कवि और आलोचक। अद्यतन कविता संग्रह‘लौटता हूँ मैं तुम्हारे पास’।
आठवें दशक से अपनी काव्य यात्रा प्रारंभ करने वाले प्रगतिशील धारा के वरिष्ठ कवि राजेश जोशी का छठवां और नवीनतम काव्य संग्रह ‘उल्लंघन’, नौवें दशक के बाद के कवियों में अपना एक अलग स्थान बनाने वाले कुमार अंबुज का नया और सातवां काव्य संग्रह ‘उपशीर्षक’, इधर के कवियों में चर्चित अनिल करमेले के दूसरे काव्य संग्रह ‘बाकी बचे कुछ लोग’, अपनी कविताओं को लेकर एक अलग पहचान बनाने वाली कवयित्री रश्मि भारद्वाज के नवीनतम काव्य संग्रह ‘मैंने अपनी मां को जन्म दिया है’ तथा युवा कवयित्री पूनम वासम के पहले काव्य संग्रह ‘मछलियां गाएंगी एक दिन पंडुम गीत’ को एक साथ पढ़ना हिंदी की समकालीन काव्यधारा को एक हद तक समझना है।इस दौर में वरिष्ठ कवि राजेश जोशी से लेकर कुमार अंबुज, अनिल करमेले, रश्मि भारद्वाज और पूनम वासम जैसे कवि एक साथ सक्रिय हैं।
ये कवि अंतर्वस्तु और शिल्प की दृष्टि से आपस में भले भिन्न हों, पर सबके यहां यथार्थ को देखने-समझने की समान बेचैनी है।ये कवि हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा को न केवल एक नया परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं, बल्कि विस्तार भी देते हैं।सबके यहां अनुभव का अपना-अपना अलग संसार है, समय की चुनौतियों से टकराने का अलग अंदाज भी।ये सभी अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल एक प्रति-संसार रचने की कोशिश करते हैं, बल्कि अपने-अपने तरीके से प्रतिरोध का संसार भी निर्मित करते हैं।
मैं एक ऐसे समय का नागरिक हूँ |
राजेश जोशी ‘उल्लंघन’ तक आते-आते जैसे अपने अब तक के अर्जित काव्य संवेदन का उल्लंघन करने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं।यहां कविताओं में अंतर्निहित मानवीय करुणा और संवेदना का एक नया विस्तार दिखाई देता है, साथ ही प्रतिरोध का स्वर कुछ अधिक तीव्र हुआ है।इन कविताओं में प्रश्नाकुलता के साथ अपने समय को लेकर एक गहरा संशय भी दृष्टिगोचर होता है।वे इस समय को लेकर न आश्वस्त हैं न भावशून्य।उनमें आसन्न संकट को लेकर एक गहरी व्याकुलता है।इन कविताओं में वर्तमान भयावह समय से मुठभेड़ की छटपटाहट साफ साफ दिखाई देती है।कविता उनके लिए उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है, जो जन-विरोधी हुकूमत को ठेंगा दिखाना जानती है:
मैं एक कवि हूँ
और कविता तो हमेशा से ही एक हुक्म उदूली है
हुकूमत के हर फरमान को ठेंगा दिखाती
कविता उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है
इस संग्रह की कविताएं पहले से भिन्न इसलिए भी हैं कि ये मनुष्य-विरोधी समय में, जब नागरिकता को लेकर भी तरह-तरह के सवाल खड़े किए जा रहे हैं, वे यह कह सकने का साहस रखती हैं :
भूल जाने की मेरी इस आदत ने
शक के घेरे में ला खड़ा किया है मुझे
मेरे पास न मेरी जाति का प्रमाण पत्र है
न किसी धर्म की कोई पहचान
मैं शायद टोबा टेक सिंह का बिशन सिंह हूँ
जो कुछ अटपटे वाक्यों को बुदबुदाता हुआ
अपनी नागरिकता ढूंढ रहा है
(एक भुलक्कड़ नागरिक का बयान)
इस काव्य संग्रह में ऐसी अनेक कविताएं हैं जो हमसे गंभीर विमर्श की मांग करती हैं और हमारे समय में हो रही त्रासदी से हमारा साक्षात्कार करवाती हैं।उस भाषा को बोलने वाली अंतिम बूढ़ी स्त्री से न केवल हमारा परिचय करवाती हैं, बल्कि भाषा और बोलियों के मरने पर सवाल भी खड़ी करती हैं:
मैं एक ऐसे समय का नागरिक हूँ
जहां हर दिन हमारी आंखों के सामने
आपस में बोलने बतियाने की भाषाएं
मर रही हैं
(उस भाषा को बोलने वाली अंतिम बूढ़ी स्त्री)
राजेश जोशी का यह काव्य संग्रह समकालीन हिंदी काव्य में अलग से रेखांकित किया जाने वाला एक उल्लेखनीय काव्य संग्रह है, जिससे उनकी कविताओं में आ रहे परिवर्तन और उनके काव्य रसायन की खूबियों को भलीभांति जाना जा सकता है।कहना न होगा कि राजेश जोशी अपनी अंतर्वस्तु और शिल्प को लेकर हमारे समय के एक बेहद सावधान कवि ही नहीं हैं, बल्कि इस भयावह दौर में अपनी तरह से हस्तक्षेप करने वाले एक महत्वपूर्ण कवि भी हैं।
जिज्ञासा : ‘उल्लंघन’ तक आते-आते आपने कई तरह के उल्लंघन अपनी कविताओं की अंतर्वस्तु से लेकर शिल्प और भाषा तक में किए हैं।क्या इस तरह का उल्लंघन एक कवि के लिए जरूरी है?
