शंभुनाथ
इधर भारतीय ज्ञान परंपरा पर चर्चा जोरों पर है। यह एक अच्छा विषय है, यदि इसे स्थिर और एकरेखीय रूप में न देखा जाए। यदि कुछ भी ज्ञान है, वह एक द्वीप जैसा नहीं हो सकता। हर देश की राजनीति उसकी अपनी होती है, पर ज्ञान उसकी सरहदों से बंधा नहीं होता।
एक समय था जब ज्ञानी राज दरबार में आते थे और राजा सिंहासन से उठ खड़े होते थे। अब ज्ञानियों से ज्यादा सम्मान अरबपति व्यापारियों, म्यूजिक कंसर्ट के कलाकारों और राजनेताओं का है। ज्ञान से ज्यादा हुनर की कीमत है। ऐसे समय में ज्ञान परंपरा पर खुली बहस का स्वागत करना चाहिए। यदि हम इसे सचमुच गंभीरता से लेते हैं, यह हमारे लिए आत्मनिरीक्षण और पुनर्निर्माण के दरवाजे खोल सकती है।
कभी कहा जाता था, ‘ज्ञान ही शक्ति है’। खासकर पिछली दो सदियां ज्ञान की सदियां थीं। ये सैकड़ों साल पहले की क्लासिकल ज्ञान परंपराओं की खोज की ही नहीं, ज्ञान के नवोन्मेष और विस्तार की भी सदियां थीं। इन्हीं सदियों में अंग्रेज बुद्धिजीवियों का ‘फूट डालो और राज करो’ पर आधारित भारत-संबंधी औपनिवेशिक ज्ञान भी आया। वह आज भी किस तरह हमारे देश में भेदभाव का एक प्रमुख औजार बना हुआ है, यह देखकर चिंता होती है।
हम लक्षित कर सकते हैं कि दुनिया में ज्ञान के अनगिनत बृहद और लघु संसार हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा में ही वेदांत सहित कई वैदिक दर्शन हैं। बौद्धों-जैनियों-सिक्खों का अलग-अलग ज्ञान भंडार है। भक्ति आंदोलन की कई अंतर्धाराएं हैं। आदिवासियों की ज्ञान परंपरा है ही, लोकज्ञान की अन्य अनगिनत परंपराएं हैं। इधर स्त्रियों, दलितों और अन्य वंचितों ने अपने-अपने ज्ञान को स्वतंत्र आकार दिया है। इन तथ्यों की रोशनी में कहा जा सकता है कि कोई एक भारतीय ज्ञान परंपरा नहीं है, कई परंपराएं हैं।
इस ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि आज के युग को ज्ञान से ज्यादा सूचना का युग कहा जा रहा है। अब ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ भी है जो हमारे सोचने की क्षमता को धीरे-धीरे नष्ट कर सकता है। हम एक दिन उससे ही पूछकर जानेंगे कि 10 और 10 कितना होता है! ज्ञान का सूचना, कौशल और चालाकी में सीमित हो जाना या महज यांत्रिक उत्पादन बन जाना देश के सामने एक बड़ा संकट और मानवता के सामने एक बड़ी चुनौती है।
इन स्थितियों के बीच जब हम भारतीय ज्ञान परंपराओं पर बहस करने हैं, एक अन्य सवाल उठता है कि हमारी ज्ञान परंपरा प्राचीन काल की कुछ खास क्लासिकल कृतियों तक सीमित है या उसका संबंध भारत की सभी भाषाओं के ज्ञान भंडार, मूर्ति, स्थापत्य आदि विभिन्न कलाओं, लोक साहित्य और नए सांस्कृतिक नवोन्मेषों तथा बौद्धिक स्वतंत्रता से भी है।
ज्ञान परंपरा में संवाद और प्रेम के लिए स्पेस
भारतीय ज्ञान परंपरा में वैदिक काल से संवाद का महत्व है। समाज में संवाद अब बहुत कम बचा है। याज्ञवलक्य और मैत्रेयी के बीच संवाद (बृहदारण्यक उपनिषद) में दो महत्वपूर्ण विचार हैं। याज्ञवल्क्य ने जब अपनी सारी संपत्ति मैत्रेयी को देने की इच्छा व्यक्त की, मैत्रेयी ने कहा, ‘जिन चीजों से मेरी आत्मा में समृद्धि और असीमता नहीं आएगी, उन्हें लेकर मैं क्या करूंगी!’ इसके विपरीत, आज की गैर-रोमांटिक दुनिया ने ‘भौतिक अमीरी और संवेदना की दरिद्रता का युग्म’ चुना है।
यह प्रेमचंद और छायावादी कवियों का समय नहीं है। प्रेमचंद ने ‘धन से दुश्मनी’ की घोषणा की थी। छायावादी कवियों ने भी भौतिक ऐश्वर्य को ठुकराया था। प्रसाद की सभी साहित्यिक नायिकाएं जैसे- ‘स्कंदगुप्त’ की देवसेना, ‘आकाशदीप’ की चंपा, ‘पुरस्कार’ की मधुलिका आदि धन का तिरस्कार करती हैं। ‘सालवती’ कहानी की सालवती राजसत्ता से मिली सोने की गेंद तालाब में फेंक देती है। ठीक है, आदमी को धन चाहिए, पर आखिर कितना चाहिए?
याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के बीच संवाद में एक दूसरी चीज है। मैत्रेयी कहती है, ‘प्रेम मनुष्य की आत्मा का सबसे बड़ा गुण है।’ इसका अर्थ है, आत्मज्ञान विश्व और शेष सृष्टि से प्रेम की अनुभूति के सिवाय कुछ और नहीं है। छायावाद ने प्रेम को मुख्य विषय बनाया था और इसके लिए ‘ह्यूमन सफरिंग’ को चुना था। उस युग में विश्व नीड़ की भावना थी, ‘मानव कह रे यह मैं हूं, यह विश्व नीड़ बन जाता।’ विश्व नीड़ की भावना वैश्वीकरण युग के ‘ग्लोबल विलेज’ की भूल-भुलैया में खो गई। ‘मैं’ व्यक्तिवाद में ढल गया या उन्मत्त भीड़ मे खो गया। प्रेम की जगह घृणा ने ले ली। विश्व मानवता की जगह विश्व बाजार आ गया, जिसमें ज्ञानी क्रीतदास होने लगे।
भारतीय ज्ञान परंपरा में वैदिक साहित्य के शुन:शेप और नचिकेता जैसे चरित्र हैं। वे भौतिक सुखों की उपेक्षा करके बड़े प्रश्नों के साथ जीना चाहते हैं। बड़े प्रश्न उसी के जेहन में पैदा हो सकते हैं, जिसके पास वैयक्तिकता सुरक्षित हो, जिसका ‘मैं’ व्यक्तिवाद और भीड़ के शोर दोनों से बचा हो तथा जिसने अपने हर रिश्ते में, बाजार से हो या किसी व्यक्ति से, अपने ‘स्व’ को बचा रखा हो!
आजकल कई लोग प्राचीन ग्रंथों या कृत्रिम मेधा की मशीनों से कुछ भी नोंच-झपटकर ज्ञानी बने घूम रहे हैं। ज्ञानी होना आज से पहले कभी इतना आसान नहीं था। ऐसे लोग छिलके का हलवा खाते हैं। कठोपनिषद का नचिकेता भौतिक सुख-ऐश्वर्य और सत्ता की तरफ से मुंह फेरकर ज्ञान पाना चाहता है। वह मृत्यु के दरवाजे पर खड़ा है, भूखा-प्यासा और नींदें गंवाकर। उसकी जिज्ञासा ही उसका सहाय है। ज्ञान कभी भी सत्ता और भोग-विलास के गलियारों में मिलने वाली चीज नहीं है, पर इस समय ऐसे ही ज्ञानी ज्यादा हैं। बुद्ध ने कपिल के शिष्यों सहित कई मत के ज्ञानियों से संवाद किया था और कष्ट उठाया था, तब जाकर बुद्ध बने थे। ज्ञान परंपरा में यदि जिज्ञासा थम गई तो वह तालाब है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में बुद्धिपरक नवोन्मेष और विपर्यय दोनों के उदाहरण हैं। नक्षत्रविज्ञानी वराहमिहिर (500) ने सूर्य ग्रहण के संदर्भ में बताया कि यह राहु के ग्रसने का नतीजा नहीं है। बाद में एक गणितज्ञ ब्रह्नगुप्त (600) आए। वे वराहमिहिर की वैज्ञानिक धारणा को उलटकर इस मत का प्रचार करने लगे कि सूर्य ग्रहण राहु के ग्रसने का ही नतीजा है, अन्यथा लोग शरीर में गरम तेल का लेप क्यों करते और दोष से मुक्ति के उपाय क्यों करते!
