कवि और समीक्षक. विद्यासागर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर एवं प्रबुद्ध रंगकर्मी.
कविता ने हमेशा मानव मन की बेचैनियों को बचाया और चेतना को उद्वेलित किया है। हिंदी कविता का तेवर बदला है। छोटी-छोटी जगहों से कवि आ रहे हैं, उन जगहों की आवाजें हिंदी काव्य-संसार में सुनाई पड़ रही हैं। गौर किया जा सकता है कि अपने समय के सच को लेकर इन दिनों कई नए संग्रह आए हैं।
![]() |
एकांत श्रीवास्तव का नया संग्रह है ‘सूरजमुखी के खेतों तक’। ‘अन्न हैं मेरे शब्द’, ‘नागकेसर का देश यह’ जैसी कृतियों के कवि एकांत श्रीवास्तव का कविता-प्रदेश बहुत उर्वर है। इनकी कविताओं में है आत्मीयता से भरा शब्द स्पर्श। कविताएं अपनी ऊष्मा और अपनत्व से पाठक को बांधती हैं। आज के भौतिकवादी-तकनीकी विकास और बाजारवाद के दौर में आत्मीयता, समावेशिता और पर्यावरण पर सबसे ज्यादा हमले हो रहे हैं। कवि एकांत श्रीवास्तव की कविताएं इन मामलों में सजग हैं। उनकी प्रतिबद्धता खेत-खलिहान, किसान, पेड़-पौधे, नदियों और जीवन की स्वाभाविकता के प्रति है। उनकी कविताएं हमें कृत्रिमता के विरुद्ध सहज आचरण के लिए प्रेरित करती हैं। वे आदमी की निश्छलता और भोलेपन को बचाने की बात बार-बार करते हैं- ‘बचपन से गणित कमजोर है/अधिक लौटा देता हूँ/कम-कम लेकर/घाटे में रहता हूँ संसार के व्यापार में।’ आज जब अधिक पा लेने की, ज्यादा भोग लेने की महत्वाकांक्षा बढ़ती जा रही है, तब कवि घाटे में रहने की बात करता है। इस तरह के घाटे में रहने वाले लोग ही दुनिया में इंसानियत को बचा पाते हैं।
एकांत श्रीवास्तव एक ऐसे वानस्पतिक-चेतना के कवि हैं, जिन्होंने प्रकृति और जीवन को एक दूसरे से हमेशा जोड़कर देखा है। वे ‘अन्न’ को शब्द मानते हैं। ‘मिट्टी’ को धन्यवाद कहते हैं। ‘बीज’ और ‘फूल’ को जीवन मानते हैं। आज जब हमसे ‘लोक’ छूट रहा है, संबंध ‘गिव एंड टेक’ बन रहे हैं, तब कवि नंगे पांव गांव और गोबर से लिपी हुई जमीन पर चलने की बात कहता है, ‘जूतों के फीते बांधते समय टीसता है मन/ कितने दिन हुए/ गोबर से लिपी हुई भूमि पर चले हुए/नंगे पैरों।’
आज विकास के नाम पर जिस गति से प्रकृति, मानवीय संबंध और पारस्परिकता का विस्थापन हो रहा है उससे मनुष्य ज्यादा तनाव, अवसाद और अविश्वास से घिरता जा रहा है, ‘मैं कहां छुपा कर रखूं अपनी नींद/अपनी लोरी/किस वन में/ किस पंछी के कोटर में/ बाजार घेरता है मेरी नींद को/ पूंजी लगाती है सेंध/ ओ निर्मम सौदागरो/ क्या तुम्हें माँओं ने नहीं/ मशीनों ने जन्म दिया/ जो तुम खरीदने आए/ मेरी नींद, मेरी लोरी।’ बाजार ने हमारे जीवन पर दखल बढ़ा दिया है।
कवि एकांत सांप्रदायिक विद्वेष और हिंसा के इस दौर में ‘मजार’, ‘इकबाल अहमद और उनके पिता’ तथा ‘युद्ध और शांति’ जैसी कविताएं लिखते हैं। कवि ‘घर’ की नींव बचाना चाहता है- ‘यह पत्थरों का भी सौभाग्य था कि मजार के बजाय/ वे लगे थे एक घर की नींव में।’ कवि एकांत की पक्षधरता मानवता के लिए है। वे चिंतित होकर कहते हैं, ‘युद्ध का रास्ता/बाजार से होकर गुजरता है/पूंजी है आज/सबसे घातक अस्त्र/जिससे करते हो तुम वध/मेरे गरीब देश का।’