राजेश जोशी : कविता ही नहीं किसी भी तरह की सृजनात्मकता, पहले से तय किए गए नियमों और मानकों का उल्लंघन करती है।यह जरूरी है या नहीं, यह नहीं पता, लेकिन कविता या कोई भी सृजनात्मक कला ऐसा करती है।वह शिल्प के बने बनाए सांचों को तोड़ती ही नहीं है, नए सांचे भी बनाती है।यही बात किसी रचनाकार की अलग पहचान बनाती है।भाषा को, उसकी भंगिमाओं को भी एक रचनाकार हर बार बदलता है।कुल जमा यह कि कविता उल्लंघन की एक सतत प्रक्रिया है।
जिज्ञासा : इधर आपकी कविताओं में प्रतिरोध का स्वर पहले से कहीं अधिक तीव्र हुआ है।खासकर अबू हसन, रोशनी, एक भुल्लकड़ आदमी का बयान जैसी कविताओं में।ऐसा क्यों है कि हर बार कविता ही सबसे पहले प्रतिरोध के लिए सामने आती है?
राजेश जोशी : किसी भी समय की रचना या कला में प्रतिरोध का स्वर एक तरह का बेरोमीटर है।वह बताता है कि आपकी सत्ता का चरित्र कैसा है।सत्ता जितनी दमन की ओर अग्रसर होगी, जितनी वह मनुष्य की अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करेगी, समाज में लोकतांत्रिक स्पेस जिस अनुपात में कम या ज्यादा होगा, रचना में प्रतिरोध का स्वर उसी अनुपात में तीव्र होता जाएगा।हिटलर के अत्याचार ही चार्ली चैप्लिन और ब्रेख्त को पैदा करते हैं।
जिज्ञासा : यह कविता पिछली कविता का पुनश्च है- जैसी पंक्ति आप ही लिख सकते हैं।इस तरह आप अपनी कविताओं को पूर्वज काव्य परंपरा से भी जोड़ने का उपक्रम करते हैं।ऐसा क्यों?
राजेश जोशी : इलियट और नेरूदा ने भी कहा है कि मौलिकता जैसी कोई चीज नहीं होती।जो कुछ हम कह रहे हैं, वह पहले भी कहा जा चुका है।जिस भाषा को हम इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन शब्दों को हम इस्तेमाल कर रहे हैं, वो हमारे से पहले हजारों बार इस्तेमाल किए जा चुके होते हैं।लेकिन एक रचनाकार पहले भी कई बार कही जा चुकी बात को अपने समय और अपनी सामाजिक जरूरतों के अनुसार एक बार फिर, नए ढंग से कहता है।यह नयापन उसे उसके समय और सामाजिक आवश्यकताओं से मिलता है।
इसलिए हर रचना पहले की रचना से जितनी अलग और नई होती है उतनी ही वह पहले की रचना का पुनश्च भी होती है।
जब कलाएं झूठ रखने के लिए |
कुमार अंबुज नौवें दशक के बाद के एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा को मौलिक काव्य मुहावरे से समृद्ध किया है।वे अपने समय के यथार्थ को भिन्न दृष्टि से देखने और उसे एक अलग काव्य मुहावरे में अपनी कविताओं को रचने वाले हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं।वे अपनी अलग तरह की अंतर्वस्तु के लिए ही नहीं, बल्कि नए तरह के शिल्प के आविष्कार के लिए भी जाने जाते हैं।अपने नए काव्य संग्रह ‘उपशीर्षक’ तक आते-आते वे पहले से अधिक व्यग्र, कहीं अधिक उद्विग्न दिखाई देते हैं।हमारे समय की क्रूरता को लेकर उनकी कविताओं में एक सघन वैचारिक ताप है।उनकी कविताएं जैसे किसी गहरे अंतर्द्वंद्व के फलस्वरूप विचारों के सघन आलोक में पुनर्सृजित होती हैं।
कुमार अंबुज बाहरी यथार्थ से ही नहीं, अपने भीतर के संचित अनुभवकोष से भी लगातार गहरी मुठभेड़ करते रहते हैं।कविता दोहरे स्तर पर मुठभेड़ की परिणति है।यहां कवि एक क्रिया हैः
महज संज्ञा नहीं, सर्वनाम नहीं
विशेषण, अलंकार नहीं
कवि क्रिया है
जब तुम उससे बात करते हो
तो अनेक लोगों से बात करते हो
तुम्हें लगता है वह कोई निजी बात कह रहा है
लेकिन वह कई लोगों की तरफ से बोलता है
वह बहुवचन है अव्यय है समास है संधि है।
(कवि व्याकरण)
अपने असाधारण काव्य अवययों को कुमार अंबुज उसी असाधारणता के साथ एक ऐसी काव्यभाषा में संभव करने की कोशिश करते हैं जिसका अपना एक सौंदर्य है।
