शंभुनाथ
‘मैं कपड़े की तरह बुनता हूँ शब्दों को गहन रात्रि में/यह एक मौन सिंफनी है चांदनी में नहाई हुई!’ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, अर्थात मेधाबोट द्वारा यह अंग्रेजी में लिखी गई कविता है। मेधाबोट की रची एक और पंक्ति है, ‘मेरे पास तुम्हारी दुनिया को खत्म कर देने की क्षमता है!’
कंप्यूटर पर कथा तैयार करना काफी पहले शुरू हो चुका था। इसपर निर्मित पात्र अभिनय भी करते थे। क्या मेधाबोट कवियों के काम भी छीन लेगा? वह हमारे जीवन संसार पर जिस गति से दखल जमाना शुरू कर चुका है, उसे उत्सव और भय दोनों रूपों में देखा जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए मेधाबोट कलाकारों-श्रमजीवियों के झंझट से बचाने के कारण एक उत्सव है, जबकि सांस्कृतिक इतिहास में अपनी भूमिका खोते जाने के कारण बौद्धिक वर्गों के लिए वह एक भय है। इस साल (2024) फीजिक्स का नोबल पुरस्कार कृत्रिम मेधा के क्षेत्र से जुड़े दो वैज्ञानिकों को मिला है जो इस नई ‘ताकत’ की स्वीकृति है।
बड़ी कंपनियां अपने उद्देश्यों से जिस तरह के मेधाबोट बनवा रही हैं, इसे लेकर हॉलीवुड के कलाकारों के अलावा इंग्लैंड, जर्मनी आदि पश्चिमी देशों के लोगों ने भी विरोध शुरू कर दिया है, हड़ताल हुई है। हालांकि हमारे देश में कोई सुगबुगाहट नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि मेधाबोट मानव भविष्य पर अब तक का सबसे बड़ा हमला है, क्योंकि यह मनुष्य को ‘रिप्लेस’ कर देने के लिए ही नहीं, उसे सोचने और कल्पना करने की शक्ति से वंचित कर देने के लिए भी है।
चिंता का एक और कारण यह है कि टेक्नोलॉजी लगातार विकसित हो रही है, पर मनुष्य की अपनी बौद्धिकता निरंतर संकुचित होती जा रही है। वह धर्म, नस्ल, जाति, प्रांतीयता, पुराजातीयता आदि के आधार पर विभाजित होकर केवल हमारे देश में ही नहीं विश्व स्तर पर ह्रासमान है। इस युग में लोगों को अपनी मानसिक संकीर्णता के प्रसंगों और उच्च तकनीक दोनों पर गर्व है।
15वीं-16वीं सदी के भक्त कवि कहते थे कि मैं प्रेम करता हूँ, इसलिए मैं हूँ। 18वीं सदी में दकार्त्त ने कहा था, ‘मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ’। 21वीं सदी में सोच है, ‘मैं समाज में घृणा करता हूँ और बाजार में उपभोक्ता हूँ, इसलिए मैं हूँ’। हर छोटी मछली को बड़ी मछली का भोजन बनना है, ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’! इस समय राजनीति, बाजार तथा टेक्नोलॉजी तीनों का जैसा सम्मिलित अभियान है, क्या आदमी प्रेम करने, सोचने और कल्पना करने की शक्ति धीरे-धीरे खोकर अंतत: तोता बन जाएगा? विकसित होती जा रही तकनीक क्या संकीर्ण होते जा रहे मनुष्य को अपना गुलाम बना लेगी?
