड़की किसी को आराम से मिल सकती है क्या ?

पलक झपकते ही ‘दुष्टु मेये’ को गुणवती बनाती बानी माशी, हमारी बहुत ही प्यारी और अद्भुत पड़ोसन थीं। एक तरह से वे मेरी माँ ही थीं। वैसे माशी और माँ शायद ‘साड़ी बदल’ बहनें भी थीं, पर मुझे तो बस इतना ही पता है कि मेरे प्यार के आकाश का बड़ा हिस्सा बानी माशी ने घेर रखा था और बाकी में थी सारी दुनिया..

लेकिन आज सालोंसाल बाद पूर्वदीप्ति सी यह बानी माशी, क्यों मेरे मस्तिष्क के फ़लक पर बार-बार कौंध रही हैं? क्यों उनकी मीठी चुटकियाँ, छोटे-बड़े हँसी-मज़ाक, रोज़मर्रा की छेड़छाड़ नोंक-झोंक बड़-बड़ आदि-आदि!! सिनेमा की रील-सा आँखों के सामने से गुज़र रहा है (?)

‘‘माँ! माँ! कहाँ हो तुम?’’ आवाज़ देती हुई मैं माँ के पास जा धमकी। मेरा ऊँचा सुर सुनकर माँ कुछ  घबड़ा गई । जल्दी-जल्दी बाहर आकर बोली, ‘‘अरे क्या हुआ? तुम क्यों चिल्ला रही हो?’’

‘‘माँ! अच्छा, वा तेरी सहेली ‘बानी’ थी ना, उसकी क्या खबर सै..उनसे तुम कब मिली थी? वो है कहाँ?..’’

‘‘अरे! तुझे आज बानी किस तराँ याद आगी? कुछ चहिए था के उससे? कोई पुरानी-धुरानी किताब(?) .. या बंगाल की कोई पुरानी बात पूछनी थी के?..के बात है बेटा?’’

‘‘ना बस, ऐसे ही। .. आज सबेरे बानी बासु नाम की एक लेखिका से मिलना होया। बात-बात में बेलियाघाटा का जिकर भी आया, बंगाली खाणै पीणै की चरचा में बानी माशी का नाम भी आया, तो मेरा मन कुछ घबड़ा-सा गया! हाँ, तो माशी माँ की कै ख़बर है (?)’’

माँ का सर्वस्मित चेहरा कुछ मुरझा-सा गया और उन्होंने अधमरे स्वर में जो बताया वह बिल्कुल अप्रत्याशित था। उसका कोई भी तालमेल उन रोजाना की शामों से नहीं था, जिनमें पूरे मुहल्ले के बच्चों के ठहाके, पहनना, ओढ़ना, टांग खिंचाई, रूठ-मनौवल, रोना-गाना और पर्व-त्यौहारों के उत्सव भरे हुए थे। उन शामों में तो ज़रा-सा भी अवकाश नहीं था कि दुःख सेंध मार सके? फिर यह छिद्र आया कहाँ से? उन शामों की चादर का चँदोवा तो इतनी सख़्ती से खूँटों से बँधा था कि ओज़ोन की पर्त में छेद हो सकता है। पर उसमें नहीं। फिर यह हुआ कैसे?..

दरअस्ल अपनी सुविधा के लिए हम माँ-बाबूजी को बेलियाघाटा से मध्य कलकत्ता ले आए थे। बानी मासी किसी भी तरह यहाँ आने को राजी नहीं हुई? जब हमने माशी पर भी मध्य कलकत्ता आने के लिए ज्यादा दबाव डाला तो माशी ने कहा कि ‘‘मैं जन्म से ही इस बंगाली मोहल्ले में पली-बढ़ी हूँ; बचपन, जवानी सब यहीं बीती हैं; अब इस उम्र में केवल सावित्री की ‘टान’ से इसे कैसे छोड़ दूँ? ..हमारे बंगाली संस्कार और हमारे ‘ओलनाल’ तो यहीं के परिवेश में गड़े-खुबे हैं।’’