हिंदी में बहनों पर लिखीं बहुत कम कविताएं देखने को मिलती हैं।उनमें से याद रखने वाली कविताएं और भी कम हैं, असद ज़ैदी की कविताओं को छोड़कर।कुमार अंबुज की ‘ब्याहता बहनें’ बहनों को लेकर लिखी गई एक महत्वपूर्ण कविता है।यह मर्मस्पर्शी है।कुछ पंक्तियां हैं:
भाइयों को यह वर्षों बाद
पता चलता कि जिन घरों में
बहनों को दिया गया
वे घर तमाम मुसीबतों से भरे हुए थे
और बहनों पर यह जिम्मेदारी आयद हुई
कि वे सविनय उद्यम के साथ उन घरों को
सहने रहने लायक बनाती रहें।
(ब्याहता बहनें)
इनकी कविताओं में मानव-जीवन और समाज को लेकर एक खास अंतर्द़ृष्टि है।ज्ञान और संवेदना का अपना एक अलग रसायन।उनके यहां कविता बिना विचारों के संभव नहीं है।ठोस और सघन विचारों की छाया उनकी कविताओं की अंतर्वस्तु में अंतर्ग्रथित होकर आती है।इस संग्रह में कुमार अंबुज की एक लंबी कविता ‘शोक सभा’ है।यह अद्भुत कविता है, अपने विन्यास में असाधारण।यह आज के समय और समाज का एक नग्न और बीभत्स रूपक प्रस्तुत करती है :
अब कलाप्रिय कलाकारों को चाहिए कि यथार्थ को
इस तरह पेश करें कि जीवन उतना खतरनाक न दिखे
जितना वह दरअसल है
इस तरह वह युग आता है
जब कलाएं झूठ रखने के लिए
बन जाती हैं सबसे सुरक्षित संदूक
प्रतिरोध के शिल्प में गाए जाते हैं प्रशंसा गीत।
(शोक सभा)
कुमार अंबुज का नवीनतम काव्य संग्रह ‘उपशीर्षक’ कई दृष्टि से एक उल्लेखनीय काव्य है।यह कवि को एक भिन्न दृष्टि से देखने की मांग करता है।
जिज्ञासा : प्रारंभ से ही आप अपनी अंतर्वस्तु और शिल्प को लेकर बेहद गंभीर रहे हैं।यथार्थ को लेकर भी आप बेहद चौकन्ने हैं।मुझे लगता है कि कविता आपके लिए एक स्वांत: सुखाय निजी कर्म से कहीं अधिक राजनीतिक कर्म है।आप इस पर क्या टिप्पणी करना चाहेंगे?
कुमार अंबुज : शायद यह सब अभिव्यक्ति के लिए आत्मसंघर्ष का हिस्सा और उसका परिणाम हो सकता है।और उस निगाह का जिससे हम अपने आसपास और पूरी दुनिया को देखने का परिप्रेक्ष्य हासिल करते हैं।सबके और अपने होने को महसूस करते हैं।किसी का भी सच्चा दुख अकेले का दुख नहीं है।उसकी एक सार्वजनिकता और सामाजिकता होती है।सुख भी सापेक्ष है।सुख, दुख को आप अकेला छोड़ देंगे तो वे अनाथ और लाइलाज़ बने रहेंगे।यही हाल मुश्किलों का, खुशियों का और अवसाद का है।जैसे ही दृष्टिसंपन्न कला या कविता उन्हें संबोधित करती है, उनके भीतर झांकती है, उन्हें व्यापक करती है, या उनकी कलागत शल्य क्रिया करती है तो स्वयंमेव एक राजनीतिक अवस्थिति भी प्रकट होने लगती है।आत्म को यथार्थ का सामना करना पड़ता है।जो यथार्थ से बचना चाहते हैं, वे साहित्य, भाषा, कला और इनसे संलग्न दायित्वों से किनारा कर लेते हैं।
जिज्ञासा : आप भाषा के बरताव को लेकर बेहद सतर्क हैं।विषय का वैविध्य भी आपके यहां है।कविता आपके लिए किस तरह का कर्म है?
कुमार अंबुज : दुनिया के तमाम कवियों ने बताया है कि कविता के लिए विषयों की कमी कोई समस्या नहीं है।उनकी अधिकता और उनमें से चुनाव को लेकर ही मुश्किलें हैं।मुक्तिबोध का ही महान, मार्गदर्शी वाक्य है : ‘जीवन विवेक ही काव्य विवेक है।’ तदनुसार मेरी कोशिश है कि जीवन में आंखें खुलीं और दृष्टि साफ रहे।भाषा और शिल्प इसी प्रक्रिया में अपनी भूमिका तय कर लेते हैं।यह एक अपरिभाषेय, सायास अनायासिता है।
राइनेर मारिया रिल्के का यह प्रश्नात्मक वाक्य याद दिलाने के लिए अनवरत काम आता है- ‘अपने और नीरव रात के नितांत एकांत में खुद से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाए तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे?’ अभी तक मेरा उत्तर है : ‘नहीं’।
जिज्ञासा : आपके काव्य संग्रह में आपकी कविताओं के विषय में कहा गया है कि ‘व्यापक आशयों की इन रचनाओं से गुजरते हुए समाज एवं मनुष्य के प्रति असीम चिंता और लगाव को महसूस किया जा सकता है।यही इन कविताओं का आख्यान और इनका वास्तविक उपशीर्षक भी है’।इस संबंध में आपकी राय क्या है?