ज्ञान परंपरा जब एक अतीतबद्ध ज्ञान व्यवस्था (नॉलेज सिस्टम) बन जाती है वह संवाद, बहस और नवोन्मेष की जगह नहीं होती। वह बल, वैभव और सुख-सुविधाएं बटोरने का हथियार होती है। भारतीय ज्ञान परंपरा में न उपनिषदों ने यह राह दिखाई थी और न बुद्ध ने। ऐसी ज्ञान व्यवस्थाओं के संदर्भ में प्रसाद ने ‘कामायनी’ में लिखा है, ‘आवरण स्वयं बनते जाते/ है भीड़ लग रही दर्शन की’! ज्ञान तब केवल आवरण होता है- सच पर पर्दा, जब वह सत्ता और भौतिक ऐश्वर्य के लिए एक बंद ‘नॉलेज सिस्टम’ में बदल जाता है। भारत की ज्ञान परंपराएं बताती हैं कि ज्ञान एक अनंत यात्रा है, जिसमें विचारों की स्वतंत्रता रही है। ज्ञान कभी स्थिर नहीं था। वेदांत शंकराचार्य के समय कुछ था और भक्ति को महत्व देने वाले रामानुजाचार्य के समय कुछ!
ज्ञानी सबसे पहले यह ज्ञान हासिल करता है कि वह कितना कम जानता है। वह सत्ता-सुविधाओं के लोभ में कभी नहीं पड़ता।
शास्त्रवाद और स्वच्छंदता एक चिरंतन उठापटक है
भारतीय ज्ञान परंपरा की एक अन्य खूबी यह है कि शास्त्रवाद और स्वच्छंदता के बीच ‘आत्मीय टकराव’ प्राचीन काल से है। इसका अर्थ है, जिस ज्ञान परंपरा से कहीं आत्मीयता है, उससे कहीं टकराव भी है। शास्त्रवादियों ने ज्ञान को हमेशा एक कठोर व्यवस्था से बांधना चाहा, जबकि स्वच्छंद वृत्ति के ॠषियों-कवियों-चिंतकों ने आत्मज्ञान और अनुभव को महत्व दिया। अनुभव को महत्व देना टकराने का जोखिम उठाना है, यह यथार्थ का सामना करना है। निश्चय ही मनुष्य का ‘स्व’ जितना बड़ा होगा, अनुभव उतना विस्तृत होगा, पर इसमें जोखिम भी उतना ही अधिक होगा!
रामायण में राम का राजसुख छोड़कर वन गमन चुनना एक तरह की स्वच्छंद भावना है। बुद्ध का राजसुख छोड़कर ज्ञान की खोज में निकलना भी स्वच्छंदता की देन है। महाभारत में नल-दमयंती की प्रेमकथा का उदाहरण लें। युधिष्ठिर जब जुए में राज-पाट हार जाते हैं, उनको नल-दमयंती की लोककथा सुनाकर दुख-अवसाद से बाहर निकाला जाता है। दरअसल नल भी जुए में राज-पाट हार गया था, पर कठिनाइयों को पार कर अंतत: फिर सबकुछ पा जाता है। युधिष्ठिर और नल में फर्क यह है कि नल ने युधिष्ठिर की तरह जुए में अपनी पत्नी को दांव पर नहीं लगाया था। यह लोक जीवन में स्त्री के स्वत्व का दृष्टांत है। महाभारत की द्रौपदी और लोककथा की दमयंती का फर्क दो जगहों राजमहल और लोक के भिन्न-भिन्न ज्ञान का उदाहरण है।
कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ और भवभूति के ‘उत्तररामचरितम्’ में शास्त्रवाद को न मानकर स्वच्छंद भावना चुनी गई है। दोनों कृतियों में स्त्री के आत्मसम्मान की प्रतिष्ठा है। भवभूति सीता को पृथ्वी के गह्वर से वापस लाकर राम से पुनः मिला देते हैं। वे रामायण में वर्जित सीता के पृथ्वी में समा जाने (आत्महत्या) की कथा को नहीं मानते!