ख़ैर.. थोड़े दिनों तक काफी आना-जाना रहा, .. फिर कुछ कम.. और क्रमशः यह आना-जाना .. शादी-विवाह, या मरण-जन्म तक ही सिमट कर रह गया।

एक दिन अचानक ख़बर आई कि भास्कर मासा का देहान्त उनकी बड़ी ऑफिस की बड़ी टेबिल पर सिर धरेधरे ही हो गया था।.. श्राद्ध आदि के बाद यह भी सुनने में आया .. कि मासाजी का बैंक बैलेंस कुछ ख़ास नहीं था, और अपनी ईमानदारी के कारण वे यह मकान भी पूरी तरह नहीं खरीद पाए थे। मकानमालिक से रब्तोज़ब्त में कुछ लेनदेन तो हुआ था पर कार्यवाही पूरी न होने के कारण वह साफ मुक़र गया था।

माँ ने बताया कि माशी की मनभावन लाडली बहू रातों-रात सरस्वती से चंडी दुर्गा बन गई थी। उसने तुरत-फुरत अपना बोरिया-बिस्तरा बाँधा और सब कुछ समेट कर अपनी माँ के यहाँ जा कर रहने लगी।

मेरे यह कहते ही कि ‘‘शोनू और माशी को भी तो साथ ले गई है, तो ठीक है’’। माँ ने तमक कर कहा, ‘‘क्या खाक किये? कोण तो कवै था कि वा दुष्टाबहू बानी नै भोत दुख देव है।’’

‘‘माँ! फालतू बात मत कर, बंगाली लड़के माँ की बहुत सेवा करैं है .. हज्ज़ारा उदाहरण दे सकूँ? आज के युग म भी ये बंगाली लड़के श्रवण कुमार सरीखे ही हौंवे हैं।’’

मैंने माँ को डॉ. भट्टाचार्य और डॉ. प्रवीर बैनर्जी आदि कई बड़े डाक्टरों के हवाले से वे किस्से सुनाए, जिनमें बेटों ने माँ की ऐसी सेवा की थी कि मेरे मन के कई भरम ‘पुत्र कुपुत्रो भव, माता न कुमाता भवति’ आदि टूट गए थे।

मैंने उपदेशात्मक स्वर में माँ को यह भी समझाया कि ‘‘हर युग में सात्विक, राजसी, और तामसी तीनों प्रवृत्तियाँ रहती हैं- सत, रज, तम (कलि).. बांग्ला संस्कृति मातृसत्तात्मक है; इसमें अभी भी माँ के लिए विशेष स्थान सुरक्षित है, इसलिए माँ तुम बानी माशी की ओर से बेफ़िक्र रहो। आजकल के बच्चे ईमानदार हैं और सीधी साफ़ बात मुँह पर कह देते हैं। वे बाहर से कड़वे लगते हैं, पर असल में वे पढ़े-लिखे, समझदार और मन के अच्छे हैं। ..

‘‘माँ, तुम वैसे भी माशी की बिल्कुल चिन्ता मत करो। क्या तुम्हें याद नहीं, उस शाम क्या हुआ था? जब तुम मुझे और शोनू को वह मीठे कलेजे वाली कहानी सुना रही थी? कितने बड़े थे हम दोनों?.. यही कोई चार-पाँच साल के क्यों?’’

