वरिष्ठ कथाकार। अद्यतन कहानी संग्रह ‘एक और प्रेमकथा‘।
वे हाई स्कूल में शिक्षक हैं। मैंने कभी उन्हें अपने स्कूल में पढ़ाते नहीं देखा। वे जिलेभर के कई दफ्तरों में काम करते रहते हैं। कभी कलेक्टर कार्यालय में संलग्न हैं, कभी जिला पंचायत कार्यालय में अपनी सेवाएं दे रहे हैं और कभी सर्वशिक्षा अभियान के कार्यक्रम में लगे हैं। कुछ नहीं तो जिला शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में ड्यूटी बजाते हैं। शिक्षक हैं, परंतु कक्षा में पढ़ाने के अलावा कई तरह के काम करते रहते हैं।
प्रदेश में चुनाव की घोषणा हो गई। कलेक्टर कार्यालय की निर्वाचन शाखा में इन दिनों बहुत काम है। वहां सुपरिंटेंडेंट वर्मा जी हैं। वे उनके पास पहुंचे। पहुंचते ही उन्होंने चरण छूकर प्रणाम किया। वर्मा जी ने कहा भी –‘आपका इस तरह मेरे चरण छूना, मुझे अच्छा नहीं लगता। आप एक वरिष्ठ शिक्षक हैं। आइए, बैठिए।’
वे बैठते हुए बोले – ‘आप कुछ भी कहें वर्मा जी, मैं अपनी भारतीय संस्कृति को कैसे भूल सकता हूं? हमारे यहां परंपरा है कि जब भी किसी बड़े से मिलें तो उसके चरण छूकर ही प्रणाम करें। आप मुझसे उम्र में बड़े हैं। पद में बड़े हैं। जिले के सबसे बड़े कार्यालय में सुपरिंटेंडेंट हैं। इस प्रकार हर लिहाज से आप मुझसे बड़े हैं। अब ये कैसे हो सकता है कि मैं आपसे मिलूं और आपके चरण छूकर आशीर्वाद न लूं!’
वर्मा जी मुस्कराए। वे उन्हें जानते हैं। उनके स्वभाव से भी परिचित हैं। बोले – ‘कहिए, कैसे आना हुआ?
वे उत्साहित होकर बोले – ‘बस, आपसे आशीर्वाद लेने आया हूं। कल विधायक जी के यहां गया था। आपकी बड़ी तारीफ कर रहे थे। कह रहे थे निर्वाचन शाखा में वर्मा जी हैं, वो सब संभाल लेते हैं। मेहनती हैं। ईमानदार हैं। उनके रहते निर्वाचन शाखा में कोई धांधली नहीं हो पाती।’
‘विधायक जी मेरे विषय में ऐसा सोचते हैं तो यह उनकी महानता है। मैं तो एक मामूली कर्मचारी हूं।’ वर्मा जी ने कहा। वे प्रसन्न मुद्रा में फिर बोले-‘कौन कहता है कि आप मामूली आदमी हैं। आपके कारण ही यह निर्वाचन शाखा चल रही है। जिलेभर में आप जैसा मेहनती कोई सुपरिंटेंडेंट ढूंढे न मिलेगा। आप इस शाखा में हैं इसलिए सब काम विधिवत निपट जाते हैं। आप…।’
वे आगे धाराप्रवाह बोलते रहते। वर्मा जी ने बीच में ही टोक कर पूछा –‘बताइए, आपकी क्या सेवा करें?’