शूद्रक के नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ में गरीब ब्राह्मण, नाई, गणिका, चोर, दासी जैसे व्यक्ति मिलकर शास्त्र और सत्ता दोनों को चुनौती देते हैं। किसी समय वर्ण व्यवस्था, लैंगिक भेदभाव, संन्यास, पुनर्जन्म आदि भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रमुख तत्व थे। सांस्कृतिक इतिहास के कई मोड़ों पर इन्हें स्वीकार नहीं किया गया।
हमारे देश का 1200 सालों का भक्ति काव्य स्वच्छंदताबोध का एक बड़ा उदाहरण है। भक्त कवियों ने जाति-भेदभाव, संन्यास, पुनर्जन्म और बाह्याडंबर को चुनौती दी। उन्होंने पुरोहित चक्र को परे हटाकर सीधे ईश्वरीय अनुभूति को प्रधानता दी। उन्होंने आध्यात्मिक ‘मैं’ की सृष्टि की और धर्मशास्त्रीय बंधनों को तोड़कर स्वच्छंदता का उद्घोष किया। किसी भी भक्त कवि ने धर्मशास्त्रीय पुरोहितों की तरह ज्ञान का अहंकार या दिखावा नहीं किया, बल्कि सूफी कवि जायसी ने कहा, ‘पढ़े बहुत पै नेह न जाना’! आज के शिक्षित-हुनरमंद लोगों की संवेदनहीनता के बारे में यही कहना चाहिए।
भारतीय साहित्य में आम तौर पर पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर कल्पना की स्वतंत्रता रही है। हम यदि भारत की विभिन्न प्रांतों की भाषाओं, संस्कृतियों और कला-साहित्य पर नजर दौड़ाएं, पता चलेगा कि भारतीय ज्ञान परंपरा कभी स्थिर व्यवस्था नहीं थी। दुनिया के सांस्कृतिक इतिहास गवाह हैं, ज्ञानी को कैद किया जा सका है, ज्ञान को नहीं।
समुद्र का कोई देश नहीं है
फ्रेंच भारतविद एंक्वेटिल दुपेरां (1731-1805) ने उपनिषदों के कुछ अंशों का फारसी (दाराशिकोह) से लैटिन में अनुवाद किया था। एक अनुमान है, उसका प्रभाव यूरोप के रोमांटिसिज्म पर पड़ा था। गेटे (1749-1832) ने पश्चिमी रोमांटिसिज्म के युग में कालिदास की कृति ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का अनुवाद पढ़ा था और इसकी जबर्दस्त प्रशंसा की थी। अनुकरण और प्रभाव में फर्क है। सैकड़ों साल से दुनिया की सभ्यताएं, कलाएं और साहित्यिक कृतियां एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं।
हमें देश की ज्ञान परंपरा के साथ-साथ संवेदना परंपरा के बारे में भी सोचना चाहिए। कई लोग ज्ञान परंपरा की चर्चा करते हैं, पर वे संवेदना परंपरा को भूल जाते हैं, जो साहित्य में है।
उदाहरण के तौर पर रोमांटिसिज्म यूरोप का एक ऐसा आंदोलन है, जिसे नवजागरण और ज्ञानोदय के बाद वहां की एक बड़ी घटना माना जाता है। उसका साहित्य ही नहीं समाज पर भी असर पड़ा था। अंग्रेजी कवियों का यह आंदोलन अपने युग की अंध-भौतिकवादी, अति-बुद्धिवादी और उपयोगितावादी प्रवृत्तियों से विद्रोह था। यह एक खास स्थान की नहीं विश्वमानवता की देन था और फ्रांस की लोकतांत्रिक क्रांति (1789) से प्रभावित था। फ्रांसीसी क्रांति के तीन नारे थे- बंधुत्व, स्वतंत्रता और समानता। ये केवल फ्रांस में नहीं बल्कि विश्व भर में एक बड़ी प्रेरणा के रूप में काम करते रहे हैं। इसका अर्थ है, बड़े विचार समुद्र की तरह एक ही देश तक सीमित नहीं रहते।
इंग्लैंड के प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि शेली ने अपने देश की सरहद से न बंधकर ‘द रिवोल्ट ऑफ इस्लाम’ लिखा था। ऐसी कविताओं में वे ‘ओरियंटलिज्म’ के पूर्वग्रह से, अर्थात यूरोपीय बुद्धिजीवियों द्वारा पूर्व के देशों को असभ्य समझने की दृष्टि से बाहर निकलते हैं। वे अंग्रेज होते हुए भी अपनी एक रचना में भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की आलोचना करते हैं। विस्मय हो सकता है कि शेली ने अंग्रेज होकर भी अंग्रेजों के अत्याचारों के शिकार भारतीय किसानों की दुर्दशा का चित्र खींचा था (पोएटिक एस्से)। इसपर शेली को आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से बहिष्कृत कर दिया गया। वे तब 20 साल के नौजवान थे और एम.ए. के विद्यार्थी थे।
