शंभुनाथ

11 सितंबर महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि है। हिंदी में अपने महान साहित्यकारों का स्मरण करने की परंपरा कमजोर है, क्योंकि इसके लिए खुद को थोड़ा भूलना पड़ता है। हम कह सकते हैं कि महादेवी हमारे लिए आज भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनका काव्य स्त्री मुक्ति और छायावाद दोनों को एक नया अर्थ देता है।

रामचंद्र शुक्ल के सामने स्पष्ट नहीं था कि महादेवी की काव्य-अनुभूतियाँ ‘कहाँ तक वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना है।’ अगर वे सौंदर्यात्मक कल्पना ही हों, तब भी कहना चाहिए कि हिंदी क्षेत्र की एक स्त्री कल्पना करने का साहस कर रही थी। यह एक बड़ी बात इसलिए है कि इसी क्षेत्र में दो दशक पहले राजेंद्रबाला घोष को अपनी कहानी ‘दुलाईवाली’ बंगमहिला के नाम से छपानी पड़ी थी। वे अपना नाम तक देने का साहस नहीं कर पाई थीं। सवाल है, एक कठोर पुरुष-वर्चस्व वाले समाज में क्या स्त्री कल्पना कर सकती है? महादेवी की सृजनात्मक कल्पना पुरुष-वर्चस्व का एक प्रतिरोध है। उनकी आवाज सबसे पहले स्त्री के लिए है, ‘तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना/जाग तुझको दूर जाना’!

हम जानते हैं कि पुरुष-वर्चस्व वाले भारतीय परिवार में स्त्री-कल्पनाशीलता के बंध्याकरण के सैकड़ों उपाय होते हैं या स्त्री-कल्पना साधारणतः पश्चिमी बाजार सभ्यता का उपनिवेश बन जाती है। महादेवी दोनों चुनौतियों के सामने खड़ी हुईं। यही वजह है कि उनकी कल्पना ने उनके दुख को याचक नहीं दाता बना दिया!

क्या पुरुष और स्त्री कभी एक ही तरह से कल्पना कर सकते थे? क्या निराला के ‘बादल’ और महादेवी की ‘बदली’ कभी एक हो सकते थे? ‘झूम-झूम मृद गरज-गरज घनघोर’ (निराला) और ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ (महादेवी) का फर्क समझना कठिन नहीं है। महादेवी वर्मा की ‘बदली’ भारतीय स्त्री की आत्मकथा बन जाती है, ‘विस्तृत नभ का कोई कोना/ मेरा न कभी अपना होना/ परिचय इतना इतिहास यही/ उमड़ी कल थी मिट आज चली।’ आम भारतीय स्त्री की कोई ‘स्वानुभूति’ इससे अथिक मार्मिक नहीं हो सकती।

विरुद्धों में सामंजस्य

महादेवी को कई व्यक्ति रहस्यवादी सिद्ध करने में लगे रहते हैं, जबकि उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ‘मेरे संपूर्ण मानसिक विकास में उस बुद्धि प्रसूत चिंतन का विशेष महत्व है, जो जीवन की बाह्य व्यवस्थाओं के अध्ययन में गति पाता रहा है।’ (वही)। यह जरूर है कि वे बुद्धि प्रसूत चिंतन के आधुनिक विकास और प्रकृति तथा मानवीय भावजगत के संरक्षण दोनों पर जोर देती हैं। प्रसाद की ‘कामायनी’ में श्रद्धा अपने पुत्र मानव को इड़ा (बुद्धि) के पास ही छोड़ती है। महादेवी भी बुद्धि और भावजगत के अंतर्विरोध को मिटा देना चाहती हैं, जिसका एक परवर्ती रूप ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ है।

निश्चय ही छायावाद युग विरुद्धों में सामंजस्य का युग था। आज का युग बुद्धिवाद और संवेदना दोनों का शत्रु बना हुआ है। ऐसे दौर में महादेवी सहित सभी छायावादी कवियों को फिर से समझने की जरूरत बढ़ गई है।

महादेवी मनुष्य की अंत:शक्ति, अंतर्जगत के विकास और मनोबल पर इतना जोर इसलिए देती हैं कि जब बाहरी भौतिक व्यवस्था सर्वथा प्रतिकूल हो, मनुष्य अपने अंतर्जगत की शक्ति से ही उस व्यवस्था से संघर्ष करते हुए जी सकता है, क्योंकि उसके अंत:करण में मनुष्यजाति के हजारों साल के इतिहास की शक्तियां छिपी हैं। मनुष्य में बड़े स्वप्न तभी बचे होते हैं, जब उसकी संवेदना, ज्ञान परंपराएं और कल्पनाशक्ति बची हो।