‘कुछ नहीं! बस, आपकी छत्रछाया में रहकर कुछ सीखना चाहता हूं। निवेदन है कि आप मुझे अपने कार्यालय में अटैच करा लें। चुनाव डिक्लेअर हो गए हैं। आपकी शाखा में बहुत काम बढ़ गया होगा। मैं आपकी मदद के लिए यहीं आपके अधीन काम करना चाहता हूं।’ वे बोले।
‘अच्छा… अच्छा, ये बात है। ठीक है एप्लीकेशन बना कर लाए हो?’ वर्मा जी ने पूछा। उन्होंने झट जेब से एप्लीकेशन निकालकर वर्मा जी के सामने रख दिया। वर्मा जी जब तक उसे पढ़ते, उन्होंने तुरंत चपरासी को कहकर सेक्सन में जितने लोग थे, सबके लिए चाय बुलवा ली।
‘ठीक है। नोटशीट के साथ मैं कलेक्टर साहब को सूचित करता हूं। ऑर्डर तो उन्हें ही निकालना है।’वर्मा जी बोले।
‘अरे, वर्मा जी! आप भी! मेरे लिए तो आप ही कलेक्टर के बराबर हैं। आपने हां कह दिया, इसका मतलब है कि ऑर्डर हो गया। मैं आता हूं कल से आपकी सेवा में।’ चपरासी टेबल पर चाय रख गया था। उन्होंने चाय का गिलास वर्मा जी के हाथ में पकड़ाया और खुद भी चाय पीने लगे।
जाते समय उन्होंने एक बार फिर वर्मा जी के पैर छुए और कहा –‘कृपादृष्टि बनाए रखिएगा।’
सचमुच, अगले दिन उनके स्कूल के प्राचार्य के टेबल पर उनका कलेक्टर कार्यालय में संलग्नीकरण का आदेश पहुंच गया। प्रिंसिपल साहब उन्हें जानते हैं कि स्कूल में उनका मन नहीं लगता। यहां ऊपरी कमाई के अवसर कहां? निर्वाचन शाखा में इस समय ज्यादा अवसर है। लाखों की खरीदी होगी। जिलेभर के कर्मचारियों का चुनाव में ड्यूटी लगाना और काटना अपने हाथ में होगा। कमाई की कमाई और रुतबा अलग से, इसलिए समय रहते उन्होंने निर्वाचन शाखा में अपना संलग्नीकरण करवा लिया। प्रिंसिपल साहब ने स्थापना बाबू को उन्हें आज ही रिलीज करने के लिए लिख दिया।
वे चैन से जिले की निर्वाचन शाखा में काम करने लगे। वहां रहते हुए उन्होंने वह सब तो किया ही, जिसके लिए वे वहां गए थे। इसके अलावा जिलेभर के बड़े अधिकारियों से उनकी जान-पहचान हुई। जैसी उनकी आदत है और उनके अनुसार भारतीय परंपरा भी कि बड़ों के चरण छूकर उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए, वे यहां रहते हुए ऐसा ही करते रहे।
तीन महीने तक वे निर्वाचन शाखा में रहे। चुनाव संपन्न हो गए। प्रदेश में नई सरकार बन गई। जिले में नए कलेक्टर पदस्थ हो गए। उन्होंने अपने कार्यालय में अतिरिक्त कर्मचारियों का संलग्नीकरण समाप्त कर दिया। वे पुन: अपने स्कूल आ गए। परंतु पढ़ाने में उनका तनिक भी मन नहीं लगता। वे फिर सोचने लगे कि अब कहां जाना चाहिए? निर्वाचन शाखा में रहते हुए उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा हो गया था। चेहरे पर अतिरिक्त लाली झलकने लगी थी। उनकी आत्मा फिर छटपटाने लगी, कहीं संलग्नीकरण के लिए।
एक दिन वे जिला पंचायत कार्यालय पहुंच गए और सीधे सी.ई.ओ. बघेल साहब से उनके कक्ष में मिले। बघेल साहब से निर्वाचन शाखा में रहते हुए उनका परिचय हो गया था। चेंबर में घुसते ही उन्होंने बघेल साहब के चरण स्पर्श किए और कहने लगे –‘सर, परसो मंत्री जी (जो विधायक थे और चुनाव जीतकर नई सरकार में मंत्री हो गए थे। मास्टर जी स्थानीय होने के कारण यदा-कदा उनके यहां हो आया करते हैं। इधर कई हफ्तों से मास्टर जी की उनसे भेंट नहीं हुई थी) के घर गया था, आपकी बड़ी तारीफ कर रहे थे। कह रहे थे, बघेल जी बहुत मेहनती और ईमानदार अफसर हैं। उनके प्रयासों के कारण मेरे क्षेत्र में ग्रामीण विकास के कार्यक्रम बहुत अच्छे चल रहे हैं।’