इसे अंग्रेजी कवि शेली की दृष्टि की व्यापकता कहना चाहिए कि उनकी संवेदना या उनका ज्ञान इंग्लैंड की भू-राजनीति तक सीमित न था। उनकी भारत के दुख-कष्ट को लेकर चिंता और इसके लिए दंड पाना एक नौजवान अंग्रेज के रोमांटिसिज्म का ज्वलंत उदाहरण है। रोमांटिसिज्म या स्वच्छंदता हमेशा भय और स्वार्थ के पार ले जाती है। यह मानवीय संवेदना को व्यापक बनाती है, जिससे हम आज एक दूरी पर खड़े हैं।
छायावादी कवियों की स्वच्छंदता
रोमांटिसिज्म यूरोप में 19वीं सदी के आरंभिक दशकों में आया, जबकि हिंदी में छायावाद 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में। उन युगों में ऐसे अनगिनत लोग थे जो अपनी सोच के प्रति ईमानदार थे, बाहर-भीतर से एक थे। वे बौद्धिक स्वच्छंदता के दीवाने थे।
छायावाद निश्चय ही पश्चिमी रोमांटिसिज्म का प्रतिरूप नहीं है। वह हो भी नहीं सकता था, क्योंकि पश्चिम के स्वतंत्र परिवेश की जगह औपनिवेशिक स्थितियों में आया था। राष्ट्रीय जागरण उसका एक प्रमुख मुद्दा था। देखा जा सकता है कि छायावाद का भारत की प्राचीन ज्ञान परंपराओं से संबंध है, जिस तरह 19वीं सदी में नवजागरण के आधुनिक समाज सुधारक भी प्राचीन क्लासिकल परंपराओं के संपर्क में थे। नवजागरण काल के ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में रूढ़िवादियों को चुनौती देते हुए ‘पराशर संहिता’ से इसके उदाहरण रखे थे। रानाडे ब्राह्मण ग्रंथों के आलोचक थे, पर वेदांत के प्रशंसक थे। छायावादी कवियों ने वेदांत का बार-बार उल्लेख किया है। उनका उद्देश्य भारतीय ज्ञान परंपरा के इस उज्ज्वल तत्व को विश्वमानवता की दार्शनिक प्रेरणा बनाना था। रवींद्रनाथ ने वेदांत के अलावा पश्चिमी रोमांटिसिज्म, संत कवि कबीर तथा लोक परंपरा के बाउलों से भी प्रेरणा ली थी। इस तरह हमारे देश के स्वच्छंदतावाद या छायावाद का संबंध एक नहीं कई ज्ञान परंपराओं से है।
छायावाद को कई बार पश्चिम के ‘रोमांटिसिज्म’ या ‘मिस्टिसिज्म’ की रोशनी में देखा गया है। कई बार कठोर भारतीय ज्ञान व्यवस्था में सीमित कर उसे सांस्कृतिक पुनरुत्थान माना गया है। कुछ व्यक्ति तट से दो-चार सीपियां उठाकर समुद्र की संपूर्ण संपदा की घोषणा करते रहे हैं, जबकि न कोई महान साहित्यिक आंदोलन और न कोई महान ज्ञान परंपरा कभी एकरेखीय रही है।
छायावाद के संदर्भ में देखें, निराला वेदांत को चुनते हैं तो प्रसाद कश्मीरी शैव दर्शन को। प्रसाद के काव्य में वैदिक साहित्य के मनु-श्रद्धा के अलावा बुद्ध हैं, शिव हैं। वे ‘कामायनी’ में शिव का बिंब रखते हैं, ‘नील गरल से भरा हुआ यह चंद्र कपाल लिए हो/ इन्हीं निमीलित ताराओं में कितनी शांति पिए हो।’ महादेवी स्पष्ट कर देती हैं, ‘छायावाद का कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ॠणी है।’ वह ‘धर्मगत संकीर्णता’ से मुक्ति की घोषणा करते हुए कहती हैं, ‘छायावादी कवि ने बुद्धि के सूक्ष्म धरातल पर अखंडता का भावन किया।’ यह सामाजिक भेदभाव पर टिके शास्त्रवाद के विरुद्ध स्वच्छंदता का उद्घोष है और भारतीय ज्ञान परंपरा की एक महत्वपूर्ण घटना है।
ज्ञान के बारे में जो बात सही है, वही सौंदर्य के मामले में भी सही है। महादेवी ने लिखा है, ‘कलाकार सौंदर्य की खंडित और विकलांग प्रतिमाओं को समय के प्रवाह में छोड़कर उनके स्थान पर पूर्ण और अखंड को प्रतिबिंबित करता है। सौंदर्य के मंदिर में ऐसा कुछ नहीं है, जो पैरों के नीचे कुचला जा सके।’ (छायावाद)। छायावाद कभी भी एक बंद दरवाजा नहीं था। वह ज्ञान, सौंदर्य और सभी उच्च मूल्यों के लिए खुला हुआ था। वह उदारता का एक अनोखा मानवतावादी विस्तार था, जिसमें खंड-खंड की जगह ‘अ-पर’ का बोध महत्वपूर्ण था।
भारतीय ज्ञान परंपरा अतीत की कैदी नहीं है