छायावाद का लक्ष्य अखंड मानवता है

हिंदी साहित्य में छायावाद के नए युग का आरंभ 20वीं सदी के खासकर दूसरे दशक से हुआ था। इसकी पृष्ठभूमि में प्रथम विश्वयुद्ध (1914-20) था, उसका प्रेरक था अंध-राष्ट्रवाद। इसकी प्रतिक्रिया में संसार में विश्वमानवता की लहर उठी। ठीक इसी समय की एक दूसरी ऐतिहासिक घटना रूस की नवंबर क्रांति (1917) है, जिसने शोषितों, खासकर श्रमिकों की ओर ध्यान आकर्षित किया। पश्चिम के दीर्घ स्त्री मुक्ति आंदोलन का नतीजा यह था कि इंग्लैंड में 1918 में और फ्रांस में 1920 में स्त्रियों को मताधिकार मिला। भारत की महत्वपूर्ण घटना है अंग्रेजी राज के विरुद्ध गांधी के नेतृत्व में 1921-22 का सत्याग्रह। स्मरण रखना होगा कि इन सभी विश्व-आलोड़नों का छायावाद या इंडियन रोमांटिसिज्म पर प्रभाव पड़ा था।

महादेवी वर्मा अपने ‘छायावाद’ शीर्षक निबंध में अपने युग के काव्य का बुनियादी लक्ष्य बताती हैं, ‘पिछले अनेक वर्षों की विषम परिस्थितियों ने हमारे जीवन को छिन्न-भिन्न कर डाला है। …उसे सामंजस्य की ओर ले चलना है।’(महादेवी साहित्य समग्र-3)। हम छायावाद युग के बरक्स आज के युग को देख सकते हैं, जब हर तरफ खंड-खंड पाखंड के दृश्य हैं। दुनिया में प्रेम, बौद्धिक स्वतंत्रता और अपनी सृजनशीलता के साथ जीना मुहाल है। हर प्रांत में इन चीजों को रौंदते अनगिनत झुंड हैं। महादेवी की नजरों में छायावाद की केंद्रीय आकांक्षा है अखंड मानवता, जो निश्चय ही कई बार रहस्यमय बिंबों में सामने आती है। जैसे उनकी एक कविता में वसंत ॠतु की रात का सौंदर्य महज प्रकृति का मानवीकरण लगता है, जबकि वह नए आधुनिक विश्व का स्वप्न है।

हम पाते हैं कि प्रसाद को उषा और संध्या प्रिय हो, महादेवी ज्यादातर अंधेरे को विषय बनाती हैं, क्योंकि स्त्रियों के जीवन में अंधेरा ज्यादा है, भले उसमें ‘वेदना के अग्निकण’, ‘रात के उर में दिवस की चाह का शर’ या वसंत रजनी का स्वप्न हो :

धीरेधीरे उतर क्षितिज से
आ वसंत रजनी!…
चिर छायासी श्याम, विश्व को
आ अभिसार बनी
सकुचती आ वसंतरजनी!

छायावाद आधुनिक युग की एक ऐसी विश्वदृष्टि है जो धर्म, जाति, देश-प्रांत के आधार पर बने बंद दायरों से विद्रोह है। महादेवी कहती हैं, ‘भिन्न परिस्थिति होने पर भी हम हृदय से एक हैं। यही कारण है कि दो मनुष्यों के देश, काल, समाज आदि में समुद्र के तटों जैसे अंतर होने पर भी वे एक-दूसरे के हृदयगत भावों को समझने में समर्थ हो सकते हैं। …जिस प्रकार वीणा के तारों के भिन्न स्वरों में एक प्रकार की एकता होती है, जो उन्हें एक साथ मिलकर चलने की और अपने साम्य से संगीत की सृष्टि करने की क्षमता देती है, उसी प्रकार मानव हृदयों में भी एकता छिपी हुई है।’ (वही)। कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण के युग में धर्म, जाति, प्रांतीयता आदि के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच दूरी सबसे ज्यादा बढ़ी है जबकि छायावाद युग में एक भिन्न चरित्र का अंतरराष्ट्रीयतावाद था। महादेवी का हृदय अपने देश के बारे में सोचते हुए भी विश्वमानवता की पीड़ा से एकाकार होता था, ‘तेरे गीतों के पंखों पर उड़ चले विश्व के स्वप्न दीन’!