मेधाबोट के पास कल्पना की स्वतंत्रता नहीं है
1997 में आईबीएम के एक शतरंज खेलने वाले रोबोट ने शतरंज के महान खिलाड़ी गैरी कास्पोरोव को पराजित कर दिया था। यह यंत्र द्वारा मनुष्य के ज्ञान पर हमले की पहली बड़ी घटना थी। मेधाबोट एक सटीक हिसाबी है, पर वह चाहे भी तो प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध और केदारनाथ सिंह की तरह कल्पना नहीं कर सकता।
बोतल के धुएं से निकले जिन्न को फिर बोतल में बंद नहीं किया जा सकता, पर मांएं जानती हैं कि वह लोहे से डरता है। मनुष्य की कल्पना शक्ति ही उसकी आत्मा का सबसे मजबूत लोहा है, जिसकी अभिव्यक्ति सैकड़ों साल के साहित्य में है। कल्पना संकट के पार भी देखती है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि मेधाबोट कविता लिख सकता है या नहीं। सवाल है, क्या वह हमें वाल्मीकि, कालिदास और रवींद्रनाथ जैसे कवि दे सकता है? वे संकट के पार भी देख रहे थे!
मेधाबोट चैटबोट हो सकता है। वह अपने प्रशिक्षण और सांख्यिकी में उपलब्ध सामग्री की सीमा में संगीत, चित्र भी निर्मित कर सकता है। वह लोकप्रियतावादी लुगदी साहित्य का प्लाट तैयार करना शुरू कर चुका है। बहुत संभव है, वह बेस्ट सेलर पुस्तकों के लेखक का सहयोगी बने। पर वह कभी मोजार्त, पिकासो और प्रेमचंद की ऊंचाई तक नहीं पहुंच सकता। इसकी मुख्य वजह यह है कि उसके पास कल्पना की स्वतंत्रता नहीं है। मेधाबोट कभी कबीर या माया एंजलो के संघर्षों के स्तर को नहीं छू सकता, क्योंकि उसमें अधिकार चेतना नहीं है। केवल मनुष्य समझते हैं कि हमारे अधिकार क्या हैं और केवल मनुष्य ही सत्याग्रह कर सकते हैं।
आइंस्टीन ने कहा था, ‘ज्ञान से कल्पना अधिक महत्वपूर्ण है। उसके घेरे में समूचा विश्व है।… तर्क आपको ‘ए’ से ‘बी’ तक ले जा सकता है, पर कल्पना हर जगह ले जा सकती है।’ दरअसल कल्पना हर कृत्रिम बंधन से विद्रोह है। वह उपलब्ध ज्ञान से आगे ले जाती है। नि:संदेह यदि कल्पना पर हमलों को रोका जाए, उत्तर-सत्य के वर्तमान युग को बदला जा सकता है।
नागार्जुन जब ‘दंतुरित मुस्कान’ देखते हैं, जब वे कालिदास से पूछते हैं, ‘रोया यक्ष कि तुम रोये थे’ या अन्यत्र जब भौतिक वस्तुओं की प्रचुरता के समानांतर कुंठित मानव विवेक देखकर पूछते हैं, ‘यह कैसे होगा, यह क्योंकर होगा’, तो इन्हें श्रेष्ठ कल्पनाशील मन की आवाजें कहना चाहिए। मेधाबोट में ऐसा सौंदर्यबोध, दर्द और भय जन्म नहीं ले सकता। जीवन में सुंदरता और श्रेष्ठता बची रहे, इसके लिए मनुष्य में तर्क के साथ-साथ स्वतंत्र कल्पनाशीलता का होना जरूरी है।
कल्पना कट्टरताओं से मुक्त करती है
कल्पना ने सैकड़ों साल से मनुष्य की आशाओं को पंख दिए हैं। हमने उसे आंधी-तूफान में गाती चिड़िया के रूप में देखा है। पंत की ‘प्रथम रश्मि’ को पहचानने वाली बाल विहंगिनी कुछ ऐसी ही थी। कल्पना आशाओं को रचती और बताती है कि एक भिन्न दुनिया संभव है। वह लोगों को ताकत और साहस देती है, ताकि दुनिया जैसी है, उससे वे भिन्न रूप में देख सकें। कबीर का उलटबांसी-लोक, रैदास का ‘बेगमपुरा’, गांधी का ‘राम राज्य’ और ‘राज्यविहीन समाज’ की विभिन्न कल्पनाएं अपने-अपने समय से विद्रोह के चिह्न हैं। एक दमनमूलक समाज से एकदम बाहर निकलना संभव न भी हो, मनुष्य थोड़ा-बहुत लड़ तभी पाता है, जब उसके पास एक भविष्य कल्पना होती है।