कुमार अंबुज : समाज में जो चीजें, संकट और घटनाएं शीर्षक की तरह होना चाहिए, इधर उन्हें ओट में रखा जा रहा है।किसी वक्तव्य, झूठ, मनोरंजक दृश्य, प्रचार, गौरव, हत्या, गुंबद, मुकदमे या कोलाहल की ओट में।कई बार तेज रोशनी, रंगीन पोस्टर, गर्भगृह, नए नामकरण, संवेदी सूचकांक या दीवार की आड़ में।इसलिए ‘उपशीर्षक’ भी इन अन्यथा शीर्षकों और अनावश्यक पंक्तियों की ओट में रख दिए गए हैं।लगातार अपदस्थ किए जा रहे हैं, जबकि ये ही हमारे समय के मुख्य सरोकार, आख्यान और शाीर्षक हैं।यह विडंबना है, लेकिन है।
बार बार लौटा हूँ उस दर से |
इधर के कुछ वर्षों में अपनी कविताओं को लेकर एक अलग पहचान बनाने वाले अनिल करमेले के नवीनतम काव्य संग्रह ‘बाकी बचे कुछ लोग’को पढ़ना कवि के उस अनुभव संसार से गुजरना है जो उसके काव्य विवेक को समझने में हमारी मदद करता है।इनके यहां कविता निजी और समष्टि के बीच आवाजाही करती दिखाई देती है।अपने समय और समाज के लिए चिंतातुर उनकी कविताएं अपने भीतर भी जैसे बहुत कुछ समेट लेने के लिए आतुर दिखती हैं।
कवि इस बेहद निराशा और आपाधापी के दौर में आखिरी उम्मीद की तरह बने रहना चाहता है।वह स्वाद की तरह लोगों की स्मृतियों में रहना चाहता है, नमक की तरह हमारे जीवन में अपनी उपस्थिति को बचाए रखना चाहता है :
मैं इस तरह रहूं
जैसे बची रहती है आखिरी उम्मीद
मैं स्वाद की तरह रहूं लोगों की यादों में
रहूं जरूरत बनकर नमक की तरह।
(मैं इस तरह रहूं)
अनिल करमेले के यहां सपनों की लड़कियां एक दूसरे रूप में उपस्थित हैं।कवि अपनी सारी करुणा इन लड़कियों पर उड़ेल देना चाहता है।ये ऐसी दुनिया से आती हैं, जो एक वास्तविक और उजाड़ दुनिया है :
मैंने प्यार किया उन लड़कियों से
जिनके नाखून
लगातार बर्तन मांजने से काले पड़ गए थे
और काटने की उन्हें फुर्सत नहीं थी
जिनकी एड़ियां फटी हुई थीं।
(सपनों की लड़कियां)
अनिल करमेले के इस संग्रह में अपने समय के यथार्थ को लेकर कवि की चिंता का ग्राफ बढ़ा है।अंतर्वस्तु और शिल्प को लेकर भी सतर्कता दिखाई देती है और अपने समय को लेकर एक गहरा संशय भी है :
बार बार लौटा हूँ उस दर से
जहां मुझे नहीं जाना चाहिए था
वहां कभी पहुंच नहीं पाया
जहां मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी।
(रोशनी)
अनिल करमेले का यह काव्य संग्रह समकालीन हिंदी कविता के मिजाज को समझने में हमारी मदद करता है।इधर के कवि अपने समय के यथार्थ को किस तरह से देख पा रहे हैं और किस तरह उनकी कविताएं आज के यथार्थों के साथ अंतर्क्रिया कर रही हैं, इसकी काफी हद तक जानकारी मिल सकती है।
जिज्ञासा : आपकी कविताओं के बारे में कुमार अंबुज ने लिखा है कि ‘आपने तमाम घटनाओं के प्रभावों, व्यग्रताओं और मुश्किलों को कविता में संभाल कर रख दिया है’।एक कवि के रूप में हमारे इस कठिन समय को आप किस तरह देखते हैं?
अनिल करमेले : हमारा यह समय क्रूर, अमानवीय और जटिल हो गया है।सामान्य मनुष्य जीवित रहने के लिए कठिन संघर्ष में है।स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसी मूलभूत जिम्मेदारी से राज्य ने अपने आपको मुक्त कर लिया है, इसलिए अब ये क्षेत्र शोषक पूंंजीपतियों के हाथों में हैं।नागरिक जीवन रोज कठिन होता जा रहा है।हमारे समय में पूंजी और राजनीति का गठजोड़ भयावह है।हमारे सामने राज्य समर्थित सांप्रदायिकता, रोजगार का अभाव और गरीबी बड़ी चुनौतियां हैं।समाज से सहिष्णुता का क्षरण होता जा रहा है।सहनशीलता या जिसे हम परस्पर क्षमाशील व्यवहार कहते हैं, वह अब मुश्किल है।कलाओं की दुनिया भी लगातार सिकुड़ती जा रही है।रचनात्मकता और अभिव्यक्ति पर पहरे हैं।ऐसे समय में एक कवि-लेखक किस तरह जनपक्ष को व्यक्त करे और अपने नागरिक दायित्व को पूरा करे, यह एक बड़ा सवाल है।
जिज्ञासा : दुख कविता की एक काव्य पंक्ति है ‘कितना गुस्सा है आसपास और कविता कितनी रूमानी’।क्या इसे समकालीन हिंदी कविता की त्रासदी के रूप में देखा जाना चाहिए?