रहस्यवाद है धार्मिकसामाजिक रूढ़ियों से विद्रोह

महादेवी मनुष्य जीवन और सृष्टि के बाहर किसी रहस्यात्मक शक्ति में आस्था रखती थीं, ऐसा नहीं है। उनकी कविताओं में आत्मा और परमात्मा का मिलन खोजकर उन्हें रहस्यवादी कहा गया, जबकि उनका संपूर्ण जीवन जिजीविषा, रचनाशीलता और परिवर्तन की सोच से भरा रहा है।

दरअसल महादेवी वर्मा से अधिक रहस्यवादी वे आलोचक और शिक्षक रहे हैं, जो उनकी हर कविता में अलौकिक अनुभूति ढूंढ़ते थे। छायावाद युग में रहस्यवाद पर हुई कमजोर चर्चाओं ने भी भ्रांतियाँ फैला रखी थीं, जबकि महादेवी ने उन घटाटोपों के बीच स्पष्ट कहा, ‘हृदय की सीमा एक असीमता में अपनी ही अभिव्यक्ति चाहती है।’ उनके लिए रहस्यवाद ‘अपनी व्यक्त अपूर्णता को अव्यक्त पूर्णता में मिटा देने की इच्छा’ है। महादेवी के काव्य में रहस्यवाद की जगह रहस्यमय भावना है जिसका संबंध भेदभावों से मुक्त एक परिपूर्ण मानवतावाद से है। उनका रहस्यवाद लौकिक अनुभूति है, इंद्रियातीत घटना नहीं।

महादेवी के पहले कविता संग्रह ‘नीहार’ (1930) में स्पष्ट हो चुका था कि उनका अश्रु रोने-गाने का मामला नहीं है, वह एक नए संसार के लिए तड़प है, ‘करें दृग आँसू का व्यापार/ अनोखा एक नया संसार।’ वर्तमान संसार असह्य है, इसलिए एक नया संसार चाहिए। वर्तमान संसार में सीमाएं हैं, बंधन हैं। इसलिए कुछ अनोखे, कुछ सीमाहीन और बंधनहीन की आकांक्षा है- ‘जहाँ सपने हों पहरेदार/अनोखा एक नया संसार।’ इस नए संसार में मनुष्य की आंखों में बड़े सपने होंगे।

छायावाद युग आज की तरह भोगवाद और स्वार्थ-प्रेरित समझौतों का जमाना नहीं था। वह त्याग, भावनात्मक एकता और आत्मबलिदान का जमाना था- ‘करते हों, आलोक जहां बुझ-बुझ कर कोमल प्राण।’ यह सारा कुछ मनुष्य की आजादी के लिए था, जिसके भीतर स्त्री की आजादी की पुकार भी थी। महादेवी स्त्री के लिए बना दी गईं सीमाओं को मानने के लिए तैयार नहीं थीं। वे वस्तुतः समस्त मनुष्यता को सीमाओं से मुक्त करना चाहती थीं। इसलिए असीम उन्हें आकर्षित करता था और बार-बार एक चुनौती फेंकता था जिसे रहस्यवाद समझ लिया गया। उनकी कविता में जो रहस्यमय है, वह उनके युग की ही कोई न कोई उलझन और अनिश्चयता है।

महादेवी का ‘प्रिय’ या ‘तुम’ आखिर कौन है? वह अलौकिक सत्ता न होकर असीम मानवता है। असीम मानवता ही बार-बार मनुष्य के संसार को सीमाओं, बंधनों और क्रंदन-पीड़ाओं से मुक्त करने की चुनौती देती है। महादेवी के मूल्यांकन में रहस्यवादी अतिरेक इतने ज्यादा हैं कि उनकी कविता के स्त्री-मुहावरे अव्याख्यायित रह ही गए, उनके असीम को भी नहीं समझा गया। वे अपने गीत ‘जाग बेसुध जाग’ में सोयी यशोधरा के संदर्भ में कहती हैं, ‘सुन जगाती है उसी सिद्धार्थ की पद-चाप/करुणा के दुलारे जाग’। उनकी एक पंक्ति है, ‘जाग-जाग सुकेशिनी री।’ वे संसार भर के क्रंदन अपने में भर लेने के साथ कण-कण में सौरभ बनकर बिखर जाने की बात करती हैं। वे हर जर्जरता पर हँसती हैं जो एक प्रहार है और एक ‘असीम आलोक लहर’ की कामना करती हैं। कहना न होगा कि महादेवी का ‘असीम’ आंखें बंद करने पर नहीं आंख खोलने पर दिखता है। वह जागरण का संदेश है।

