प्रमुख कथाकार।विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
माटी की लाज रखी तो डायरेक्टर साहब ने।इतने ऊंचे पद पर जाकर भी गांव को नहीं भूले।पुरखापति का नाम रोशन कर दिया।इलाके में उनके इस लगाव की नाल बज रही है।लोग शहर क्या गए, रिश्ता-नाता ही भूल गए।शूरा कहे कोई इस पूत को! क्या मजाल कि कोई जड़ को हिला-डुला दे! सर-समाज और कुल-मरजाद दोनों की शान में इजाफा किया।भगोड़ा शहरियों को दिखा दिया कि तुम जिन निशानियों को कौड़ी के भाव बेच गए, उन्हें वे जतन से संभाले हुए हैं… वैसे इतना तो वे भी समझते हैं कि उनके बच्चे गांव आने से रहे, पर इससे क्या? जीते जी वे क्यों अपना धरम तोड़ें… नहीं आना है, मत आओ, पर उन्हें अपनी मिट्टी से जुड़ कर जो सुख मिलता है, तुम क्या जानो… वह कैसे गांव-घर, लोक-वेद और यहां के दूध-फूल को भूलें…? गांव उनका धाम है… पवित्र तीर्थ… जब तक यह जिनगानी है… उनका आना-जाना लगा रहेगा… हां मरने-हरने के बाद जो जो करे, रक्खे कि बेचे, पर जीते जी यह नहीं हो सकेगा।वे तो रिटायर होकर भी यहीं रहेंगे… शहर तो उनका परदेश है, लेकिन गांव देश…।
…सचमुच डायरेक्टर साहब साल में चार-पांच बार गांव आ जाते।दो-चार दिन रह कर खेती-बाड़ी देखते।घूमते-टहलते और फिर मोटरगाड़ी पर सामान लेकर वापस शहर लौट जाते।लोग-बाग उनके जाने के बाद भी उनके गांव-प्रेम की चर्चा करते।गुदड़ी का लाल कहते…।
हां, एक कटु सच यह भी था कि डायरेक्टर चाची जो शहर गईं, तो फिर गांव लौटकर नहीं आईं।लेकिन इसपर उनका क्या अख्तियार? अपना-अपना सुभाव होता है भाई।जब डायरेक्टर चाची नहीं आईं, तो बच्चे क्या आते… वे तो शहर में पले-बढ़े थे।उनका क्या लगाव होता गांव से…? कठकरेज तो डायरेक्टर चाची ही निकलीं, जो एकदम से भुला दिया सबको… अब डायरेक्टर साहब क्या करें, किसी को जबड़न तो नहीं ला सकते मोटरगाड़ी में… उनकी इत्ती ही बलिहारी कि वे अपना फर्ज नहीं भूले, नहीं तो कौन आता है अब गांव धूल फांकने…?
कोई आए नहीं आए, पर गांव में कहावत है… अकाल नहीं अच्छा, जी का जंजाल अच्छा… सोने का घर नहीं अच्छा, कंगाल अच्छा… परदेश के सौ कल्प सुख नहीं, अपना गांव, घर और धूल-माटी का अपना संसार अच्छा… यह क्या कि आदमी परदेश जाकर सब कुछ भूल जाए! जाने किस बात से चाची विरक्त हो गईं, तो साफ विरक्त हो गईं अपने ठिया-ठांव से।साफ भूल ही गईं अपने दुरा-देहरी को… अब आ भी जाएं, तो अभिमान और दर्प से चूर उनके शहरी तेवर को देखकर किसे विश्वास होगा कि वह गांव की घरेलू लड़की थीं… चंपा, रंभा, छुटकी जैसियों की सहेली पांच-सात किलास पास।नदी-पोखर नहाने वाली, गीत-नाद करने वाली, जर-जट्टिन खेलने वाली? गाय को जैसे खूंटे से बांधा जाता है, उसे भी उसके बाबू चाचा के दुरा पर बांध गए… अब उस प्रारब्ध को क्या कहा जाए कि कोई पुटलीपुर से पोर्ट ब्लेयर चला जाए।चाची के साथ भी यही हुआ।चाचा डायरेक्टर बने अपने विभाग में और चाची गांव को भूल कर शहरी! कहते हैं तीन लाख की चाची, नौ लाख की फुटानी! गांव के नाम पर पैर उल्टा कर लिया उन्होंने!
यह बात भी जग जाहिर है… नदी और औरत राह बदल ले, तो जमाना लग जाता है लौटते।डायरेक्टर साहब जिन सवालों से बचना चाहते हैं गांव में, वह है डायरेक्टर चाची की चर्चा।लोग–बाग डायेरक्टर चाची के बारे में सौ सवाल करते हैं, मन है कि पत्थर? साफ भूल गईं हम सब को।कुछ याद है कि नहीं?
‘क्या हो रामेसर, कनिया नहीं आएगी?’