अनिल करमेले : समकालीन हिंदी कविता का बृृहत्तर हिस्सा रूमानियत की गिरफत में है।स्पष्ट वैचारिक सोच और जनपक्षधर समझ का अभाव है।वह चेतना जो मनुष्य के पक्ष में बेचैनी पैदा करे और हृदय को मथ कर रख दे, लगातार क्षीण होती जा रही हैै।जब मैं रूमाानियत कह रहा हूँ तो इसका अर्थ सिर्फ प्रेम पर लिखी जा रही कविताओं से नहीं है।प्रेम कविताएं भी अर्थवान होती हैं।
आज की अधिकांश कविताएं जीवन तथा समाज और राष्ट्र-राज्य की वास्तविक स्थिति और उनके अंतर्संघर्षों को बयान नहीं करती हैं।वे ऐसी तस्वीरें सामनेे नहीं लाती हैं जिनसे देशकाल और परिस्थतियों को समझा जा सके।वे कविताएं जो अपने समय को बयान करने में असमर्थ होती हैं, उनसे सिवाय मनोरंजन के कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता।
जिज्ञासा : प्रेम के कई रंग आपकी कविताओं में मौजूद हैं।आखिकार बार-बार हमारी कविताओं को प्रेम की ओर ही क्यों लौटना पड़ता है?
अनिल करमेले : जाहिर है जीवन की जटिलताओं और संघर्षों से निकलने जूझने के लिए प्रेम मनुष्य जीवन की थाती है।उसके सहारे वह जीवन की खोती जा रही और नष्ट होने के कगार पर पहुंची चीजों को संभालने का यत्न करता है।मनुष्य की पहली कमाई शायद प्रेम ही होती है।वह अपने कठिनतम दौर में इसकी छाया में ऊर्जा पाकर नए संघर्षों के लिए तैयार होता है।विश्व साहित्य में नेरूदा और निज़ार क़ब्बानी प्रेम कविताओं के बड़े उदाहरण हैं, जिनमें उनके समय की सच्ची तस्वीरें देखी जा सकती हैं।मुझे लगता है इस तरह कविताओं में कभी-कभी प्रेम की ओर लौटना सार्थक होता है।
तमाम सूखे दिनों के बीच भी |
रश्मि भारद्वाज एक संभावनाशील कवयित्री हैं।उनका काव्य संग्रह ‘मैंने अपनी मां को जन्म दिया है’इस संभावना को पुष्ट करता है।उनकी कविताएं स्त्री विमर्श या तथाकथित स्त्रीवाद के दायरे से बाहर हैं।वे विमर्श या पाठ का एक नया काव्य व्याकरण गढ़ती प्रतीत होती हैं।वह एक अलग काव्य मुहावरा ही नहीं, एक अलग प्रति-संसार भी निर्मित करती हैं।कविताओं में जीवन की जटिलता के अनेक चित्र उपस्थित हैं।यथार्थ की अनेक धूसर छवियां हैं जो अंतर्निहित मानवीय उदासी और अवसाद के विविध रंगों को प्रकट करती हैं।एक बेचैन और लगभग संशय से भरा हुआ मन इन कविताओं में बार-बार दृश्यमान होता दिखाई देता है।
हमारे समय की व्याकुलता के ढेर सारे धूसर रंग उनकी कविताओं के नाभिक में बार-बार होते हैं।जो है उसका लगभग निषेध या प्रतिकार करते हुए, जो होना चाहिए उसका एक नया भाष्य रचते हुए।
रश्मि भारद्वाज की कविताएं एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य में आती-जाती हुई दिखाई देती हैं।उनके यहां जो भी सुंदर और श्रेष्ठ है उसे हर हाल में बचा लेने की गहरी जिद भरपूर है।स्त्री का संघर्ष और स्वप्न, उसकी असमर्थता और कामना, यातना और त्रासदी की एक लंबी श्रृंखला उनकी कविताओं में अंतर्ग्रथित है।अपने स्त्री होने के अभिशाप को ढोते जाने का दुख और अपमान उनकी कविताओं का स्थापत्य निर्मित करते हैं।
‘आत्मा की रोशनाई’ में रश्मि भारद्वाज ने स्त्री मन को खुलकर अभिव्यक्त किया है।वे स्त्री के भय, संशय और अव्यक्त प्रेम सबकुछ को जैसे एक नए परिप्रेक्ष्य में उद्घाटित कर देना चाहती हैं :
जो शब्द कागज पर नहीं लिखे जा सके
उन्हें मन में लिखा गया
वे किसी अज्ञात ईश्वर को समर्पित
नि:शब्द प्रार्थनाएं थीं
जिनमें समाहित थे हमारे सारे भय
संशय और
अव्यक्त प्रेम।
(आत्मा की रोशनाई)
केदारनाथ सिंह की स्मृति में लिखी गई उनकी कविता में केवल हमारे समय के एक बड़े कवि की स्मृति नहीं है, बल्कि उसके काव्यविवेक का भी एक विलक्षण चित्र है :
लेकिन सदियों बाद भी कभी
उसकी कविताओं से गुजरता कोई जानेगा
कि जिंदा शब्दों में होती है कितनी आंच
जब वह पेड़ पढ़ेगा तो लहरा उठेगा
एक झूमता हरा पेड़
तमाम सूखे दिनों के बीच भी