जिज्ञासा: इस संग्रह की अधिकांश कविताओं में प्राकृतिक बिंब और वानस्पतिक चेतना प्रमुखता से उभरी है। इस बारे में कुछ बताइए।
एकांत श्रीवास्तव: प्रकृति है तो जीवन है। पर प्रकृति पर ही बहुत बड़ा संकट मंडरा रहा है। पर्यावरण चेतना के बिना मनुष्य की चेतना अधूरी है। प्रकृति का अर्थ वनस्पति ही नहीं है, बल्कि उसमें तमाम जीव-जंतु और वन्य पशु भी हैं। ऐसा लगता है, संसार में संगीत का जन्म पंछियों की आवाजों से हुआ होगा। मधुमक्खियां न होतीं तो हमें शहद का उपहार कौन देता। कहते हैं, मनुष्य जन गुफाओं से बाहर आया तो उसने बया के घोंसलों को देखकर घर बनाना सीखा। और आज सबकुछ विनाश के कगार पर है। एक कवि के रूप में यह मेरा कर्तव्य है कि कविता में मैं प्राकृतिक बिंबों और वानस्पतिक चेतना को बचाऊं। जो नष्ट हो रहा है, उसे बचाना कविता का दायित्व है।
जिज्ञासा: आपने यह संग्रह कृषक, भारतीय गांव और गांव के घर को समर्पित किया है। आज तीनों संकट में हैं।
एकांत श्रीवास्तव:‘विकास’ की अवधारणा में कृषक को कभी उसकी जगह नहीं मिली। यह विकास मुट्ठी भर कुलीन-आभिजात्य वर्ग के लिए है-बहुसंख्यकों की बलि देकर। मेरी एक काव्य-पंक्ति है- ‘मैं रोटी जितनी गोलाई पर खड़ा हूँ।’ कृषक प्रत्येक समय ‘रोटी जितनी गोलाई’ पर खड़ा है। इससे बाहर फांसी का फंदा है। किसानों की निरंतर आत्महत्याएं इस विकास की पोल खोलती है।
जिज्ञासा: वैश्वीकरण के पहले से 90 के दशक के बाद की हिंदी कविता किन अर्थों में भिन्न है?
एकांत श्रीवास्तव:1990 के आसपास सोवियत समाज के विघटन और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस ने कविता का रास्ता बदला। इसने अपनी उग्रता छोड़ी और संयत प्रतिरोध का रास्ता चुना। स्त्री, बच्चों और गांवों-किसानों की ओर कवियों का ध्यान गया। उपेक्षित विषयों पर कविताएं लिखी गईं। पर्यावरण की समस्या 90 से पहले ऐसी विकराल और भयावह नहीं थी। इसपर भी कवि की दृष्टि गई।
जिज्ञासा: एक ओर विकास की बातें की जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर आप लिख रहे हैं- ‘पूंजी है आज/सबसे घातक अस्त्र/जिससे करते हो तुम वध/मेरे गरीब देश का।’ ऐसे में, विकास और पूंजी के दम से देश के गरीबों की रक्षा कहाँ तक संभव है?
एकांत श्रीवास्तव: विकराल पूंजी के दैत्य का खेल सब कुछ को रौंदना और निगलना है। यह अपने कर्ताधर्ताओं की रक्षा करेगा, गरीबों की नहीं। ऐसे में, गरीबों के लिए समाज के संवेदनशील-बौद्धिक नागरिकों को ही मिलजुलकर कोई रास्ता निकालना होगा। जन आंदोलनों के सामने सत्ता को झुकना ही पड़ता है।
जिज्ञासा: औपनिवेशिक भारत के किसान-प्रश्न से आज स्वतंत्र भारत में आपकी कविताओं में उपस्थित किसान-प्रश्न किन अर्थों में अलग है?