महादेवी का राष्ट्रवाद

छायावाद औपनिवेशिक भारत में घटित हो रहा था। इसलिए महादेवी के छायावादी काव्य में विश्व वेदना के साथ राष्ट्रीय आवाज स्वाभाविक है। वे एक महान देशप्रेमी ही नहीं, राष्ट्रवादी भी थीं। उनकी भाषा निश्चय ही विशिष्ट है, ‘शृंखलाएं ताप से उर के गलेंगी’। मनुष्य की वेदना और मौन में इतना ताप है उसके हृदय की ज्वाला से बेड़ियां गल जाएंगी/यह एक रोमांटिक दृष्टिकोण हो, पर ब्रिटिश जुल्मों के दौर की आवाज है।

अंग्रेज प्रशासक जॉन स्ट्रेची (1823-1907) से लेकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल (1874-1965) तक दृढ़ता से मानते थे कि  भारत में न ‘भारतीय राष्ट्र’ जैसी कोई चीज है और न ‘भारत के लोग’ बोलकर कोई यथार्थ है। स्ट्रेची ने कहा था, ‘यह असंभव है कि पंजाब, बंगाल, मद्रास और पश्चिमी प्रांत के लोग कभी महान भारतीय राष्ट्र के सूत्र से बंध सकें।’(इंडिया)। क्या आज की स्थितियों को देखते हुए यह एक सत्य कथन है?

महादेवी के युग में देश में समावेशी राष्ट्रीय भावना न केवल फैलने लगी थी, बल्कि राष्ट्रीय आंदोलनों के आगे बढ़ने के साथ मजबूत होने लगी थी। राष्ट्रीय एकता निर्मित करने में एक बड़ी बाधा धार्मिक राष्ट्रवाद है। छायावाद के सामने भी यह समस्या थी। इस युग के सभी कवियों ने इसका अपनी-अपनी तरह से सामना किया।

महादेवी धार्मिक थीं, पर वे ईश्वर की आराधना को एक वैयक्तिक विषय मान रही थीं। वे बाहरी पूजा-अर्चना को महत्व नहीं देतीं और अपनी आत्मा को ही मंदिर मानती हैं, ‘क्या पूजा क्या अर्चन रे!’ वे जब धर्म को दिखावा की जगह आंतरिक अनुभूति के रूप में देख रही थीं, निश्चित रूप से धार्मिक राष्ट्रवाद का एक भावनात्मक प्रतिपक्ष भी रच रही थीं। उनका लक्ष्य ‘भिन्नता’ के अंग्रेजी षड्यंत्र का विरोध करना था।

महादेवी मंदिर में बिना किसी प्रभापूर्ण दिखावे या आम शोर-शराबे और शंख-घड़ियाल के दीपक के नीरव जलने की कल्पना करती हैं। वे कहती हैं- देखो, दिन के हास्यास्पद शोर-शराबे के बाद रात में उनका ‘देवता’ कितना अकेला है। उसके अकेलेपन में दीप के चुपचाप जलने का एक अर्थ है। उसमें जीवन के आंगन (अजिर) की रिक्तता को गला देने की अनोखी क्षमता है। यह एक दिग्भ्रांत समय है, हर ओर तूफान छाया है और देश एक बौद्धिक मूर्च्छा से गुजर रहा है। इस समय ज्योति की आराधना करने वाले हर व्यक्ति को रात में नई सुबह होने तक प्रति पल जागते रहना होगा। धार्मिक शोर की जगह सच्ची भावना की जरूरत है। शोर में तो सिर्फ शोर होता है!

यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो
रजत शंख घड़ियाल स्वर्ण वंशीवीणा स्वर
जब था कल कंठों का मेला
विहँसे उपल तिमिर था खेला
अब मंदिर में इष्ट अकेला
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो
झंझा है दिग्भ्रांत रात की मूर्च्छा गहरी
आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी
जब तक लौटे दिन की हलचल
तब तक यह जागेगा प्रति पल