और वह दृश्य!! .. अखण्ड!!.. साबुत!!.. पूरा का पूरा मेरी आँखों के सामने तिर गया।

माँ ने अपने ‘तकिया कलाम’ कहानी सुनते समय हुँकारा भरो तो सुनाने वाले को आनन्द आता है और सुनने वाला जाग्रत रहता है। कह कर अपनी कहानी शुरू की थी।.. माँ की दाईं पालथी पर मेरा और बायीं पर शोनू का सिर था। माँ की अँगुलियाँ हमारे बालों से खेल रही थीं। कहानी अपने पूरे यौवन पर थी कि अचानक, शोनू उठकर दौड़ा और रसोई घर से एक छोटा-सा चाकू लाकर चिल्लाने लगा ‘‘मेरे देबो। राक्खोश के जाने मेेरे देबो।.. मार डालूंगा राक्षस को, मार डालूंगा अपनी… अपनी माँ की जान लेगा.. अभी का अभी मार डालूंगा…( निजेर मायेर जान नेबे?..ऐखूनी .. ऐखूनी.. मेरे देबो)’’..कहते-कहते उसकी साँसें उलझने लगीं।

सब हक्के-बक्के।.. माँ ने मेरा सिर धड़ाम से ज़मीन पर गिरने दिया और शोनू का चाकूवाला हाथ पकड़ कर उसे पुचकार कर कहने लगी, मेरे राजा, मेरे सोना, बेटा यह तो बस एक कहानी मात्र है।..ऐसा कभी नहीं होता।.. जब तक इस धरती पर तुम सरीखे बेटे हैं, कोई अपनी माँ पर हाथ तक नहीं उठा सकता, मार डालना तो दूर की बात है।..

यह वही हम सबकी सैंकड़ों बार सुनी कहानी थी कि एक प्रेमिका के उकसाने पर जब उसका प्रेमी अपनी माँ के मीठे दिल को निकाल कर तेजी से अपनी प्रेमिका के पास जा रहा था, तो ठोकर लगने से गिर पड़ा था और कहानी का थर्रा देने वाला चरमशीर्ष यह था कि कटे कलेजे से भी माँ की आवाज आई थी!

‘‘अरे बेटा! कहीं चोट तो नहीं लगी?’’

एक लम्बा निःश्वास छोड़ते हुए मैंने माँ से माशी का पता माँगा।

माँ ने दोनों हाथ झटक कर कहा, ‘‘शोनू की बहू ने किसी को भी अपना अता-पता नहीं दिया।’’

..मैंने खीज कर कहा। ‘‘बड़ा अजीब जवाब है यह तो!’’

‘‘पर यही सच है!’’ माँ ने मुँह फुलाकर कहा।

बहरहाल, व्यस्त जीवन की अफरा-तफरी में बानी माशी का अध्याय अपने पन्ने समेट कर वापस बन्द हो गया था कि..? एक दिन अचानक मेरी योग गुरु शिखा दी ने कहा, ‘‘दीदी! आज मन कुछ खट्टा-सा हो रहा है।’’

उसकी रोज़ की बेसिर-पैर की बकबक से उकताए मेरे कान यह संवाद सुनते ही मुँद-से गए थे कि कथा-प्रवाह के बीच अचानक सुनाई पड़ा ‘‘और वह बुढ़िया बानी? बिचारी कुछ भी नहीं’’

शिखा तुमने कहा, ‘‘ बुढ़िया ‘बानी’? कौन हैं वे? उनका पूरा नाम क्या है? तुम उन्हें कैसे जानती हो? क्या वे सदा से ही तुम्हारे पड़ोस में रहती हैं?’’

शिखा रोज़ मुफ़स्सिल ‘खरदा’ से दो लोकल ट्रेन बदलकर कलकत्ते आती है; वहाँ का रहन-सहन और मकान सस्ते, और वहाँ के बाशिन्दे अधिकतर बांग्लादेशी शरणार्थी हैं।

मेरे प्रश्न से शिखा का चेहरा चमक उठा। उसकी यह शिकायत कि मैं उससे अनमनी रहती हूँ और उसकी बातों को तवज्जुह नहीं देती; मिट गईं; फिर तो उसकी बातों की ऐसी नदी बही कि उसमें से आठ-दस सीरियल की पटकथाएँ निकल आतीं।