‘मंत्री जी को मेरी कार्यशैली अच्छी लगती है तो खुशी की बात है। वैसे तो हम जहां रहते हैं, इसी तरह काम करते हैं।… खड़े क्यों हो? आओ बैठो।’
‘सर, एक निवेदन लेकर आया था।’ उन्होंने अत्यंत विनम्रता के साथ कहा।
‘कहो… कहो, क्या काम है?’ बघेल साहब उत्साहित होकर बोले।
‘सर, आपके अधीन सर्वशिक्षा अभियान कार्यक्रम चल रहा है। मैं चाहता हूं कि आप मुझे उसमें समन्वयक के रूप में कार्य करने का अवसर प्रदान करें। बड़ी कृपा होगी।’ कहते हुए उन्होंने अपना आवेदन बघेल साहब के टेबल पर रख दिया।
बघेल साहब ने आवेदन पत्र पढ़ा। मुस्कराए फिर बोले –‘ठीक है, मुझे योग्य व्यक्तियों की जरूरत तो है। कल आपका आदेश हो जाएगा। मन लगाकर काम करिएगा। मुझे मेहनती और ईमानदार लोग पसंद हैं।’
‘सर आपको कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगा। खूब मन लगाकर काम करूंगा।’उन्होंने बघेल साहब के फिर चरण छुए और कृतकृत्य होकर उनके ऑफिस से आ गए।
दूसरे दिन उनके स्कूल में सी.ई.ओ. का आदेश पहुंच गया कि उन्हें जिला पंचायत कार्यालय में सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत समन्वयक के रूप में आगामी आदेश तक संलग्न किया जाता है।
अगले दिन वे अपने स्कूल से रिलीव होकर जिला पंचायत कार्यालय पहुंच गए। सर्वशिक्षा अभियान, प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा कार्यक्रम है, जिसके अंतर्गत जिलेभर के प्राइमरी स्कूलों में मध्याह्न भोजन की व्यवस्था चलती है। विद्यार्थियों को गणवेश सप्लाई किया जाता है। छात्रों के लिए कॉपी-किताबों और छात्रवृत्ति का वितरण होता है। और भी कई तरह की सुविधाएं स्कूल और स्कूली छात्रों के लिए जिला पंचायत कार्यालय द्वारा प्रदान की जाती हैं। एक बड़े कार्यक्रम के अंतर्गत अपना संलग्नीकरण कराके वे बहुत संतुष्ट हुए।
स्कूल में उनके साथी शिक्षक उनकी प्रतिभा देखते हुए अभिभूत हैं। वे अपने स्कूल से तनख्वाह लेते हैं और स्कूल का कोई काम नहीं करते। प्राय: कहीं-न-कहीं संलग्नीकरण में रहते हैं। जिले का हर छोटा-बड़ा अफसर उन्हें अच्छी तरह जानता है। बहुत लोगों को तो पता ही नहीं है कि ये किसी स्कूल में शिक्षक की नौकरी में हैं। अधिकांश लोग तो यही समझते हैं कि ये कलेक्टर कार्यालय के स्टाफ हैं।
कुछ महीनों पश्चात बघेल साहब का ट्रांसफर हो गया। उन्होंने उनके सम्मान में अपनी तरफ से शानदार पार्टी दी। उनका सामान पहुंचाने वे ट्रक के साथ प्रदेश के कोने में दूसरे जिले तक गए। बघेल साहब उनकी सेवा से बहुत प्रसन्न हुए। यहां जब उनके मित्रों ने पूछा कि अब तो बघेल साहब दूसरे जिले में चले गए, फिर तुमने उनके लिए इतना कष्ट क्यों उठाया? उन्होंने अपनी नीति समझाई। कल को बघेल साहब कलेक्टर बनेंगे। अपने जिले में भी आ सकते हैं। सचिवालय में भी गए तब वहां कोई काम पड़ गया तो, उनसे परिचय काम आएगा। यहां नए सी.