एकांत श्रीवास्तव: औपनिवेशिक भारत में उसे रजवाड़ों-जमीदारों और अंग्रेजों के शोषण-अत्याचार का शिकार भी होना पड़ता था। अब उनसे राहत है। लेकिन वर्षा आधारित कृषि, सूखा, बाढ़, कृषि-उपजों की कीमत एकाएक नीचे गिर जाने से, उनकी अर्थिक अभिरक्षा के लिए कोई मजबूत कानून या बीमा जैसी कोई व्यवस्था न होने से उनकी हालत प्रायः जस की तस है। उनकी आत्महत्याएं और आंदोलन यही बताते हैं। ये किसान-प्रश्न ही कविता के प्रश्न भी हैं।
![]() |
‘अयोध्या में कालपुरुष’ (गाथा कविताएं) हिंदी के चर्चित कवि बोधिसत्व का नवीनतम संग्रह है। यह संग्रह मिथकीय एवं ऐतिहासिक कथाओं का ऐसा फ्यूजन है, जिसका संबंध इस दौर की यथार्थपरक घटनाओं से है। ये कविताएं एक लंबे कालखंड के यथार्थों का रचनात्मक साक्षात्कार हैं। त्रेता युग की रामकथा से लेकर वर्तमान भारत-दुर्दशा तक की दर्जनों घटनाओं को पकड़ना एवं एक नए फॉर्म में फिट करना बिना व्यापक काव्यात्मक दृष्टि के संभव नहीं है। बोधिसत्व का यह कविता संग्रह भले पुराकथाओं और इतिहास प्रसंगों पर आधारित है, पर इसका संबंध वर्तमान समय के संकट में पड़े मूल्यों से है।
कवि ‘लोक’ के पक्ष में सवाल खड़ा करते हुए ‘हिरणी को अयोध्या की रानी कौशल्या से विनय-पत्र’ कविता में मारे गए हिरण की पत्नी हिरणी की पीड़ा का बयान करता है, ‘कुंवर राम को खेलने के लिए कुछ और दिया जाए/ मेरे हिरण का चमड़ा खिलौना नहीं बना रह सकता/ उसे मारा राजा ने/हमारे वन में घुसकर/ जब वह अपने छौनों के साथ खेल रहा था।’ यह कविता जबरन अतिक्रमण, हिंसक मनोवृत्ति और दुनिया में लोभ के बढ़ते ग्राफ की ओर भी संकेत करता है।
इसी तरह ‘दाराशुकोह का पुस्तकालय और औरंगजेब के आँसू’ कविता में कवि सत्तालोलुपता की घटनाओं को सामने रखकर मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन की बात कहता है। दारा शुकोह की हत्या असल में ज्ञान, संवेदनशीलता, परस्पर सांस्कृतिकता और सांप्रदायिक सौहार्द की हत्या है। ऐसी हत्याएं आधुनिक समय में भी हो रही है। कवि लिखता है, ‘कोई औरंगजेब नहीं चाहता कि/दारा जिंदा होकर लौट आए/ सबको अपने पुस्तकालय ले जाकर/ सत्ता के खिलाफ सोचना सिखाए।’ कवि को जन सामान्य की उदासीनता भी चुभती है। इसलिए कवि का कहना है, ‘कोई दारा आंसुओं से नहीं बचता/ किसी भी दारा का पुस्तकालय/केवल सदिच्छा से नहीं बचता।’ ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि आज सबसे ज्यादा खतरा मानवीय सद्भाव, ज्ञान और लोकतंत्र पर है।
दारा शुकोह की तरह बिंबिसार भी अपने ही पुत्र अजातशत्रु की महत्वाकांक्षा के शिकार होते हैं। राजा का स्वांग हो या स्वांग का राजा हो, सब बस सत्ता, शक्ति और सुख के त्रिकोण में उलझकर रह जाता है, ‘पथ परिवर्तन से/मन परिवर्तित नहीं हुआ करता अकसर/ बिंबिसार के साथ भी हुआ कुछ ऐसा ही/युद्ध से मोह न छूटा उनका/विजय की आकांक्षा न गई थी/हिंसा से मन विमुख न हुआ था/खड़ग रक्त से रंजित रहा सदैव।’ आज हिंसा को, शुद्धतावाद को और अतार्किकता को ग्लोरीफाई किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। रानी कहती है, ‘सत्ता में बने रहने के लिए/शक्ति अपने हाथ में रखना अनिवार्य है/आपने विचार बदले हैं/ सत्ता के सूत्र साधे रहिए।’