हम सभी के सामने समान रूप से जो बड़ा संकट है, वह है एक न एक तरह से ‘दूसरे’ के रूप में देखे जाने का। धर्म के नाम पर नहीं तो जाति के नाम पर, जाति के नाम पर नहीं तो प्रांत के नाम पर, देश या नस्ल के नाम पर ‘दूसरे’ के रूप में देखे जाने का! मनुष्य अभिशप्त हैं। यह वर्तमान की अनिश्चितता का बढ़ जाना ही नहीं, अतीत का बहुत कुछ खोते जाना भी है। जब अतीत का बहुत कुछ मूल्यवान खो जाता है, भविष्य कल्पना की शक्ति भी घट जाती है। निराला जब ‘राम की शक्तिपूजा’ में एक वृहत्तर संकेत के साथ कह रहे थे, ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना/आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर’, जब वे अतीत की ओर देखते हुए भी ‘मौलिकता’ तथा ‘दृढ़ता’ पर जोर दे रहे थे, निश्चय ही वे तब रूढ़िवादी हिंदू नहीं थे।
गालिब जब कह रहे थे, ‘काबा किस मुंह से जाओगे गालिब/ शर्म तुमको मगर नहीं आती’, वे तब कट्टर मुसलमान न थे। यह कल्पना है जो कट्टरताओं से मुक्त करती है, अन्यथा कट्टर आदमी भौतिक सुख भोगते हुए भी एक कल्पनाविहीन हिंसक संसार में जीता है।
सांस्कृतिक आत्म-उन्मूलन के बीच मुक्तिबोध आशामयी कल्पना के साथ कुछ सतर्कता भी बरतते हैं। वे छायावादी ‘बाल विहंगिनी’ से भिन्न चील को चुनते हैं, ‘बेचैन चील/उस जैसा मैं पर्यटनशील/प्यासा-प्यासा/देखता रहूंगा एक दमकती हुई झील/ या पानी का कोरा झांसा…।’ प्यासे के लिए दूर से दिख रही दमकती झील पानी का झांसा भी हो सकती है! महत्वपूर्ण यह है कि मुक्तिबोध में तलाश है। वह युग ऐसा था, कोशिशें बची हुई थीं।
और कोशिशें हर युग में बची रहती हैं। केदारनाथ सिंह की ‘यह पृथ्वी रहेगी’ में है, ‘मुझे विश्वास है/यह पृथ्वी रहेगी/यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में/ यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में/रहते हैं दीमक/जैसे दाने में रह लेता है घुन/यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर/ यदि और कहीं नहीं तो मेरी जबान/और मेरी नश्वरता में…।’ कल्पना अनश्वर है। पृथ्वी जब तक है, कल्पना भी रहेगी। क्योंकि मनुष्य के पास भाषा है, जुबान है, बोलने की शक्ति है। भाषा अनश्वर है, इसलिए कल्पना भी। जब तक कल्पना है, पृथ्वी को लेकर चिंता अर्थात मानव भविष्य, पर्यावरण, संस्कृति और साहित्य को लेकर चिंताएं रहेंगी।
आभासी यथार्थ के आतंक में कल्पना का संकट
साहित्य यथार्थ के बिना संभव नहीं है, लेकिन साहित्य यथार्थ की जेरॉक्स कॉपी नहीं है। श्रेष्ठ साहित्य कभी किसी खास राजनीति या शास्त्रीय सिद्धांत तक सीमित नहीं रहा है, उससे थोड़ा-बहुत प्रभावित भले हो। साहित्य समाज से संपर्क रखते हुए भी एक विशिष्ट सांस्कृतिक वस्तु है। साहित्य की विशिष्टता की रक्षा करते रहने की जरूरत है, अन्यथा कल्पना का आखिरी ठिकाना भी खत्म हो जाएगा। एक ऐसी बची जगह खो जाएगी, जहां तूफान में एक चिड़िया गा सकती है, कोई प्यासा चील समझ सकता है कि झील में पानी है या सिर्फ एक झांसा है, जहां एक उड़ान, एक तलाश संभव है और कुछ नहीं तो वहां आदमी की थोड़ी शर्म बची रह सकती है।