ई.ओ. खरे जी पदासीन हुए। सबसे पहले उनकी सेवा में ये ही हाजिर हुए। बहुत जल्द उन्होंने खरे जी को भी प्रभावित कर लिया। अब सर्वशिक्षा अभियान में वे सर्वेसर्वा थे। उनकी मर्जी के बिना वहां एक पत्ता नहीं हिलता था। वे एक अफसर की तरह वहां कार्य कर रहे थे। लगभग डेढ़ साल उन्होंने वहां अपनी सेवाएं दीं। फिर राजधानी से सर्वशिक्षा अभियान में समन्वयक की स्थाई पोस्टिंग हो गई। कोई श्रीवास्तव जी अपना आदेश लेकर कार्यालय में उपस्थित हुए और उनको जिला पंचायत कार्यालय से रिलीव होना पड़ा।
एक हफ्ते पश्चात ही उन्होंने अपने आपको जिला शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में संलग्न करा लिया। यह तो उनका अपना विभाग था। जिले भर के सारे शिक्षकों का लेखा-जोखा, इसी कार्यालय में रहता है। हर किसी का बड़े ऑफिस में कोई-न-कोई काम है। उनसे जूनियर और समकक्ष शिक्षक तो ठीक, उनसे सीनियर शिक्षक तक आए दिन उन्हें सलाम करते रहते। उन्हें लगता कि पूरे जिले के शिक्षक उनके अधीन हैं। वे एक अफसर की तरह व्यवहार करते। उनके भीतर का शिक्षक, जो पता नहीं था भी कि नहीं, जाने कहां विलीन हो गया।
पांच सितंबर को दिए जाने वाले राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार के लिए जिले से नाम प्रस्तावित किए जाने थे। इन्होंने अपने प्रिंसिपल को ढेर सारे प्रमाणपत्रों के साथ आवेदन दिया। वे जिस बड़े कार्यालय में संलग्न रहते, वहां से रिलीव होते समय उस कार्यालय के बड़े अफसर से एक प्रमाणपत्र जरूर ले लेते, जिसमें लिखा रहता कि ये बहुत मेहनती, ईमानदार और कुशल शिक्षक हैं। इस प्रकार उनके पास कई प्रमाणपत्र जमा हो गए थे। उनका आवेदन प्राचार्य महोदय ने जोरदार अनुशंसा के साथ जिला शिक्षा अधिकारी को प्रेषित कर दिया। इस कार्यालय में वे स्वयं विराजमान थे। यहां कोई दिक्कत नहीं हुई। जिला शिक्षा अधिकारी ने बहुत अच्छी टिप्पणी के साथ उनके आवेदन को कलेक्टर कार्यालय प्रेषित कर दिया। वे कलेक्टर ऑफिस में पहले कार्य कर चुके थे, वहां से अनुशंसा सहित आवेदन राजधानी के उच्च कार्यालय पहुंचाने में उन्हें विलंब नहीं हुआ। मंत्री जी के यहां उनका यदा-कदा आना-जाना था ही। उनका अनुशंसा पत्र भी उन्होंने सहजता से प्राप्त कर उच्च कार्यालय को भिजवा दिया। साल भर बाद जब नए जिला शिक्षा अधिकारी आ गए और उनके स्थान पर किसी व्यक्ति की स्थाई नियुक्ति हो गई, तब वे उस कार्यालय से मुक्त हुए।
अभी उनको अपने स्कूल में आए हुए महीना भर भी नहीं हुआ था कि उनका मन किसी बड़े ऑफिस में जाने के लिए फड़फड़ाने लगा। स्कूल में नए प्राचार्य आ गए थे, उनसे उनकी पटरी न बैठ पा रही थी। पूर्व प्राचार्य शर्मा जी उनके बड़े प्रशंसक थे। इधर नए प्राचार्य ने जब उन्हें स्कूल में कुछ दिनों तक अनुपस्थित पाया, तब एक दिन अपने कक्ष में बुलाकर उनसे पूछा – ‘आजकल कहां रहते हैं आप?’
वे हँसते हुए बोले – ‘आपके श्रीचरणों में।’ प्राचार्य महोदय को कुछ समझ में नहीं आया। उन्होंने गंभीरतापूर्वक पूछा –‘आखिर आप चाहते क्या हैं? स्कूल क्यों नहीं आते?’