सेकुलर इतिहासबोध से संपन्न कवि बोधिसत्व ने संवेदनात्मक विवेक से अपनी कविताओं में सार्थक हस्तक्षेप किया है। वे ऐतिहासिक एवं मिथकीय चरित्रों के जरिए अलग-अलग सभ्यताओं के खंडहरों में मनुष्यता की तलाश करते हैं। वे ‘संस्कृत के कवि और फारसी बोलने वाले लड़की का प्रेम’ में प्रेम का विराट रूपक निर्मित करते हैं। काशी में रहने वाले ही भूल चुके हैं शिव-गंगा के विश्व प्रसिद्ध प्रेम को। कवि को पीड़ा है, ‘जिस त्रिशूल पर काशी टिकी है वहीं/ शिव का त्रिशूल/प्रेम करने वालों की छाती में गड़ा है/हत्यारों का पक्ष आज भी बड़ा है/डूबते को बचाने वाले मारे गए काशी में/प्रेम करने वाले मारे गए काशी में/ घृणा करने वाले संहारक/ बने रहे काशी उद्धारक।’ कवि एक पुरानी गाथा से नए जमाने का सच उकेरता है।
बोधिसत्व की कविता ‘भारत दुर्दशा’ खो गए भारत की खोज है। वे देश के भीड़ बनने से भी चिंतित हैं। कवि भारत की वर्तमान दुर्दशा से मर्माहत है, ‘रास्ते में देश मिला/ भागता-दौड़ता चला जा रहा था/मैंने पूछा कहां जा रहे हो/बहुत जल्दी में हो/बोला उधर ही जिधर सब ले जा रहे हैं हांक कर।’ यह कविता भारत की दुर्दशा से मुक्ति और अपने गौरव को वापस पाने का आख्यान है।
जिज्ञासा: इन दिनों इतिहास में सत्य की जगह अफवाह और प्रचारित इतिहास ने ले लिया है। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
बोधिसत्व: सत्य और अफवाह हर युग के इतिहास में और हर समाज में उपस्थित रहे हैं। सीता के चरित्र पर उठने वाले प्रश्न के उत्तर में भवभूति ने एक वाक्य ‘उत्तररामचरित’ में नट और सूत्रधार से कहलवाया है। वह वाक्य इस तरह है- स्त्रियों के चरित्र और वाणी के संबंध में दुष्ट लोग सदा छिद्रान्वेषण करते रहते हैं। भवभूति के सूत्रधार के इस कथन को आधार बना कर कहना चाहूंगा कि दुष्ट शक्तियां या दुष्ट तत्व या अराजक तत्व इतिहास में सदैव छिद्रान्वेषण करते रहते हैं। उस छिद्रान्वेषण का स्वरूप अनर्गल अफवाह के रूप में सृजित किया जाता है। वे ऐसे अफवाह होते हैं जो इतिहाह के मूल विषयवस्तु को मलिन करते हैं। उसके बारे में जन समाज में भ्रम उत्पन्न करते हैं। उनका यत्न होता है तथ्य और सत्य के संबंध में दुविधा उत्पन्न करना। इस वृत्ति को पूरी तरह रोकना लगभग असंभव है। हां, यह हो सकता है कि ऐसी स्थितियां बनाई जाएं जिनसे सत्य उजागर होता रहे। अफवाह पराजित होता रहे। जब अफवाह जयी हो जाता है, तब इतिहास मारा जाता है। जिसे आप अफवाह कह रहे हैं वह वास्तव में सत्य की हत्या करने का उपक्रम है।
जिज्ञासा: आपने इस कविता संग्रह ‘अयोध्या में कालपुरुष’ में लिखा है, ‘हर युग में/औरंगजेब के आंसू/औरंगजेब के लिए ढाल है।’ आज के संदर्भ में इसको कहां तक सच माना जा सकता है?