जब वह पढ़ेगा पानी
तो जानेगा कि कितना जरूरी है आज
बचाए रखना अपनी आंखों का पानी।
(एक कवि के चले जाने के बाद)
रश्मि भारद्वाज की कविताओं में स्त्री की विविधवर्णी छवियां हैं।एक अहंकारग्रस्त पुरुष प्रधान समाज में स्त्री होने की पीड़ा को केवल स्त्री ही समझ सकती है, जो रात-दिन इस यातना से गुजरती है।इसलिए उसे कहना पड़ता है :
उस स्त्री का गर्वोंन्नत शीश
नत होगा स़िर्फ तुम्हारे लिए
जब उसे ज्ञात हो जाएगा
कि उसके प्रेम में
सीख चुके हो तुम स्त्री होना।
(प्रेम में स्त्री)
किसी स्त्री के प्रेम में स्त्री होना एक विलक्षण अनुभव है।यह पुरुषोचित दंभ का टूटना भी है।क्या बिना स्त्री हुए प्रकृति को, जीवन को समझ पाना सरल है? रश्मि भारद्वाज का यह काव्य संग्रह एक स्त्री के स्वप्न और संघर्ष की अंतर्कथा ही नहीं है, एक स्त्री के अपने प्रतिरोध का दस्तावेज भी है।उनकी कविताएं जीवन की जटिलता और बीहड़ता में जाती हैं और भरसक प्रयत्न करती हैं कि जीवन में करुणा और संवेदना का क्षरण न हो।वे यह उम्मीद भी पैदा करती हैं कि हर हाल में जीवन की आर्द्रता बची रहे।
जिज्ञासा : एक कवयित्री के नाते आप अपने समय की उदासी को किस तरह से देखती हैं?
रश्मि भारद्वाज : मेरी कविताओं में उदासी या दुख सिर्फ व्यक्तिगत नहीं है।अगर यहां पीड़ा है तो यह उन सबकी है जो अनदेखे हैं, अव्यक्त हैं और जिन्हें हाशिए पर छोड़ दिया गया है।हम जिस समय में जीने को अभिशप्त हैं, उस दौर में धर्म, राजनीति, तकनीकी और बाज़ार व्यक्ति की अस्मिता, उसके स्वाभिमान से जीने के अधिकार पर लगातार आघात कर रहे हैं।लिखने, बोलने, पढ़ने, अपना मनचाहा जीवन जीने की नागरिक स्वतंत्रता का हनन हो रहा है।ऐसे समय में कविताओं की संवेदनाएं हमें उबारने का काम करती हैं।वे हमें न सिर्फ अपने आस-पास के माहौल के लिए संवेदनशील और उद्दात बनाती हैं, उसे सहने की सामर्थ्य भी देती हैं।कविताओं में व्यक्त यह उदासी हमें रेस्क्यू करती है और पढ़ने वालों को भी।मेरी कविताओं में उदासी हो सकती है, लेकिन उसका स्वर निराश करने वाला या नकारात्मक नहीं है।
जिज्ञासा : आपकी लगभग सभी कविताओं में स्त्री की केंद्रीय उपस्थिति है।आखिरकार स्त्री की मुक्ति के प्रश्न को कब तक अनदेखा किया जाता रहेगा?
रश्मि भारद्वाज : स्त्री मेरी कविताओं के केंद्र में है, एक स्त्री होने के नाते मैं अपना अनुभव संसार, अपना भोगा गया और देखा गया लिखने का प्रयास करती हूँ।एक स्त्री की स्मृतियाँ, उसके स्वप्न, उसके संघर्ष और समाज से संवाद की उसकी कोशिश मेरी कविताओं के मूल तत्व हैं।लेकिन मेरी कविताओं को सिर्फ स्त्री की कविता नहीं कहा जा सकता।यह एक स्त्री की लिखी हुई कविता जरूर है जो अपने परिवेश से एक व्यक्ति की तरह संवाद करना चाहती है।वह चाहती है कि उसे भी बराबर का मनुष्य समझा जाए, संसाधनों, संवेदना, मस्तिष्क- सभी स्तरों पर।
स्त्री मुक्ति के दीर्घ संघर्ष के बाद भी हम यह समानता नहीं प्राप्त कर पाए हैं।अब भी स्त्री अपने पुरुष सहयात्री के बराबर मनुष्य होने का दर्जा नहीं प्राप्त कर पाई है।यहां तक कि साहित्य जो सभी विषमताओं, अन्याय के खिलाफ मुखर माना जाता है, वहां भी स्त्री लेखन को दोयम दर्जे का माना जाता है या उसे मुख्यधारा से काटकर मूल्यांकित किया जाता है।स्त्री को अब भी दिमाग से अधिक देह की तरह ही देखा-समझा जाता है।समाज में उसकी देह के उपयोग के आधार पर उसकी अहमियत तय की जाती है।जिस दिन स्त्री को देह के चश्मे से परे कर, तमाम जेंडर लेंस हटाकर एक संपूर्ण विकसित मस्तिष्क की तरह देखा जाएगा, उसे भी सामान्य मनुष्य की तरह चयन का, अपनी इच्छा से जीने का अधिकार होगा, वास्तविक मुक्ति तभी आएगी।
जिज्ञासा : आपके दूसरे काव्य संग्रह में एक काव्य पंक्ति है – ‘जो अव्यक्त है वही सबसे सुंदर है’।क्या सचमुच प्रेम अव्यक्त और अबूझ है?