भारत, भारतीय संस्कृति और दर्शन पर पहले भी चर्चा होती थी। लेकिन भारतीय ज्ञान परंपरा पर चर्चा कई बार अपने दरवाजे-खिड़कियां बंद करके होती है। निश्चय ही भारतीय मस्तिष्क का ‘डि-कोलोनाइजेशन’ जरूरी है, क्योंकि हमारे देश के अधिकांश बुद्धिजीवियों पर यूरोपीय बौद्धिक फैसलों का कुछ ज्यादा असर रहा है। फिर भी भारतीय ज्ञान परंपरा पर चर्चा का अर्थ न अतीत का कैदी होना है और पश्चिमी, लैटिन अमरीकी और अफ्रीकी देशों की कला-साहित्यिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों की तरफ से आंखें फेर लेना है।
अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ में ज्ञान को ‘वर्धमान वृक्ष’ कहा है। जो बुद्धिजीवी दो-चार पुस्तकें पढ़कर ज्ञान बघारने लगते हैं, उन्हें ज्यादा छलकने वाली अधजल गगरी समझना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा प्राचीन अतीत में ठहरी हुई एक पूर्व-निर्धारित परंपरा है जिसमें नवजागरण, छायावाद और बाद के हिंदी साहित्य के लिए ही नहीं, 1200 सालों के भक्ति आंदोलन के लिए भी जगह नहीं है, क्योंकि इन जगहों पर विद्रोह और नवोन्मेष हैं। भारतीय ज्ञान संसार के बारे में इस तरह की हर संकुचित सोच उसपर एक बड़ा आघात है।
अत: इन प्रश्नों पर सोचने की जरूरत है, क्या भारत की एक ही ज्ञान परंपरा है? क्या भारत की ज्ञान परंपरा का अन्य देशों की ज्ञान परंपराओं से आदान-प्रदान का कोई संबंध नहीं है? क्या दुनिया में सिर्फ वस्तुओं का आना-जाना रहा है, विचारों का नहीं?
यदि हम भारत के सांस्कृतिक इतिहास पर गौर करें, जिस पहले तथ्य से हमारा सामना होता है वह है, हमारे देश में एक या दो ज्ञान परंपराएं नहीं हैं। शास्त्र और लोक दोनों स्तरों पर अनगिनत ज्ञान परंपराएं हैं, इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना भारत को समझने का दावा व्यर्थ है।
छायावाद युग में पंत एक भिन्न रास्ता चुनते हैं। उन्हें अतीत आकर्षित नहीं करता। वे कहते हैं, ‘जला दो जीर्ण-शीर्ण प्राचीन’! उसी युग में महाराष्ट्र में अंबेडकर का दलित चिंतन उभरता है, जिसकी प्रेरणा बुद्ध हैं। यहां एक भिन्न ज्ञान परंपरा से ‘कनेक्शन’ है। भारतीय ज्ञान परंपरा आर्यावर्त्त-केंद्रित नहीं है, क्योंकि हमारे देश में दक्षिण भारत भी है। कहना न होगा कि दक्षिण भारत में ज्ञान परंपरा के कई अलग स्रोत भी हैं, बल्कि उत्तर भारत में फैला भक्ति आंदोलन एक द्रविड़ उपज है।
भारत की ज्ञान परंपराओं से संपर्क के बावजूद पिछले लगभग दो सौ सालों के आधुनिक भारतीय साहित्य को अतीत की अनुकृति नहीं कहा जा सकता, जिस तरह उसे पश्चिम की अनुकृति भी नहीं कहा जा सकता। यह समय नवोन्मेषों और स्वतंत्रता की आवाजों से गूँजता रहा था, जिनका साथ आम भारतीयों ने दिया था। हम जिसे प्रेमचंद या छायावाद युग कहते हैं, वह अतीत की सैकड़ों जंजीरों के टूटने का युग रहा है।
निराला लिखते हैं, ‘शेली की तरह भारतीय कवि भी अपने शब्दों की हिलोर में विश्व वेदना के तार झंकृत कर देना चाहते हैं।’ (कवि और कविता, 1924)। वे यह भी कहते हैं ‘ज्ञान का शिखर वेदांत है, विश्व मैत्री इसकी शिक्षा है।’ (साहित्य की समतल भूमि, 1926)। वे पश्चिम और देश के सांस्कृतिक अतीत दोनों के प्रति बौद्धिक खुलेपन का परिचय देते हैं। 20वीं सदी का पूर्वार्ध हमारे देश का सबसे अधिक आंदोलित समय था। ऐसे दौर के कुछ संकीर्ण विचारों से उद्वेलित होकर निराला ने कहा था, ‘जब कोई एकदेशीय दृष्टि से किसी गंभीर प्रश्न पर रायजनी करता है, तब हृदय को कड़ी चोट पहुंचती है। …एकदेशीयता स्वरूपत: संकीर्णता है।’ (वही)। निराला का आक्रमण राष्ट्रीय भावना पर नहीं है, एकरेखीय राष्ट्रीय सोच पर है जो दीवारें खड़ी करती है। ज्ञान दीवारें नहीं बनाता, शुद्धतावाद और ज्ञान दोनों एक साथ संभव नहीं है!