महादेवी को ‘राष्ट्र’ की विडंबनाओं का बोध था, ‘हमारा वर्तमान समाज जाति-प्रजाति, समता-विषमता में विभाजित है। हमारा धर्म अंधविश्वास से ग्रसित है। हमारी राजनीति स्वार्थ से विभाजित है। हम केवल विभाजित ही विभाजित हैं।’(वही) उनका भरोसा युवा पीढ़ियों पर था, ‘किसी युग का सबसे बड़ा वसंत उसका तारुण्य है, उसकी नई पीढ़ी है।’ (महादेवी साहित्य समग्र-3)। उन्हें युवक-युवतियाँ रुढ़िग्रस्त अतीत के बोझ से कम लदे दिखते थे। नई पीढ़ी में पुराने स्वभाव और लक्ष्यों से भिन्न कुछ नया चुनने का उत्साह होता है। महादेवी ने इसी आशा में जीवन भर तूफानों के बीच अपनी मानवतावादी आस्था की लौ बुझने नहीं दी।

महादेवी का सामाजिक सक्रियतावाद

महादेवी का जीवन आज के लेखकों के लिए सामाजिक सक्रियतावाद के संदर्भ में एक विशेष उदाहरण है। वे अपने साहित्यिक लेखन के अलावा स्वाधीनता आंदोलन में सहयोग देती थीं। उन्होंने 1942 के आंदोलन में विद्रोहियों के परिवार वालों की सहायता की थी। वे लड़कियों की शिक्षा के लिए तत्पर थीं। उन्होंने ‘साहित्यकार संसद’ की स्थापना की थी। सभी लेखकों को वे एक साहित्यिक महापरिवार के सदस्य के रूप में देखती थीं। निराला को राखी बांधती थीं। उनके बुनियादी रुझान सामाजिक थे। उनमें क्रांतिकारी बड़बोलापन न था, पर जीवन एक क्रांति से कम न था।

उनके राष्ट्रवाद में 1942 का बंगाल का अकाल है, जब उन्होंने ‘बंगदर्शन’ शीर्षक से एक पुस्तिका छपाई और इसके पैसे से बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए सामग्री भेजी।

महादेवी ने बंगाल के अकाल के संबंध में अमर्त्य सेन से काफी पहले लिखा था, ‘यह तो मनुष्य के स्वार्थ की शिला पर उसके ही प्रयत्न और बुद्धि द्वारा निर्मित नरक है।’ बुद्धि और स्वार्थपरता के मिलन का नतीजा हमेशा तबाही है।

आपातकाल के दौर में जब बहुत से बड़े लेखक चुप थे, हिंदुस्तानी अकादमी के सभागार में महादेवी ने खुलकर अपना विरोध प्रकट किया था, ‘आज सारा देश कारागार हो गया है और सबकी जबान पर ताले लगे हुए हैं। निराला जी होते तो ऐसी स्थिति कतई नहीं सह पाते।’ महादेवी एक क्षण भी स्वतंत्रता के बाहर सांस नहीं ले सकती थीं। पता नहीं क्यों अधिकांश हिंदी लेखकों के बीच से यह निर्भय सक्रियता धीरे-धीरे बाजार के तराजू पर चढ़ती गई। महादेवी का ‘एक्टिविज्म’ रहस्यवाद का अनायास विखंडन कर देता है। यह एक स्त्री का एक्टिविज्म है, भय से बाहर निकल चुकी स्त्री का। वह लेखन ही क्या, जो लेखक को भय और लोभ से बाहर न निकाले।

मातृत्व स्त्री की अंतिम मंजिल नहीं है

महादेवी वर्मा के मन में पुरुष-वर्चस्व के प्रति आक्रोश था, ‘भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग-बिरंगे पक्षी पाल लेता है, उपयोग के लिए गाय-घोड़े पाल लेता है, उसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों के समान ही उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है।’ (शृंखला की कड़ियाँ, 1942)।

प्रसाद का आंसू स्मृति से जन्मा हो, महादेवी का अश्रु स्त्री के सीमाबद्ध जीवन का बिंब है। उसका यथार्थ है, ‘अश्रु चुनता दिवस इसका/ अश्रु गिनती रात’। पंत जब स्त्री को मां, सहचरि और प्राण के साथ ‘देवि’ बता रहे थे, निराला जब महादेवी को ‘स्फूर्ति, चेतना, रचना की प्रतिमा कल्याणी’ कह रहे थे, खुद महादेवी ‘देवि’ और ‘कल्याणी’ की धुंध से बाहर निकलकर स्त्री होने के दर्द का तल्ख अनुभव कर रही थीं। वे कहती हैं, ‘रात सी नीरव व्यथा तम सी अगम मेरी कहानी’। महादेवी को पढ़ना इस सभ्यता के एक खास मौन अंधेरे को भी पढ़ना है। उनके लिए यह संसार कैसा है- ‘शूल भरा जग, धूल भरा नभ!’ संसार बाधाओं-विपत्तियों से भरा है। बाहर छाए धुंध के कारण रास्ता नहीं सूझ रहा है। इसलिए महादेवी में एक गहरी जिज्ञासा है- ‘कौन तम के पार रे कह?’