इस समय आभासी यथार्थों का इतना आतंक है कि मनुष्य की स्मृति और कल्पना दोनों आभासी यथार्थों की कैद में हैं। आभासी यथार्थ के सौदागर हर तरफ हैं। वे पृथ्वी पर नकली स्वर्ग उतार रहे हैं, मनुष्य प्रलोभन से बच नहीं पा रहा है। बाजार के विज्ञापन सौंदर्यबोध-प्रबंधन का काम कर रहे हैं, यह एक बड़ा संकट है। दूसरी तरफ, ‘भिन्नता’ पर आधारित हिंसक राजनीतिक विमर्श हैं। इस दोहरे आतंक राज्य से उच्च परंपराएं और मानव भविष्य दोनों बहिष्कृत हैं। आज कोई भी जागरूक इंसान कल्पना के संकट का अनुभव कर सकता है, जब संकट की कल्पना मुश्किल हो गई है।
आज एक नया संकट उपस्थित है जो वस्तुत: कल्पना का संकट है। हम भौतिक प्रचुरता के बावजूद, रिक्तता से भरे इस आभासी संसार में एक भिन्न संसार की, प्रेम और सौहार्दपूर्ण संसार की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। साहित्य क्या करता है? साहित्य कहता है- देखना सीखो, अर्थात सौंदर्य को पहचानना, तर्क करना और कल्पना करना।
मनुष्य के स्वतंत्र होने के लिए कल्पना जरूरी है, पर इसी पर सबसे बड़ा संकट है। कल्पना घिसे-पिटे अनुभव, पुरानी धारणाओं और सोच की बाउंड्री तोड़ने में सहायक होती है। दुनिया के बड़े देश भौतिक-तकनीकी मामलों में प्रगति करते हुए भी सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में अपनी पुरानी संकीर्ण दुनिया में लौटते नजर आ रहे हैं। टेक्नोलॉजी के विकसित रूपों के अलावा भिन्नता की राजनीति कल्पना के लिए स्पेस लगातार कम कर रही है। दुनिया के देशों की रुचि आम लोगों की खुशी से ज्यादा जीडीपी बढ़ाने, स्मार्ट नगरों के बड़े भवनों और अपने-अपने देश की व्यवस्थाओं को कारपोरेट हाथों में सौंप देने में है। उन्हें सांस्कृतिक-बौद्धिक नवोन्मेष की चिंता नहीं है। आम लोगों को प्रेम, स्वतंत्रता और न्याय की दिशा में ले जाने के लिए जो करना चाहिए, इसकी चिंता नहीं है।
इन दिनों हर जगह रचनात्मक सोच में ह्रास आया है और अंधानुकरण बढ़ा है। दुनिया में कल्पना के पतन का यह सबसे बड़ा सबूत है कि हम पर्यावरण, संस्कृति और मानवीय स्वतंत्रता में ह्रास का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं।
यह साहित्य की विफलता है कि आभासी यथार्थों के आतंक के कारण उसमें कल्पना का संसार सिकुड़ गया है। उसपर व्यक्तिवाद और समुदायवाद छाया हुआ है। सांस्कृतिक प्रतिवाद के लंबे इतिहास को कचरे में फेंक दिया गया है। इन सबका नतीजा है, साझे अनुभव के साथ-साथ कल्पनाशीलता में भी ह्रास आया है। साहित्य के सौंदर्य में गिरावट आई है, भले लेखकों की संख्या बढ़ी हो। इसलिए जहां-तहां आत्मविसर्जन नजर आता है, सुविधावाद दिखता है।
रचनाकारों की ‘विधायक कल्पना’ में कमी आई तो पाठकों की ‘ग्राहक कल्पना’ में भी कमी आई। साहित्यिक संसार में लुगदीपन का प्रवेश बढ़ा। साहित्य समाज में सिकुड़ा है और महानगरों में एकदम उजड़ता जा रहा है।
इस दौर में हर तरफ भीड़ की भाषा है। भीड़ को आकर्षित करने वाले बिंब, चिह्न और प्रतीक छाए हुए हैं। यह वह युग है जब अद्वैत, राष्ट्रीय एकता, श्रमजीवियों की एकता, वैयक्तिकता, विश्वमानवता जैसे सभी प्राचीन-आधुनिक मुहावरे पृष्ठभूमि में चले गए हैं और बहुस्तरीय ध्रुवीकरण है। रूढ़िवादी संकीर्ण विचारों ने आधुनिक विचारों को पछाड़ दिया है। हम भूल गए हैं कि हमारे घर में खिड़कियां हैं, और बार-बार आईने के सामने खड़े रहते हैं!