‘आएगी चाची! अभी न्यूजीलैंड गई है, बेटा के पास…’ डायरेक्टर साहब कहते हैं और सोचते हैं, एक बार सविता और बच्चों को लाना होगा… वे अनमना कर खेत की ओर निकल जाते हैं।वहां रग्घू कक्का से भेंट होती है… गप-शप! हँसी-ठट्ठा! दिलेसर, मोहन, सोहन सब उनसे सवाल पर सवाल करते हैं शहर को लेकर… ‘शहर में क्या खास बात है कि उधर जाकर लोग इधर की राह भूल जाते हैं रमेसर भाई? कौन सा मोहिनी-मंत्र है शहर में…?’
वे हँस कर कहते हैं, ‘कुछ नहीं है भाई… ईंट-पत्थर के बड़े-बड़े मकान हैं, सड़क-रोड का जाल… मोटर-कार का धुआं… ट्रैफिक जाम… आकाश भी नहीं दिखता… लोग भी पराए-बेगाने… गांव वाली बात कहां? प्रदूषण और भीड़… हरदम चख-चख… कहीं चैन नहीं… दफ्तर से भागो घर और घर से दफ्तर… वह भी हर जगह बस-ट्राम-ट्रेन में ठेलम-ठेल, रेलम-पेल… आदमी मशीन हो जाता है शहर में… मशीन भी नहीं, उसका कल-पुर्जा…’
‘मगर नोट तो मिलता है रमेसर भाई…’ कोई बात की लीक काट कर कहता है, ‘नोट है तो समझिए वही शहर स्वर्ग जैसा भी लगता है…’
‘नहीं, नहीं स्वर्ग का भरम है शहर … तुम लोग मेरे साथ चलो, दो दिन में भाग कर आ जाओगे…’ वे मुंह बनाकर कहते हैं, ‘जैसे शहर में रहने की सजा भोग रहे हों…!’
‘रामेसर बेटा! रग्घू कक्का कहते हैं, ‘तुमको देख-सुन कर जी जुड़ा जाता है, जय प्रकाश भी आता, तो कितना अच्छा होता, गांव का नाम ही भूल गया शहर जाकर… एक तुम हो कि गांव से कितना सिनेह रखते हो, चलो कोई तो निकला अपने कुल-वंश में, जिसकी नाल बज रही है चारों ओर…’
डायरेक्टर साहब विभोर हो जाते हैं अपनी प्रशंसा सुनकर! जमीन की हरियाली धंस जाती है उनके सीने में।नौकरी के बाद पचीस बीघा और जमीन खरीदी है उन्होंने।भाइयों से भी कह दिया है कि कोई जमीन बेचे, उनसे बेचे, कोई मान-मरजाद है कि नहीं, वे दूसरे की जमीन खरीदें और अपने भाई-बंद तुलसी झा का निहोरा करें… दू पैसा बेसी सही…
रघू कक्का फाग जैसा कुछ गाते हैं-
सौ में एक रमेसर बेटा/शहर छोड़ कर गांव को आवे/माटी में हलरावे, दुलरावे/कस कर बांधे अपना फेंटा…/जोगीरा… सारा…रा…रा…
कक्का होली में फाग गाते हैं, नामी गवैय्या हैं।तुक जोड़ने में माहिर… आशु कवि हैं कक्का.. सभी हँस पड़ते हैं… डायरेक्टर साहब को खुशी होती है।उन पर कक्का फाग गा रहे हैं।कोई आवे नहीं आवे, वे तो आ रहे हैं।कितनी बार तो कहा पत्नी और बच्चों से कि तुम लोग भी चलो, पर किसी के चेहरे पर कोई हरारत नहीं… उन्होंने हार मान ली, मगर खुद अपनी टेक पर रहे।सबसे कहते रहे,…
गांव मुझको बुलाता है… नींद में आकर जगाता है… कहता है चलो रमेसर… बस मैं तैयार हो जाता हूँ… धूल–माटी नहीं, मेरा अंक–अकवार है गांव… मन ही नहीं लगता है शहर में… मैं तो ताल ठोंक कर कहता हूँ कि गांव चल कर देखो… भरम टूट जाएग… शहर तो बेगानी दुनिया का नाम है भैय्या… पर कोई माने तब तो… कह तो रहा आर्क–पार्क में गांव जैसी खुली हवा कहां? पूरा शहर दमा का मरीज… खों–खों करो…।हर बार उनकी अमृत वाणी सुन कर आदमी तो आदमी गांव के पीपल–बरगद की खुशी छलक पड़ती… रग्घू कक्का का फाग फिजां में गूंजने लगता।
कभी गाड़ी पर नाव, तो कभी नाव पर गाड़ी! किसके भाग से किसका छींका टूटा! बरसों बाद आखिर रिटायरमेंट के बाद डायरेक्टर चाची गांव आईं।उनको देखने के लिए मेला लग गया आंगन में।कोई हित बैन बोल रही, तो कोई छित बैन…