‘आपका आशीर्वाद चाहता हूं सर। मंत्री जी अक्सर बंगले पर बुला लेते हैं, इसलिए स्कूल नहीं आ पाता।’वे अतिरिक्त विनम्रता के साथ बोले।
‘अच्छा, आप कौन से ऐसे महत्वपूर्ण अभियान में लगे हैं, जिसके लिए मेरे आशीर्वाद की जरूरत आ पड़ी? और मंत्री जी तो एक महीने से राजधानी में हैं। विधानसभा का सत्र चल रहा है। यहां बंगले पर तुम्हें कौन बुला लेता है?’ प्राचार्य ने नाराज होते हुए पूछा।
वे सकपका गए। मंत्री जी वाला दाव खाली गया। वे संभल कर बोले – ‘सर, नाराज होना भी कोई आपसे सीखे। अंदर से आप कितने स्नेहिल हैं। जिसे डांटते हैं, उसकी भावनाओं का पूरा ख्याल रखते हैं। आप तो नारियल की तरह हैं, ऊपर से कड़े, भीतर से मुलायम। कितने महान हैं आप। मैं तो आपका कायल हो गया। आपके चरणों की धूल चाहिए बस।’इतना कहकर वे प्राचार्य महोदय के चरण छूने के लिए लपके। प्राचार्य महोदय ने पैर पीछे कर लिए और उन्हें डांटा –‘आप बिलकुल नकारा आदमी हैं। कल से नियमित स्कूल आइए और अपनी कक्षाओं में छात्रों को पढ़ाइए। समझे! जाइए अब।’
उनका स्कूल में मन नहीं लग रहा था। आत्मा छटपटा रही थी किसी बड़े कार्यालय में जाने के लिए। प्रिंसिपल उन्हें रोज बुलाकर डांटते। आए दिन स्कूल न आने और देर से आने का उनसे स्पष्टीकरण मांगा जाता। वे प्रिंसिपल को बहुत समझाने की कोशिश करते, परंतु उन पर कोई असर न होता। जिले में कलेक्टर, जिला पंचायत सी.ई.ओ. और जिला शिक्षा अधिकारी बदल गए थे, वरना वे किसी से भी अपने प्राचार्य को फोन करवा देते, तब प्राचार्य की बोलती बंद हो जाती। मंत्री जी वाला जादू भी यहां काम नहीं आया। कुछ दिनों पश्चात प्राचार्य जी ने एक दिन उन्हें अपने कक्ष में बुलाया।
प्रेमपूर्वक उन्हें सामने की कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। वे समझ गए कि आज स्कूल में डाक से विधिवत सूचना आ गई है। उन्हें पूर्व में ही जानकारी मिल चुकी थी, परंतु उन्होंने किसी से कहा न था। प्राचार्य जी ने लिफाफे से एक सरकारी पत्र निकाल कर उन्हें देते हुए कहा – ‘आपको बहुत-बहुत बधाई।’
उन्हें पहले से मालूम था कि ‘राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार’ के लिए उनके नाम का चयन हो गया है, यह उसी का पत्र था। उन्होंने आश्चर्यमिश्रित स्वर मे कहा – ‘सर, आपके आशीर्वाद का फल है’ और लपक कर उन्होंने प्रिंसिपल साहब के चरण पकड़ लिए। प्रिंसपल साहब ने उन्हें दोनों हाथों से उठाया और मुस्करा कर कहा – ‘सचमुच, आप एक महान शिक्षक हैं।’
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शिक्षा की गुणवत्ता कहां से कहां पहुंच गई है अपने देश में, इस पर अगर सोचने बैठा जाए, तो आदमी पागल ही हो जाए ! लेकिन कहानीकार इक ऐसा जीव होता है जो पागल कर देने वाली परिस्थितियों में भी रचनात्मक अभिव्यक्ति के अवसर तलाश लेते हैं और सच को अपने कलात्मक अंदाज में इक बेहतरीन कहानी का स्वरूप देते हैं । शिक्षा व्यवस्था के पतनशीलता तो चिंतनीय है ही लेकिन विडम्बना देखिए कि हमारे शिक्षक भी आज शिक्षण – प्रशिक्षण के बजाय कुछ और ही कर रहे हैं। अश्वनी कुमार दुबे अपनी कहानी * महानता में इक वरिष्ठ शिक्षक की जो कथा कही है उसे पढ़कर कोई अजगुत ( आश्चर्य ) नहीं हुआ है । आज शिक्षक अपने पद की गरिमा को पूरी तरह से भुला बैठे हैं और प्रशासनिक अधिकारियों की खुशामद से ऊपरी कमाई के अवसर तलाशने में संलग्न हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि पैरवी और पैगाम के मार्फ़त उस शख्स को ही महान शिक्षक का खिताब मिला जिसे कभी कक्षाओं में बच्चों को पढ़ाने में मन नहीं लगा !
बहुत सुंदर कहानी। ऐसा लगता है कि लेखक ने इसे बहुत पास से देखा है। इतनी अच्छी आंखें खोलने वाली कहानी लिखने के लिए लेखक को साधुवाद।