रश्मि भारद्वाज : जीवन की तमाम सुंदर शै जो जीवन को नए मायने देती हैं, जीने के बहाने गढ़ती हैं, किसी एक परिभाषा में नहीं समा सकतीं, जैसे कविता, जैसे प्रेम, जैसे प्रकृति।हम उन्हें व्यक्त करने का प्रयास भर कर सकते हैं।फिर भी अकसर हमारी अभिव्यक्ति सीमा के परे हो जाती है।जैसे प्रेम ही, आप उसे महसूस कर सकते हैं, लेकिन एक सीमा के बाद उस भावना को कागजों पर उतारने के लिए हमारे पास शब्द नहीं होते।क्या मां का अपने शिशु के प्रति प्रेम बिलकुल उसी भाव से उतारा जा सकता है, शायद नहीं!
आज जब बहुत कुछ व्यक्त कर देने का समय है, तकनीकी ने उसके लिए हमें बहुत साधन संपन्न भी कर दिया है, प्रेम के ढाई आखर अपने मायने खोते जा रहे हैं।अति अभिव्यक्ति के इस दौर में, जहां सब कुछ तीव्रता से तय हो रहा है, वहां तुरंत प्रेम, तुरंत ब्रेकअप से यही प्रतीत होता है- जो अव्यक्त है, वही सबसे सुंदर है।कविता भी ठीक ऐसी है, जितना व्यक्त करती है, उतना ही संकेतों में छोड़ देती है।उसे बहुत कुछ कह देने की जल्दी नहीं है।शब्दों के बीच से जब अर्थ छन कर आता है तो जिस स्थायी आनंद और सौंदर्य की रचना होती है, वह ठहर कर सोचने को बाध्य करती है और मनुष्य के रूप में हमें समृद्ध और उदात्त बनाती है।
गमपुर के लोगों की प्यास नदियां बुझा देती हैं |
इधर चर्चा में आने वाली एक उदीयमान कवयित्री हैं, जो बस्तर जैसे आदिवासी अंचल से आती हैं।पूनम वासम के काव्य संग्रह ‘मछलियां गाएंगी एक दिन पंडुम गीत’ की कविताओं में पहली बार बस्तर अपने भूगोल, इतिहास और वर्तमान के साथ चित्रित हुआ है।उनकी कविताओं में बस्तर और आदिवासियों की एक खास उपस्थिति है।
बस्तर के अदिवादियों की त्रासदी देश के अन्य क्षेत्रों के आदिवासियों की तुलना में बेहद अलग है।पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से बस्तर बंदूक और बमों के धमाकों से लहूलुहान है।यहां के भोले भाले आदिवासियों की मुश्किल यह है कि एक तरफ नक्सली हैं तो दूसरी तरफ पुलिस और प्रशासन हैं।उन्हें नक्सलियों या पुलिस की गोलियों से मरना है या भूख और बीमारी से।यहां यातना और जुल्म का एक अविश्वसनीय संसार हिलोरें मार रहा है।पूनम इन्हीं सबके बीच रहती हैं और अपने सामने दूर तक फैले हुए बस्तर-भूभाग को अपनी कविताओं के कैनवास में रचने की कोशिश करती हैं।भूख, गरीबी, अन्याय और शोषण का नाम ही शायद बस्तर है!
अपनी ही माटी पर भूख से जंग लड़ना कोई
आसान काम नहीं
कि देह के साथ साथ अब इनकी आत्मा पर भी
लाल सलाम का ठप्पा लग चुका है
घने जंगलों से आती हैं आवाजें
हमें रोटी दो, हमें पानी दो।
(देह लेकर गई औरतें लौटकर नहीं आतीं)
बस्तर के अंदरूनी गांव भी पूनम वासम की दृष्टि से अछूते नहीं हैं।वहां का दुख, वहां की यातना जैसे कवयित्री का ही अपना दुख और यातना है।यहां की छोटी बड़ी नदियों से लेकर पहाड़ और यहां का आदिवासी समुदाय अपनी समग्रता में इस संग्रह की कविताओं में दर्ज है।गमपुर जैसे गांव न जाने बस्तर में कितने होंगे-
गमपुर को कोई नहीं जानता
और गमपुर भी किसी को नहीं जानता
गमपुर के लोगों की प्यास नदियां बुझा देती हैं
भूख जंगल का हरापन देखकर मिट जाती है
जीने के लिए
इन्हें कुछ और चीजों की जरूरत ही नहीं।
(गमपुर के लोग)
बस्तर में बहने वाली एक छोटी सी नदी तालपेरु के बहाने आशावाद की एक बारीक किरण भी उनकी कविताओं में दिखाई देती है-
उस दिन तालपेरु की सारी मछलियां
तुम्हारे स्वागत में
एक बार फिर पंडुम गीत गाएंगी
तुम देखना
एक दिन तुम सजोगी
फिर किसी नई दुल्हन की तरह।
(मछलियां गाएंगी एक दिन पंडुम गीत)
जिज्ञासा : बस्तर को लेकर इतनी अधिक व्याकुलता आपकी कविताओं में क्यों है?