ज्ञान की परिधि को स्वार्थों ने संकुचित किया है
आज भारत सहित हर देश दूसरे देशों से विकसित टेक्नोलॉजी चाहता है, विकसित संहारक हथियार चाहता है, अंतरिक्ष-संबंधी नया ज्ञान हासिल कर लेना चाहता है और उपभोक्ता वस्तुएं चाहता है। सभी देश दूसरे देशों में अपना बाजार बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन किसी की दिलचस्पी दुनिया की मानवता को जोड़ने में नहीं है। दूसरे प्रांतों की कलाओं-संस्कृतियों तथा दूसरी भाषाओं की पुस्तकों में लोगों की रुचि घटती जा रही है। इधर लोगों के ज्ञान की परिधि घनघोर स्वार्थ के कारण संकुचित हुई है।
निराला ने एक समय आशा व्यक्त की थी, ‘20वीं सदी में सभ्यताओं के साथ मनुष्यों की ज्ञान-लिप्सा भी सीमा-बंधनों के उत्तरोत्तर पार करती जा रही है। …इस तरह विस्तृत संसार संपूर्ण क्षुद्रताओं को लिए हुए भी विभिन्न भाषा-भाषियों के लिए बृहद मित्र-मंडल हो जाएगा।’ (वही)। पिछले सौ सालों में दुनिया काफी बदल चुकी है, मित्र मंडल से ज्यादा बड़ा शत्रु मंडल है। क्षुद्रताओं का टिड्डियों जैसा हमला हुआ है, महानताएं अंधेरे में चली गई हैं।
एक और घटना है, हिंदी क्षेत्र में नवजागरण की तरह ही रोमांटिसिज्म या छायावाद का व्यापक सामाजिक प्रस्फुटन नहीं हो सका था। छायावाद के सभी कवि उत्तर प्रदेश के हैं। उस जमाने में बिहार, मध्य प्रदेश तक छायावाद की काव्य लहर से रिक्त थे। आगे चलकर फिल्म में राजकपूर (आवारा, श्री 420 आदि) हुए, जिन्हें रोमांटिसिज्म से भरा एक सशक्त हीरो कहा जा सकता है, पर दर्शकों ने उनसे सिर्फ मजा लिया।
उपभोक्तावाद ने रोमांटिसिज्म को अब बहुत संकुचित कर दिया है। आज लोग घुमक्कड़ नहीं हैं, पैकेज टूर वाले टूरिस्ट हैं। गांधी जैसा ‘अकेले का साहस’ लोगों में अब पहले से कम है। वस्तुएं भावनाओं तथा विचारों को विस्थापित कर रही हैं। लोग अधिक आरामतलब और मजालोभी होते जा रहे हैं। वे अपनी स्वतंत्रता भौतिक वस्तुओं में खोजते हैं। हर रोज अधिक डिजिटल होती जा रही दुनिया झूठ, हिंसा और कृत्रिमताओं से भर गई है। मनुष्य आत्मनिरीक्षण नहीं कर पा रहा है, क्योंकि उसका ‘मैं’ अब छोटे स्वार्थों से भरकर एक ‘हिंसक हम’ बन चुका है।
आज जब भारतीय ज्ञान परंपरा पर जगह-जगह चर्चा हो रही है, हम यह भी महसूस कर सकते हैं कि हमने अपने देश के ज्ञान संसार की कई महान चीजों को वस्तुतः खो दिया है!
सभी दिशाओं से विचारों को आने दो
एक वैदिक उक्ति है, ‘आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:’, अर्थात सभी दिशाओं से विचारों को आने दो! हर युग की अपनी ऐतिहासिक सीमा में तर्कसम्मत विचारों की खोज हुई है। उनका संबंध मानव-स्मृतियों के अलावा नए-नए स्वप्नों से रहा है।
भारतीय साहित्य में स्वच्छंदता की आवाजों का एक लंबा सिलसिला है। स्वच्छंदता एक सनातन प्रतिपक्ष है, जिसका लक्ष्य अलग-अलग युग की ऐतिहासिक सीमा में मानवतावादी पुनर्निर्माण रहा है। हमारी उपनिषदें आपस में श्रेष्ठता के लिए लड़ते वैदिक देवताओं के भौतिकवाद की प्रतिपक्ष हैं। इन्होंने वेदांत दिया, जो अखंडता का संदेश देते हुए कहता है, ‘तत्वमसि’, अर्थात जो तू है वही मैं हूँ!