हाँ! बुढ़िया के उठने से लेकर सोने तक, सातों दिन! बारहों महीने! उसके साथ क्या सुलूक होता है, सुनना अत्यन्त दुःखद और दिल दहला देने वाला था।

शिखा! क्या तुम मुझे बानी जी से मिला सकती हो? सुनते ही शिखा ने मुझे यूँ घूरा जैसे मैं आधी नहीं पूरी पागल हो गई हूँ। दो-एक उपहार और ख़ुशामद के बाद वह इस पर राज़ी हुई कि वह किसी तरह उनसे मिलकर मुझे उनके हाल चाल बताने की कोशिश करेगी।

विस्मय और आनन्द से भरा था वह दिन! जब शिखा ने यह शुभ सूचना दी कि आज ‘बानी बुढ़िया’ से मिला जा सकता है; क्योंकि उनके बेटा-बहू दो दिन के लिए ‘दीघा’ घूमने गए हैं।

बिना क्षणमात्र गँवाए, हम सब गाड़ी में भर कर माशी के दरवाजे जा पहुँचे। संदेश के डिब्बे, समोसों के ठोंगे, और फलफूल उतार कर, जब हमने दरवाजा खटखटाया तो सामने एक बहुत ही भद्र पुरुष आ खड़े हुए। पता चला कि वे माशी की बहू के जीजा हैं और उसी कम्पनी में काम करते हैं, जिसमें माशी का बेटा शोनू बाप की वजह से अफ़सर है। 

उन्होंने आँखें चुराते हुए बहुत ही संकोच से हमें बानी माशी की कोठरी दिखा दी।.. असंभावित और असमय पड़ी थपथपाहट से बानी माशी इतना घबड़ा गईं कि दरवाज़े पर उन्हें देखकर लगा,  मानों कोई भूत सामने खड़ा है! आँखें आसमान पर! गर्दन ज़मीन में धँसती-सी! क्या मोटी साड़ी का फटा पल्लू मरोड़ते काँपते हाथ! और ज़मीन को कुरेदते पैरों के अँगूठे।

ओफ्फ! क्या ये वही बानी माशी हैं? ऐसा हो ही नहीं सकता, ज़रूर कहीं कोई भूल है। क्या ये बानी माशी ही हैं। मैंने असमंजस भरी आँखों से शिखा को देखा तो उसने झुकी गर्दन और झुकाकर जोर से हामी में उसे हिला दिया।

ओह! वह परिवेश? बयान करने लायक नहीं, लगा काला पानी की कोठरी का कोई बहुत ही बुरा सिनेमाई सेट है। पंखा तो दूर उसमें एक खिड़की तक न थी।

‘माशी’ साँस कैसे लेती हैं? क्यों जिन्दा हैं वे ऐसी बदतर जिन्दगी में?

पर उनकी आँखों ने बिना कुछ कहे ही मेरी सारी जिज्ञासाओं का समाधान कर दिया और साथ ही यह भी कह दिया कि मरना इतना आसान नहीं है।

सोचा था पहले की तरह ही लपक कर, उमग कर, माशी को चिपका लूँगी!! उनको पास बैठा कर खिलाऊँगी। उनके आराम का कोई इन्तज़ाम करूँगी। पर यहाँ तो सब कुछ स्तब्ध था..एकदम ठहरा हुआ .. निर्वात। वहाँ इतने लोग उपस्थित थे; पर लग रहा था जैसे कि कोई भी नहीं है; बस एक भयावह सन्नाटा  वहाँ पसरा हुआ था। जिसकी धुंध सब कुछ लील रही थी। यहाँ तक कि सबकी साँसों की आवाज़ भी इतनी साफ थी; मानों कोई धौंकनी धौंक रहा हो।

यह मंज़र कितनी देर ऐसे ही जड़ता में जकड़ा रहा अंदाज़ नहीं,

अंत में शिखा ही बोली- तो चलें?