यह चिंता भी सामने आई है कि अब विचारों से परिवर्तन नहीं आने वाला है, क्योंकि समाज में भौतिक बल प्रधान हो गया है और सैकड़ों अंतर्द्वंद्वात्मक हित बन गए हैं। मेरा कहना है, यह वस्तुत: कल्पना का संकट है, कल्पना के अभाव का चिह्न है।
कल्पना की कमी ने शैक्षिक दुनिया में ज्ञानार्जन को प्रभावित किया, पुराने विश्वविद्यालय अधमरे होते गए। इस कमी की लपेट में धर्म, लोकतंत्र और मानवीय संबंध आए। बौद्धिक नवोन्मेष प्रभावित हुआ।
कल्पना की कमी ने विविधता को पनपने नहीं दिया, विरोधियों के बीच स्वच्छ संवाद और रैशनल सामंजस्य को रोका और कई बड़ी चुनौतियों के सामने निढाल खड़ा कर दिया। कल्पना की कमी के कारण ही आज यह विश्वास टूटा नहीं तो चरमरा जरूर गया है कि हमें वर्चस्वों से भरी दुनिया से एक भिन्न दुनिया कभी मिलेगी। यही वजह है कि हर कोई दूसरे को रौंदते हुए सिर्फ अपने सुख-प्रतिष्ठा की निर्मम दौड़ में है।
कल्पना का संकट कुछ औपनिवेशिक हैंगओवर की देन है और कुछ विचारधारा तथा आचरण के बीच फर्क का फल। आधुनिकता, समावेशी राष्ट्रीयता और जनतंत्र के महा-आख्यानों में विश्वास का टूटना भी एक बड़ी वजह है।
साहित्य मानवता की साझी आवाज है
साहित्य की दुनिया की एक खूबी है कि यह स्वानुभव में सीमित न रहकर हमेशा संवेदनशीलता की तरफ बढ़ी है। वह उत्तेजना पैदा करने से एक बड़ी चीज के रूप में सामने आई है। साहित्य विशिष्टता को आलोकित करते हुए भी किसी बिंदु पर मानवता की एक साझी आवाज है। हमने देखा है कि स्व-अनुभव की विशिष्टता को ‘इर्रैशनल’ या ‘पृथकता की होड़’ तक ले जाने का अंतिम नतीजा हमेशा संख्या का आतंक रहा है। अंततः बड़ी संख्या छोटी संख्या को निगल लेती है। यह खासकर 21वीं सदी में ज्यादा स्पष्ट है।
साहित्य सदा से एक प्रतिवाद है, भले सौंदर्य की छवियों में हो। उसका प्रतिवाद देश-दुनिया की राजनीति से संबंध रखते हुए भी उसकी कार्बन कॉपी नहीं है। वह क्लोन नहीं है। साहित्य के संबंध में एक समय कहा गया था, ‘साहित्य ने अनुदार भावों को जड़ से उखाड़ फेंका है।’ और यह भी कि समाज में साहित्यिक भावों का अध:पतन लोगों के अपने ‘मानसिक जीवन की हत्या’ है। (महावीर प्रसाद द्विवेदी)। साहित्य हमेशा अनुदारवाद से विद्रोह है।
हमारे समय में अनुदारता चरम पर है। यह हर युग से अधिक परिष्कृत और हिंसक रूप में है। ऐसे समय में साहित्य क्या हो सकता है, क्या कर सकता है, इसपर फिर से विचार करने का समय आ गया है क्योंकि इधर भाषा बहुत सतही, हिंसक और निर्लज्ज होती गई है। शोर है, संवाद नहीं है। कृत्रिम दूरियां हैं, रैशनल सामंजस्य नहीं है। इसलिए साहित्य का एक साझी आवाज बनना अब एक जोखिम का पथ है। यह भीड़ की भाषा से बाहर आना है, यह बिना छाता लिए ओला-बरसात में निकलना है!