भारतीय ज्ञान परंपरा पर चर्चा के समय देखना होगा कि उसमें विचारों की स्वतंत्रता के लिए कितनी जगह है। भारतीय ज्ञानियों का आम विश्वास है, ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोध:’, अर्थात अहंकार से मुक्त संवाद ही सत्य का बोध कराता है।
एक और महत्वपूर्ण कथन है, ‘सत्य का मुख स्वर्ण पात्र से ढका है’ (ईशावास्योपनिषद)। उपर्युक्त दोनों कथनों को जोड़ने से निष्कर्ष निकलता है कि ज्ञान और अहंकार विपरीत मामले हैं। ज्ञान और भोग-विलास विपरीत मामले हैं। ज्ञान परंपरा पर हांकना और ज्ञान परंपरा पर चलना दो भिन्न चीजें हैं।
ज्ञान के साथ सहृदयता भी चाहिए
प्राचीन ज्ञानी तर्क करते थे, जो दो या दो से अधिक के बीच संवाद के जरिए ही संभव है। भारत में अंधविश्वासों के समानांतर तर्क की एक दीर्घ परंपरा है। हम जानते हैं, तर्क में संवाद के लिए ‘दूसरे’ का होना जरूरी है। आज ‘दूसरे’ को मिटा देने की कोशिश होती है।
जनक के दरबार से जुड़ी तर्क-वितर्क की कई कथाएं हैं। उनके दरबार में एक बार एक दिव्यांग ब्राह्मण अष्टावक्र आते हैं। वे शास्त्रार्थ-वीर बंदी से बहस करते हैं। बंदी एक निष्ठुर ब्राह्मण था। उसकी शर्त थी कि वाग्युद्ध में उनसे जो हारेगा उसे जल में डूबकर मरना होगा। उसने अष्टावक्र के गरीब पिता सहित कई ब्राह्मणों को इसी तरह मरवा दिया था। अष्टावक्र ने बंदी को अपने ज्ञान के बल पर शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। अब उसकी हालत देखने लायक थी। अष्टावक्र ने यह कहकर बंदी को क्षमा किया कि तर्क में दूसरे का असम्मान नहीं करना चाहिए। ज्ञानी होने का अर्थ निर्मम होना नहीं है। तपोबल से जल में डुबाकर मारे गए सभी ब्राह्मण जीवित कर दिए गए। यह एक कथा है, पर इसमें ‘ज्ञान के साथ सहृदयता’ का जो संदेश है, उसपर गौर किया जा सकता है।
स्वच्छंदता की प्राचीन परंपराओं को इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि इन्होंने ज्ञान को कट्टरताओं की तरफ बढ़ने से यथाशक्ति रोका तथा ‘ज्ञान के साथ सहृदयता’ का महत्व बताया।
सियारामशरण गुप्त ने नवजागरण के एक औजार तर्क की महत्ता इस तरह बताई थी, ‘तर्क और बहस ही वह वस्तु है, जो हमारे मन में अनजाने ही सही, यह बोध उत्पन्न करती है कि हमें छोड़कर भी किसी को होना चाहिए।’ (झूठ सच)। ज्ञान ‘दूसरे’ के प्रति निर्मम होने की जगह संवाद के लिए प्रेरित करता है। तर्क और बहस में ‘दूसरे’ की लोकतांत्रिक महत्ता स्वत: निहित है।
कहना न होगा कि तर्क और लोकतंत्र में गहरा संबंध है। जब समाज में तर्क कमजोर पड़ने लगे और खोखले शब्द बढ़ने लगें, समझ जाना चाहिए कि लोकतंत्र जा रहा है। इसपर आज गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि विचार और आचरण की कैसी दूरियों, कैसे भटकावों और बिखरावों से समाज में इन दिनों समाज में तर्क विस्थापित है, क्योंकि तर्क के विस्थापन का एक ही नतीजा है बहुरंगी स्वेच्छाचारिताओं का उदय!
भारत की ज्ञान परंपरा क्या है, यह बताने से पहले तय करना होगा कि इसे हम कहां से देखना चाहते हैं। सत्ता की ऊँची जगहों से देखी जा रही ज्ञान परंपरा हमेशा एक खंडित और निर्मम ज्ञान व्यवस्था होगी, जबकि लोक से जुड़ी ज्ञान परंपरा का हर मोड़ पर तर्क के अलावा अखंडता और सहृदयता से संबंध होगा।
कहना न होगा, सहृदयता रहित ज्ञान एक अत्याचार है!
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सदा की भांति यह अंक भी सार्थक और समृद्ध है।