महादेवी एक विद्रोही स्त्री थीं। उनके मन में एक बार बौद्ध भिक्षुणी बनने की इच्छा जन्मी थी, क्योंकि हिंदुओं में पर्याप्त करुणा नहीं मिली। महादेवी का विद्रोह ही था कि उन्होंने अपने बाल विवाह को नहीं माना, पति के घर जाने से मना कर दिया। उन्होंने लेखन, स्वाधीनता संग्राम और स्त्री-शिक्षा में हिस्सा लिया। वे बेधड़क पुरुष के क्षेत्रों में गईं। उन्हें कोई निजी दुख नहीं था, पर उनके भीतर एक स्त्री अंधेरे में लगातार रो रही थी।

छायावाद ने ‘दूसरे’ की पीड़ा की साझेदारी में अपनी खुशी का विस्तार देखा था। इस काव्यांदोलन ने वर्तमान संसार में एक नया संसार बनाने का स्वप्न देखा था। भारत के सांस्कृतिक इतिहास में छायावाद महान स्वप्न देखने का सबसे बड़ा युग था।

महादेवी मातृत्व को स्त्री के लिए सम्मान की चीज मानते हुए भी इसे उसकी अंतिम मंजिल नहीं समझतीं। वे स्त्री के संबंध में राष्ट्रवादी धारणाओं का अतिक्रमण करती हैं। कहती हैं, ‘चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना/ जाग तुझको दूर जाना।’ निश्चय ही एक अस्त-व्यस्त, कोलाहल भरे संसार में यह दूर जाना अनंत और कालातीत में छलांग नहीं है। यह स्त्री के स्वतंत्रता के लंबे सफर पर निकलने का मामला है। बाजार द्वारा स्त्रियों के लिए निर्मित की जा रही कृत्रिम इच्छाओं के संदर्भ में यह पंक्ति एक गहरा संकेत देती है, ‘पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले।’ ऐसी पंक्तियों में स्त्री से नव-जागृति का आह्वान है। इसलिए महादेवी कहती हैं, ‘मैं लगाती चल रही नित/ मोतियों की हार और चिनगारियों का एक मेला।’ अश्रुओं में चिनगारियां भी हैं, यहां मोती का अभिप्राय अश्रु है!

यह जानकर विस्मय हो सकता है कि स्त्री विमर्श के दौर में ‘संवेदना’ के समानांतर जो ‘स्वानुभूति’ शब्द चर्चा में आया, उसका पहला प्रयोग महादेवी ने किया था। उन्होंने ‘शृंखला की कड़ियां’ में लिखा, ‘पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है, परंतु नारी के लिए अनुभव।… कोमलता और भावुकता ऐसी लौह शृंखलाएं हैं जो देखने और सुनने में ही कोमल जान पड़ती हैं पहनने में नहीं…।’ वे ‘स्वानुभूति’ से इनकार नहीं करते हुए ‘संवेदना’ की जरूरत बताती हैं। संवेदना स्वानुभूति को सभी वंचित वर्गों की पीड़ा से जोड़ती है।

महादेवी स्त्री पक्ष से बोलते हुए केवल स्त्री विमर्श तक नहीं रुकतीं। आज के कई साहित्यकार अपने सामुदायिक वृत्त के बाहर कम निकलना चाहते हैं, जबकि महादेवी स्वानुभव से बाहर निकलकर कहती हैं, ‘अलि मैं कण-कण को जान चली/ सबका क्रंदन पहचान चली’। उन्हें संपूर्ण मनुष्यजाति और सृष्टि के क्रंदन की चिंता है। इधर संकुचित राष्ट्रवाद ने विमर्शों को प्रभावित किया है। निजी या स्थानीय स्वार्थ सर्वोपरि हो उठा है। अब कोई देश आश्रयप्रार्थी विस्थापितों को अपने इलाके में घुसने देना नहीं चाहता। हर देश में, हर प्रांत में ‘भीतरी-बाहरी’, ‘हम-वे’ की धारणाएं हैं जो इन दिनों अधिक लोकप्रिय भी हो गई हैं। महादेवी के युग की सोच भिन्न थी। वे दीप के आलोक में आंधी का गान गाती हैं :

सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज
दीपक रागिनी अपनी जगा लूं
क्षितिजकारा तोड़कर अब
गा उठी उन्मुक्त आंधी
अब घटाओं में न रुकती
लास तन्मय तड़ित बांधी
धूल की इस बीन पर मैं
तार हर तृण का मिला लूं।

एक कठोर सामंती समाज में लीक पर न चलने वाली स्त्री अकेलेपन का अनुभव करती है। महादेवी का दीपक एक है और अकेला है। यह दीपक स्त्री का अकेला ‘आत्म’ है, ‘धूप-सा तन दीप-सी मैं!… तम जलधि में नेह का मोती रचूँगी सीप-सी मैं!’ महादेवी की स्त्री विद्रोही, स्वाभिमानी सृजनकर्ता और अकेली है। उसके अकेलेपन में सृजन की उद्दाम लालसा है। महादेवी नहीं चाहतीं कि उनका दीपक भभक-भभक कर जले। वह उग्रवाद नहीं चाहतीं। वह ऐसी मोमबत्ती होना भी नहीं चाहतीं, जो दोनों सिरों से जलती है। इतनी स्पीड उन्हें पसंद नहीं है। प्रसाद कहते हैं, ‘उठ-उठ री लघु-लघु लोल लहर’। महादेवी कहती हैं, ‘मधुर-मधुर मेरे दीपक जल’। उनमें विचारों की कमी नहीं  है, पर एक शालीनता है, जो बुरी चीज नहीं है।

सवाल है, हम महादेवी की पीड़ा को कैसे पढ़ें। यह बड़ी आकांक्षाओं और कठोर यथार्थों की टकराहट से जन्मी पीड़ा है, ‘है तुझे अंगार शय्या पर मधुर कलियां बिछाना’! स्पष्ट है कि  भाषा के स्त्री-वैशिष्ट्य को सुनना होगा। पेरिस ओलंपिक (2024) में अरशाद नदीम के भाला फेंकने की प्रतियोगिता में स्वर्ण पा जाने तथा नीरज चोपड़ा के पिछड़ कर रजत पाने पर जब नीरज की मां से पूछा गया कि उन्हें कैसा लगा, उन्होंने जवाब दिया कि वह तो अरशाद नदीम की भी मां है! एक स्त्री ही इस तरह सोच सकती है।

सैकड़ों साल बाद हिंदी क्षेत्र में महादेवी जैसी एक स्त्री सधे शब्दों में बोल रही थी और बोल-बोल कर पहली बार खुलकर इतना हँस रही थी। रामविलास शर्मा ने टिप्पणी की थी, ‘मुझे लगा कि वह बात-बात पर हँसती हैं और बिना बात के भी हँसती हैं। मैं कभी किसी स्त्री की हँसी से इतना हतप्रभ नहीं हुआ।’ समाज को स्त्री का ज्यादा हँसना विचलित करता है।

महादेवी वर्मा ने स्त्री से की जाने वाली हर पुरुषसत्तात्मक अपेक्षा को चुनौती दी। वह अपनी हँसी में जितनी खुली हुई थीं, अपने अश्रु में उतनी ही मौन। स्त्री का मौन भी एक प्रतिवाद है। एक स्त्री अपनी वेदना और मौन को जितनी शक्ति से एक सृजनात्मक अस्त्र में बदल सकती है, पुरुष ऐसा नहीं कर सकता। स्त्री हजारों साल से अपनी वेदना और मौन के भीतर से ही लड़ती आई है। महादेवी की कविताओं में वेदना और मौन का अनोखा सौंदर्य है। ये भाषा की सरहद पर वर्चस्व के हर रूप के विरुद्ध अपना अनंत अहिंसक युद्ध छेड़े रहते हैं।

दुख दुनिया का सबसे बड़ा यथार्थ है और यह संपूर्ण छायावादी साहित्य के केंद्र में है। दुख के संबंध में महादेवी कहती हैं, ‘दुख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जो सारे संसार को एक सूत्र में बांधने की क्षमता रखता है। हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुंचा सकेें, किंतु हमारा एक बूंद आंसू भी जीवन को अधिक मधुर अधिक उर्वर बनाए बिना नहीं गिर सकता।’ महादेवी ने देखा था कि अधिक सुख किस तरह आदमी को अमानवीय बनाता है!