साहित्य जो ढका जा रहा है, जो झूठ और विभाजनकारी है उसका प्रतिवाद है। यह प्रचलित और प्रचारित चीजों से सावधानी बरतते रहने के साथ एक आत्म-जागरूकता है। इस समय हर दृश्य के भीतर कुछ अदृश्य है, हर तथ्य में कुछ मिथ्याकरण है। हर सुखवाद में अन्याय की रक्षा और अहंकार में मनुष्यता का विभाजन है। हमारे देश में ‘बाहरी’, ‘अस्मिता’, ‘ज्ञान परंपरा’, ‘जाति’, ‘जातीयता’, ‘नैतिकता’ जैसे शब्द यहां तक कि एकता, देशहित, समानता, धर्म, विकास जैसे शब्द भी विभाजनकारी संकेत बना दिए गए हैं। इस घटना के पीछे कई विफलताएं और शक्तियां हैं, जिन्हें पहचानने की जरूरत है।
सबसे बड़ा प्रतिवाद समूचे संसार से प्रेम हो जाना है
साहित्य ने सदियों से दिखाया है कि सबसे बड़ा प्रतिवाद समूचे संसार से प्रेम हो जाना है। सूफी कवि बाबा फरीद जब किसी को आशीर्वाद देते थे तो कहते थे, ‘जा तुझे इश्क हो जाए!’ और जब दुनिया से प्रेम हो जाता है, हम संसार में सभी की पीड़ाओं के सहभागी होते हैं, सिर्फ अपनी पीड़ा नहीं कहते फिरते।
जब इतिहास नहीं बने थे, प्रतिवाद ऐसा ही था- समूची दुनिया से प्रेम। मुक्ति के लिए इतिहास के जितने अधिक टुकड़े होते गए, मनुष्य उतने अधिक बंधनों, दूरियों और पीड़ाओं से भरता गया। क्या न्याय का अर्थ कभी अन्य समुदाय के लोगों की आंखों में आंसू हो सकता है? आज देखिए तो हर जगह का साधारण जन लुटा-पिटा और डरा हुआ सीमांत पर खड़ा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि इतिहास निरर्थक है। इसका सिर्फ यह अभिप्राय है कि वह काफी नहीं है। इसलिए अतीत की सामाजिक टकराहटों और दूरियों को ही नहीं, संवाद और संबंधों को भी देखने की जरूरत है। हमें अ-पर के बोध के साथ सहयोग में बढ़े हाथों को भी पहचानना चाहिए। साहित्य में वह होता है, जो इतिहास और अन्य अनुशासनों-शास्त्रों में दबाया जाता है।
शिवमूर्ति के उपन्यास ‘अगम बहे दरियाव में’ आज के यथार्थ का सामना है, ‘आपकी लाठी चलाने के नहीं, टेकने के काम आएगी काका। जानते हैं क्यों?- क्योंकि जिनसे पाला पड़ा है उनसे लड़ने के लिए आपकी लाठी छोटी पड़ गई है।’ यह एक स्थिति है या नियति, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। आगे एक रास्ता है, ‘उनसे पार पाना चाहते हैं, तो जाति-धर्म का भेद भुलाकर संगठित होना पड़ेगा।’ उपन्यास में किसान विमर्श है, जो सभी धर्मों, जातियों और जातीयताओं का विमर्श है। बल्कि यह विमर्श से हमेशा कुछ अधिक है। यह अस्मिता की राजनीति से संबंध रखते हुए भी उसका अतिक्रमण है। ‘अगम बहे दरियाव’ सबका दर्द लेकर सीमांत पर आ खड़े हुए किसान के सभी दिशाओं में पिछड़ने की कथा है। उसके भय की कथा, बल्कि कुछ आगे की कथा भी, ‘भय को भयभीत करने के लिए… डर को डराने के लिए… जैसे जाल पड़ने पर मछलियां उछलती हैं!’ उपन्यास में विस्तृत सामाजिक दस्तावेजीकरण पर जोर है, पर उसकी जान भय को भयभीत करने की कल्पना में है। हर साहित्यिक कृति एक नए मानव भविष्य की तैयारी है।
अफ्रीकी कथाकार चिनुआ अचेबे ने कहा है, ‘हम अपनी कथाओं के बिना अंधे हैं’। इसका अर्थ है हम जब सिर्फ घाषित तथ्यों, आंकड़ों और यथार्थों को देखकर रह जाते हैं, तो अंधे होते हैं। आजकल कई झूठ तथ्य के वेश में हैं, बायोपिक ऐसे ही बन रहे हैं। यथार्थ फिक्शन के रूप में नहीं, फिक्शन यथार्थ के रूप में है। इन दिनों झूठ और यथार्थ का फर्क धूमिल हुआ है, जो भाषा की तबाही है। ऐसे ही दौर में शब्दों को ऐसा अग्निपाखी बनना है, जो अपनी राख से बार-बार जी उठे!
साहित्य पढ़ना संकट के एक नहीं, विविध रूपों से परिचित होना है
आज साहित्य की जरूरत महसूस करने वाले लोग पूरी आबादी के एक प्रतिशत भी नहीं हैं। राजनीतिक नेताओं, तकनीकविदों और व्यापारियों की साहित्य में कोई रुचि नहीं है। यह कई वजहों में एक है, जिससे यह एक अंधकारतम सदी है।
प्राचीन समय में संगीत, नृत्य और चित्र तथा अन्य ललित कलाएं काव्य-आश्रित थीं। वे समाज में प्रतिष्ठित थीं। इन दिनों पॉप म्यूजिक के बैंड इतने अधिक लोकप्रिय हैं कि इन्होंने साहित्य ही नहीं, अन्य कलाओं का महत्व भी गिरा दिया है। म्यूजिक कंसर्ट का फैशन है। ऐसे संगीत में शब्द का या किसी बड़ी कल्पना या ‘विजन’ का महत्व नहीं है। ऐसा संगीत सोचने नहीं देता। वह समाज को भीड़ में बदल देता है। लोग ऊपर हाथ और नीचे कमर हिलाते हुए सिर्फ झूमते हैं।
साहित्य पढ़ना पड़ता है, जो कठिन काम है। खुद लेखक कम पढ़ते हैं, खुद को पढ़ाने की कोशिश में जितना लगे रहते हों। समाज के विलोप से साहित्य भी विलुप्त होता जाएगा। हमें समाज को बचाने के लिए सबसे पहले कल्पना को बचाना होगा।
भीड़ का कोई अंत:करण नहीं होता, जिस तरह पत्थर का। भीड़ कल्पना नहीं कर पाती। मनुष्य का अंत:करण जिन चीजों से बनता है, उनमें संवेदनशीलता तथा आलोचनात्मक विवेक के अलावा एक तीसरी महत्वपूर्ण चीज है कल्पनाशीलता। इन सबपर मनुष्य का सौंदर्यबोध निर्भर करता है, उसका स्वत्वबोध भी। भीड़ बने लोगों के पास ये चीजें नहीं होतीं, पागल झुंड के पास बिलकुल नहीं होतीं। मनुष्य ने आदिम समय में जब झुंड या भीड़ से समाज में प्रवेश किया होगा, कल्पना का जन्म हुआ होगा!