बोधिसत्व : अक्सर रुदन या विलाप को निर्बल की दशा से और निर्मल भाव से जोड़ा जाता है। ऐसे में जब सत्ता के शीर्ष पर बैठा कोई रोता है तो प्रजा के मन में उसके रुदन पर एक दया-भाव उत्पन्न होने की स्थिति बनी रहती है। जबकि यह रुलाई रुदन का अभिनय होने के इतर कुछ और नहीं होता। ऐसे शक्ति संपन्न की रुलाई उसके प्रति आक्रोश को शांत करने का काम करती है। प्रजा अपने क्षोभ को शासक के आंसुओं के सामने शांत होने देता है। यही शासक की सफलता और प्रजा की विफलता का बिंदु होता है। समस्या यह है कि सच्चे रुदन और नकली रुलाई को परखें तो कैसे? उत्तर एक ही है कि देखें कि रोने के पहले और बाद में गद्दी पर बैठा औरंगजेब कर क्या रहा है।
जिज्ञासा:‘भारत-दुर्दशा’ में आपने कई जातीय नायकों (कबीर, गांधी, अंबेडकर, लोहिया आदि) को याद किया है। आज स्मृति ध्वंस और विस्मृति के दौर में उनके लिए कितनी जगहें बची हैं?
बोधिसत्व: जैसे गिरे-ढहे खंडहर भी अपना स्वरूप नहीं खोते, उसी तरह जातीय नायक भी होते हैं। वे अपने मूल वैचारिक आग्रह के साथ उपस्थित रहते हैं। उनके होने का तापमान ऊपर नीचे हो सकता है, किंतु वे लुप्त तो वैसे भी नहीं हो जाते। मैं इनको अपने सुमिरन में निरंतर बनाए रखता हूँ। क्योंकि कविता में आई उपस्थिति देर तक रहती है। इस प्रकार याद करना एक प्रकार से भुलाए जाने के विरुद्ध एक स्मृति का निर्माण करता है। यादें या स्मृतियां संजीवनी की तरह होती हैं। वे विचारों तक ले जाने के लिए पर्याप्त प्रकाश मुहैया कराती हैं। विचारों का भग्नावशेष भी कभी भी उठकर एक समूचा वास्तुरूप ले सकता है।
जिज्ञासा: इस कविता संग्रह में आपने कई मिथकीय और जनश्रुति पर आधारित घटनाओं के आलोक में वर्तमान यथार्थ पर लिखा है। ऐसा लेखन कितना चुनौतीपूर्ण है?
बोधिसत्व : सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि लिखा गया कथानक जन सामान्य या पढ़ने-सुनने वालों से जुड़ेगा या नहीं। दूसरा वह कहीं न कहीं किसी रूप में पहले से उपस्थित रहा होता है। उस उपस्थिति ने एक दायरा घेरा होता है। उसमें कुछ संशोधन संभव होगा क्या? इसका सबसे बड़ा प्रमाण रामकथा को देखा जा सकता है। एक राम तुलसी के हैं, एक राम वाल्मीकि के, एक कालिदास के और एक सूरदास के भी हैं। और अनेक राम के साथ अनेक-अनेक राम कथाएं प्रचलित हैं। वे प्रचारित और सृजित हैं। हर कवि ने एक दूसरे के राम से भिन्न अपना राम रचा है। अब यह उस कवि-लेखक की अपनी चुनौती का सामना करने की क्षमता पर निर्भर करेगा कि वह अपने चरित्र को स्वीकृति दिलवाने में कितना सफल हो पाता है।
जिज्ञासा: आपने राम के विस्थापन और कालपुरुष के शासन का जिक्र किया है। वर्तमान समय में इसके क्या निहितार्थ हैं?