सच्चे कलाकार को गुलामी असह्य होती है

महादेवी वर्मा ने ‘चांद’ के विदुषी अंक (1935) के अपने संपादकीय में लिखा है, ‘विद्वानों का यह मत कि स्त्रियां श्रेष्ठ कलाकार नहीं हो सकतीं, निरर्थक ही नहीं अनुचित भी है।’ वे चाहती थीं कि हिंदी क्षेत्र की स्त्रियाँ रसोई कला से ऊपर उठें। उन्होंने खुद काव्य रचना के अलावा स्त्री और प्रकृति से जुड़े सुंदर चित्र बनाए जो ‘दीपशिखा’ और ‘यामा’ में कविताओं के साथ छपे हैं। उनके चित्रों में आंख से जो दिखता है, उसकी जगह मन में जो दिखता है वह आंका गया है। अधिकांश चित्रों में ऐसी स्त्री का बिंब है, जिसकी वेदना सुलग कर ज्योति में बदल रही है!

दुनिया की सभी भाषाओं में रोमांटिसिज्म ने साहित्य और कलाओं के अंतर्संबंध को मजबूत बनाया है। काव्य, चित्र और संगीत की निकटता छायावाद की सामान्य प्रवृत्ति है। खासकर संगीत, चित्र, स्थापत्य, मूर्ति, नाटक, फिल्म आदि के संसार में रोमांटिक युग ने स्वच्छंद कल्पना के नए द्वार खोले थे। हिंदी के सभी छायावादी कवि सौंदर्य प्रेमी होने के साथ कला-प्रेमी थे। प्रसाद ने काव्य को श्रेष्ठ कला के रूप में देखा था, हालांकि संगीत और नाटक से भी अपने को जोड़ा था। ‘स्कंदगुप्त’ की देवसेना के लिए संगीत एक जीवन दर्शन है। निराला ने ‘गीतिका’ (1930) की भूमिका में दुख व्यक्त करते हुए लिखा था, ‘सब तरफ अभाव ही अभाव का सामना करना पड़ा। एक हारमोनियम की गुंजाइश भी मेरे लिए नहीं हुई।’ पंत ने कुछ समय प्रख्यात नृत्याचार्य उदयशंकर के कलाकारों के दल के साथ काम किया, उसके साथ मद्रास गए। छायावाद ने कलाओं का महत्व प्रतिपादित किया, पर हिंदी समाज में कलाओं का दिल खोलकर स्वागत नहीं हुआ।

महादेवी वर्मा ने व्यावसायिक मीडिया में स्त्रियों को यौनिक वस्तु बनाकर छपने वाले चित्रों का विरोध किया था- ‘युवती का चित्र देना कोई दोष नहीं है, परंतु उसके पीछे जो एक पाशविक मनोवृत्ति छिपी है, उसे अमंगलमयी कहना चाहिए।’ आजकल के विज्ञापनों में स्त्री बड़े पैमाने पर एक यौनिक वस्तु है। महादेवी ने ‘कलाओं को जीवन संगिनी’ कहा था, पर ग्लैमर-भरे मनोरंजन उद्योग ने हिंदी क्षेत्र के लोगों के सौंदर्यबोध को जितना बिगाड़ा, किसी अन्य भारतीय भाषा में ऐसा सांस्कृतिक विध्वंस घटित नहीं हुआ।

आज रवींद्रनाथ को जिस तरह बंगालियों के घर-घर में गाया जाता है हिंदी क्षेत्र में प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी गाए नहीं जाते, लोग सेलेब्रिटी के दीवाने हैं! हिंदी क्षेत्र में साहित्यकारों का सम्मान नहीं है। सरकारें अतीत के महान साहित्यकारों को भी नहीं पूछतीं, इनके स्मारक खो गए। यह दिल को कचोटने वाली बात है।

आजकल के सारे व्यावसायिक कलाकार विकृत रुचि के गुलाम हैं। उन्होंने हिंदी क्षेत्र का बड़े पैमाने पर बौद्धिक सतहीकरण किया है। उन्हें अधिक पैसा चाहिए। उनके पास करोड़ों की संपत्ति है, पर अरबों चाहिए!

1920-30 के दशक में अवनींद्रनाथ ठाकुर शांतिनिकेतन में चित्रकला के शिक्षक थे। वे विद्यार्थियों को कला की शिक्षा देते हुए बताते थे, पिंजरा खोलकर खरगोश को मुक्त कर दो। जब वह छूट कर भागे, ठीक उस समय उसकी मुक्ति की भंगिमा मन से पकड़कर कागज पर आंकना।

रोमांटिसिज्म ने सिखाया था, कला की अर्थवत्ता बाजार और सत्ता-केंद्रों द्वारा पोषित विकृत रुचियों से मुक्ति में है। हमारे जीवन की अर्थवत्ता भी इसी में है!