‘पहचाने कनिया?’ कोई बोली, तो दूसरे ने काट किया, ‘भाभी एकदम बदल गईं, अब हम गंवारिन को क्या पहचानेंगी… कहां सांप जैसे बाल, कहां बॉबकट… भाभी में सब बदल गया… शहर जाकर शहरी हो गईं…’
डायरेक्टर चाची सुंदर तो थीं ही जबांफरेब भी कम नहीं।हँसकर जवाब में बोलीं, ‘गांव को और अपने लोगों को कौन भूलती है चंपा दाय… जो मैं भूलूंगी… चाचा से सब समाचार लेती थी… जी कलकता था, पर छुट्टी ही नहीं मिलती थी।’
‘छुट्टी तो निकालने से निकलती है।’ चंपा ने भी तंज कस कर कहा, ‘बस नेह-लगाव की नदी नहीं सूखे…’
‘सो तो है।’
‘चंपक, चाय बनाओ सबके लिए।’ चाची ने विषयांतर किया, तो बातचीत का अंतर्जाल बदल गया।चाची अपनी इस विस्मयकारी कला पर खुद मन ही मन मुस्करा कर रह गईं।
आसमान में जहाज देख कर कोई नहीं कह सकता कि कहां से आ रहा और कहां जा रहा।लोग इस तरह अचानक आने और जाने का कारण तत्काल नहीं जान सके।साफ-सफाई, पूजा-पाठ सब हुआ।पूरा हुल-हुलास।पर यह राज खुला एक महीना बाद, जब पता चला डायरेक्टर साहब सब कुछ बेच -बिकिन कर सात समुंदर पार बेटे के पास न्यूजीलैंड चले गए रहने।देश क्या, विदेश के नागरिक हो गए।
एक पल को सुन-जान कर किसी को विश्वास नहीं होता, पर बात सच थी।तुलसी झा पचास आदमी को कागज दिखा चुके थे।डीह-डाबर…घर-मकान सब गोल।सबसे ज्यादा चोट लगी रग्घू कक्का को! सब को जनम भर ठगते रहे डायरेक्टर साहब! माल-पूंजी जमा करते रहे।समय आने पर फुर्र हो गए… मन में चोर लेकर रहे सबके साथ… कितना बड़ा दगा किया… कैसी नाल बजाई? नाक ही काट गए… अब क्या भरोसा करे कोई शहरी तीन कौआ पर… सब भ्रष्ट हो गया…
कुछ महीने बाद होरी थी।होरी आई तो लोगों ने देखा, रग्घू कक्का गला में नाल लटकाए… फगुआ गा रहे हैं…
सा…रा…रा…/जोगीरा सारा…रा…रा/नाक काट कर रमेसर भागा/गांव अभागा/भाग न जागा/होली में है वह नागा/न्यूजीलैंड में बोले कागा/जोगीरा सारा.. रा…रा…
लोग–बाग बौड़म हो गए कक्का के पीछे।ई कक्का को क्या हो गया भाई… खाली डायरेक्टर साहब पर भड़ास निकाल रहे।एकदम पगला गए हैं क्या? भांग–धतूरा खाते–पीते… गाते– बजाते… झूमते–झामते… उन्होंने नाल फाड़ दी और घर आते–आते औंधे मुंह गिर गए दलान पर… गला में फटी नाल लिए… देर तक बड़बड़ाते रहे, दिल को इत्ती चोट दे गए कि अबकी नाल फट गई रमेसर…।
सांझ घिर रही थी।होली का धमाल लगभग अपने अंत पर था।कक्का के गले से नाल निकाल कर उन्हें दलान पर लिटा दिया लोगों ने।रामेश्वर बाबू के गांव से भागने से वे इतने आहत थे कि अभी भी उनका जी कसक रहा था…।कुछ देर बाद नशा फटा तो वे उठ कर बैठ गए।
‘मन ठीक है न कक्का?’ रामसुदेश ने पूछा।
‘हां…’ उन्होंने उंगली चटकाते हुए कहा।
‘तुम फिकिर मत करो, अगले साल तक नाल बन जाएगी…’
‘अब नाल बना कर क्या होगा रामसुदेश…’ उन्होंने लंबी उसांस लेकर मन ही मन कहा, ‘जी का जोश ही चला गया… अब किस बात पर कोई नाल बजाएगा… गांव का मोल माटी में मिल गया… अब रहा क्या गांव में?’ उनका दिल बाथी की तरह फिर बैठ गया, ‘अब यह नाल नहीं बनेगी रामसुदेश… मुझसे बजाया ही नहीं जाएगा… मैं फाग भी नहीं गाऊंगा…’
रामसुदेश अवाक रह गया, कक्का का दर्द उसे आर-पार वेध गया।
संपर्क : प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला कॉलेज, पूर्णिया–८५४३०१ मो.९४३१८६७२८३
Paintings by : Nicolae Prisac