साहित्य में तर्क, संवेदना और मूल्यबोध की संभावनाएं संगीत और अन्य ललित कलाओं की तुलना में ज्यादा हैं। इसलिए साहित्य में कल्पना की भूमिका भी हमेशा ज्यादा है, खंडन और निर्माण दोनों मामलों में। लोग साहित्य पढ़ते हुए वैचारिक संघर्ष से ही नहीं गुजरते, वे अपने सौंदर्यबोध और मूल्य-धारणाओं का भी विकास कर पाते हैं। वे परिचित चीजों को नई रोशनी में देखते हैं। वे जहां-जहां युद्ध हो रहा है, जहां-जहां भेदभाव और उत्पीड़न है, वहां-वहां की पीड़ाओं से जुड़ पाते हैं। किसी भी देश के साहित्यकार हों, वे हमें विदेशी नहीं लगते। हम वस्तुत: ‘दूसरों’ के सुख-दुख से संबंध बनाकर अपनी मानवता को उन्नत करते हैं और आत्मकैद या झुंड-मानसिकता से बाहर आते हैं।
साहित्य पढ़ना संकट के एक नहीं, विविध रूपों से परिचित होना है। महादेवी की पंक्ति याद आ रही है, ‘सब बुझे दीपक जला लूँ’!
हम शब्दों के ग्रीनहाउस में लौटना चाहते हैं
21वीं सदी में बाजार, राजनीति और टेक्नोलॉजी ने ‘कल्पना’ को ‘योजना’ से स्थानांतरित कर दिया है। अब हर चीज एक प्लानिंग है, जो कल्पना की तरह स्वतंत्र न होकर उद्देश्यपूर्ण है और सत्ता वैभव के लिए संघर्ष से संबंधित है। आदमी सोचने लगा है कि लाभ के लिए वह अपने को कहां फिट करे। दुनिया को इन दिनों वे कनेक्ट कर रहे हैं, जो ‘सशक्त मस्तिष्क-खोखले अंत:करण’ वाले लोग हैं। समाज में विभिन्न उपायों से कठोर व्यक्तियों की प्रतिष्ठा बढ़ी है।
इन दिनों विचार, संवेदना, स्वत्व, अ-पर का बोध जैसी चीजों को एकाकी मरने के लिए छोड़ दिया गया है। योजना बनाकर कल्पना का विस्थापन किया जा रहा है। क्या आसमान गिद्धों से भर जाएगा?
वर्तमान युग में साहित्य की ताकत से रील्स, वीडियो गेम, म्युजिक, अपशब्द और बम के गोलों की ताकत ज्यादा है। चिंतनशील लोग पहले से ज्यादा अकेलेपन का अनुभव करते हैं। मुख्य बात है, समाज में कमजोरों को भी जीने का हक है, अपने अंत:करण की रक्षा करते हुए और अपनी-अपनी भाषा की सुंदरताओं के साथ। लोगों को झुंड में रहने से इंकार करने का हक है। शांतिप्रिय लोग एक उदार दुनिया चाहते हैं। वे कुछ भिन्न देखना, सुनना और अनुभव करना चाहते हैं। वे पागलपन में न फंसकर उच्च मानवीय संभावनाओं को संबोधित करना चाहते हैं। वे शब्दों के अपने हरित घर में लौटना चाहते हैं।
अभी कल्पना का एकदम अंत नहीं हुआ है, मनुष्य असीम है!
vagarth.hindi@gmail.com
निश्चित रूप से हर बार की तरह सशक्त और चिंतन प्रधान सम्पादकीय ,पठनीय एवं विचारणीय ।एकाध स्थापना जो आरोपित लगी को छोड़कर शेष में मानव और मानवीयता की चिंता आन्दोलित करती है।आपसे सहमत होते हुए मानता हूॅ”अभी कल्पना का अंत नहीं हुआ है,मनुष्य असीम है।”
वाह.. आपके लेख ने समकालीन विश्व घटित समस्याओं पर भरपूर रौशनी डाली है।
Chatgpt can imitates everything which is available at google or social media but it can’t copy of imagination of great thinkers. Whatever it does, it’s a plagiarism but without being claimed copyright by any writers.
बेहतरीन जानकारी दी आपने श्री मन
बहुत ही रोचक और समय कालीन विषय पर आधारित है जिसके लिए आप हमेशा बधाई और अभिनंदन के पात्र हैं।