पूनम वासम : बस्तर मेरी देह में आत्मा की तरह है।मैं हमेशा कहती हूँ कि मैं एक ऐसी जगह से हूँ जहां नदियां हैं, पहाड़ हैं, जंगल हैं, जहां झरने हैं।जहां लोकगीत हैं, मिथक कथाएं हैं, मुहावरे हैं।जहां विस्थापन हैं, उपेक्षा है, आंसू हैं, पिछड़ेपन का दंश है, जहां बम है, बारूद है, बंदूक है, आग है।बस्तर के परिवेश को देखकर मेरे भीतर जिस हद तक बेचैनी पैदा होती है, मैं उसे अपनी कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त करने की कोशिश करती हूँ।यदि मैं बस्तर में नहीं होती, तब भी शायद मेरी कविताएं शब्दों के साथ मुठभेड़ करते हुए मनुष्यता के पक्ष में अपना व्यापक प्रतिरोध दर्ज करने से पीछे नहीं रहतीं।
जिज्ञासा : क्या आप मानती हैं कि स्थानीयता किसी भी कविता के लिए अनिवार्य तत्व है?
पूनम वासम : स्थानीयता की अपनी एक भूमिका है।कविता ही नहीं, कोई भी साहित्य बिना स्थानीयता के विश्वसनीय कैसे हो सकता है।मुझे लगता है कि आदिवासी समाज को दूर से देखने वाला व्यक्ति उस बात को महसूस नहीं कर पाएगा जैसा कि एक आदिवासी महसूस करता है।आपकी भाषा, आपके कथन में यदि स्थानीयता नहीं है तो आपकी कविता विश्वसनीय कैसे होगी, वह मनुष्य और प्रकृति से कैसे जुड़ पाएगी, उनके साथ आप कैसे खड़े हो पाएंगे।जाहिर सी बात है, फिर आप खड़े नहीं हैं, बल्कि वहां खड़े होने का अभिनय मात्र कर रहे हैं।
आदिवासी समाज की एक समृद्ध स्थानीय स्मृति है।इसके पास एक अपना लोक है, अपनी संस्कृति है, अपना राग है।बस्तर का आदिवासी समाज मेरी स्थानीयता के केंद्र में है, जिसे मैं अपनी कविताओं के लिए बेहद जरूरी मानती हूँ।
जिज्ञासा : आपने अपने संग्रह की भूमिका में लिखा है ‘मैं सैकड़ों साल से महुआ बिनती अपनी पुरखिन की टोकरी के खालीपन को अपनी भाषा से भरना चाहती हूँ’, इसके माध्यम से आप क्या कहना चाहती हैं?
पूनम वासम : एक बच्चा जिसे मैं जानती भी नहीं जब उसकी आंखों में झांकती हूँ तो लगता है उसकी आँखें सवाल करती हुई मुझे घूर रही हैं कि आखिर दोयम दर्जे की नागरिकता के पीछे उसका क्या कसूर था।उसकी आंखें सिस्टम से सवाल- जवाब करती हुई लाल हुई जाती हैं।वह जानना चाहता है कि हर बार प्यादे के रूप में उसे ही क्यों इस्तेमाल किया जाता रहा है।कोई ‘आसमती’ मुझसे पूछती है कि मैडम साल में दो बार झंडा फहराने के बहाने हमें गणतंत्र की ‘नाजायज औलाद’ की तरह मुख्यधारा की दौड़ से बाहर क्यों धकेल दिया जाता है।एक दोनी बूंदी के बदले हमारे जल, जंगल, जमीन से हमें ही बेदखल करने की यह कैसी साजिश है। ‘आसमती’ के सवाल मुझे बेचैन करते हैं।मुझे लगता है उसकी बातें दूर तलक जाने के लिए तैयार हैं।मैं उन्हें बस थोड़ा, झाड़-पोछकर, उस पर भाषा की गहरी परत चढ़ाकर उसे बाजार में छोड़ आती हूँ।
मुझे लगता है कि अपनी पुरखिन की खाली टोकरी या अपने समय की अनुपस्थितियों को भाषा देने के लिए लगातार शिनाख्त में रहना होगा। ‘जो नहीं है वह क्यों नहीं है’, यह प्रश्न किसी भी तरह से व्यक्तिगत नहीं हो सकता।यह अपनी परिधि में पृथ्वी के तमाम वंचितों को समेट लेना है।
समीक्षित पुस्तकें :
(1) उल्लंघन : राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन 2021
(2) उपशीर्षक : कुमार अंबुज, राधाकृष्ण प्रकाशन 2022
(3) बाकी बचे कुछ लोग : अनिल करमेले, सेतु प्रकाशन 2020
(4) मैंने अपनी मां को जन्म दिया है : रश्मि भारद्वाज, सेतु प्रकाशन 2019
(5) मछलियां गाएंगी एक दिन पंडुम गीत : पूनम वासम, वाणी प्रकाशन 2021
204, कंचन विहार, डूमर तालाब (टाटीबंध), रायपुर-492009 मो. 6264768849
बाकि बचे कुछ लोग पर अनिल करमेले जी से बातचीत पढ़ना सुखद रहा साथ ही कुमार अंबुज जी से हुई बातचीत भी रोचक लगी।
दोनों प्रिय लेखकों को बधाई