‘‘अरे वाह! चलें? चलें कैसे? ठहरो बाबा।.. एक मिनट।’’ कहते हुए मैंने माशी की साड़ी का पल्लू खींच कर कहा, ‘‘चलिए माँ के यहाँ चलते हैं।’’

माशी की बड़ी आँखें उदासी का महासागर अपने में समोये ऊपर उठीं और उस गहन अवसाद में भी दुलार की हल्की-सी परत तिरा कर, उन्होंने मुझे देखा। उनके ओंठ हल्के से हिले, पर बिना कुछ कहे ही वापस बन्द हो गए।

अवश होकर मैंने परेश दा से कहा, ‘‘दादा! आप ही कुछ करिए ना। शिखा कह रही थी कि आप इन्हें बहुत चाहते हैं और इनके कष्ट से पीड़ित भी हैं; फिर इन्हें समझाते क्यों नहीं? कुछ करते क्यों नहीं परेश दा? प्लीज़ हेल्प मी प्लीज़, प्लीज़,’’ कहती हुई मैं फफक पड़ी।

वहाँ का वातावरण ही ऐसा था कि राह-चलता भी रो पड़े। सभी की आँखें भरी थीं। केवल माशी की आँखें ही जल-शून्य थीं, वे शायद भाव-कुभाव की दुनिया से परे जा चुकी थीं।

बहुत अनुनय करने पर परेश दा ने बताया कि ‘‘आप ही की तरह हम भी इनका दुःख देख कर बहुत आंदोलित थे। ‘कंकाल-सा शरीर’, ‘सिर पर रूखे बालों का घोंसला’; मोटी फटी-साड़ी में लिपटी इनकी यह ‘काक डरानी शक्ल’! हमें बहुत सालती थी कि एक दिन अवसर देख कर मेरी पत्नी मुझे लेकर इनके पास आई। हमने इनसे बहुत अनुरोध किया कि ये मेरे साथ मेरे दफ़्तर चली चलें। वहाँ इन्हें न कुछ करना है, न कुछ कहना है; बस, मैं दफ़्तर वालों को इनका सही परिचय देते हुए कहूँगा कि ये फलाँ बड़े अफ़सर की माँ हैं और अपने बेटे का दफ़्तर देखने आई हैं। इससे हमारे सहयोगियों की जो प्रतिक्रिया होती उससे तो आप भी अनजान नहीं हैं और अनायास ही इनका बेटा भी सुधर जाता।’’

‘‘अरे! यह तो ग़ज़ब का आइडिया था? फिर यह फेल कैसे हुआ?’’

परेश दा ने यह कहते हुए बात का समापन किया कि लेकिन माँ ने किसी की नहीं सुनी। कहने लगीं इससे मेरे बेटे का अपमान होगा और मैं जीते जी ऐसा नहीं होने दूँगी। उसकी पोजीशन बहुत बड़ी है और उतना ही व्यापक है उसका प्रभामंडल। मेरी वजह से उसमें कोई भी खरोंच आने के पहले मैं मर जाना पसंद करूँगी।

मैं भौंचक!.. पत्थर!..

हृदय के हाहाकार में बस एक ही बात गूँज रही थी-माशी! ऐ माशी! तुम कौन से लोक की प्राणी हो?

तो क्या डॉ. मुखर्जी और डॉ. बैनर्जी झूठे हैं?..क्या आज भी पुरानी कहावतें अपनी सत्यता के परचे देती हैं? क्या ‘माता न कुमाता भवति’ सच है?..क्या आज भी जब बेटा माँ का दिल निकालकर भागता हुआ ठोकर खाकर गिर पड़ता है तो उसमें से माँ की कराह भरी आवाज़ आती है- ‘‘बेटा! कहीं चोट तो नहीं लगी?’’

 

संपर्क सूत्र : 3 लाउडन स्ट्रीट, कोलकता-700017