बोधिसत्व: हर समय अनेक सत्ताएं सक्रिय रहती हैं। एक-दो का ही स्वरूप प्रकट और सक्रिय दिखता है। लेकिन अनेक स्थितियां ऐसी होती हैं जिनमें जो स्थापित है उसके विस्थापन की प्रक्रिया चलती रहती है, लेकिन यह दिखती नहीं है। वह त्रेता के श्रीराम हों या किसी युग में कोई और हो। राम को अयोध्या से अचानक निकलने पर विवश होना पड़ सकता है तो किसी भी शासक के लिए यह स्थिति बन सकती है या बनाई जा सकती है। वह युग आज का हो या अतीत का कोई काल हो या भविष्य में कभी घटित हो। जैसे राम निकले वैसे ही वाजिद अलीशाह लखनऊ से निकाल कर मटियाबुर्ज भेजे गए। महात्मा बुद्ध के सत्ता से बेदखल होने को ‘गृहत्याग’ के महान कथानक से गौरवान्वित भले किया जाए, वह थी ‘राज्य-निकासी’ ही। श्रीराम तो अनेक बार सत्ता से बेदखल हुए। पांडव-सुग्रीव आदि सत्ता से भगाए जाते रहे। महाकवि सूरदास के शब्दों में- ‘वसुधा काहू की न भई’। इसी पद के आधार पर कहा जा सकता है कि सत्ता किसी की हो, वह स्थायी नहीं है। वह कैसा भी बलशाली हो, किसी भी युग का हो!
![]() |
‘शांति पर्व’ आलोचक-कवि आशीष त्रिपाठी का अद्यतन काव्य-संग्रह है। यह संग्रह हमारे समय के बुनियादी प्रश्नों के बीच से आया है। इसमें अपने समय की वास्तविकताओं को सहृदयता, व्यापक नागरिक बोध और विवेकपरकता के साथ देखने का प्रयास है। कवि संबंधों के बीच बढ़ती दूरियों की जगह संबंधों की ऊष्मा और उम्मीद की बातें कहता है। आशीष सुंदर भविष्य का सपना देखने वाले कवि हैं। इसलिए स्मृति ध्वंस के इस दौर में वे बचा लेना चाहते हैं सदियों से उदास खड़ी बूढ़ी इमारतों और अलक्षित यथार्थ को, ‘एकांत में सदियों से खड़ी/उदास बूढ़ी इमारतें/ मेरी आत्मा में बसी हैं।’ कवि की चिंता हमारे आसपास खोते और मिटते जा रहे चिह्नों और खासकर नदियों के लिए भी है। वे पर्यटन से बाहर छूट गए देश की हरियाली को अपनी आत्मा से जोड़ते हैं।
हमारे भारत में कई भारत बन रहे हैं। एक भारत जो विशुद्ध रूप से सत्ता पक्ष के साथ मिलकर संसाधनों पर काबिज है। एक भारत उन लोगों का है जो सत्तापक्ष की हाँ में हाँ मिला रहे हैं और तीसरा भारत हाशिये पर खड़े आम नागरिकों का है। इस संग्रह की कविता ‘नया गणतंत्र’ एक ऐसे गणतंत्र का आख्यान रचती है, जहां सिर्फ सत्ता पक्ष होगा, ‘राजाज्ञाएं मानने वाले लोग ही/ माने जाएंगे राष्ट्रभक्त/जो राजकीय घोषणाओं पर तालियां नहीं बजाएंगे/संदेह के दायरे में होंगे/ असहमत लोग अछूतों की तरह/धीरे-धीरे फेंक दिए जाएंगे/नए दक्खिन टोलों में।’ कवि देश में फैले अंतर्विरोधों और विसंगतियों के बीच अपने आलोचनात्मक विवेक के साथ खड़ा है। वह समानता, न्याय, निश्छलता और सामाजिक समरसता के पक्ष में है।
आधुनिक युग में बौद्धिक चेतना-संपन्न लेखकों, चिंतकों और समाज सुधारकों ने निडरता और विवेकपरकता के साथ जिन पुराने विश्वासों और जड़-व्यवस्था के विरुद्ध मानव-अधिकार के प्रश्नों को उठाया था, आज उत्तर-आधुनिक समय में वे लौटे हैं।
‘शांति पर्व’ कविता में आशीष त्रिपाठी वर्तमान समय की हिंसा और सांस्कृतिक एकरूपता के नैरेटिव को बेनकाब करते हैं। कवि बेबाकी से कहता है, ‘खड़ा होता है/ जो भी हमारे विरुद्ध/ सबसे पहले/उसे गाली दो सेक्युलर कह कर/ सबसे अधिक जरूरी है/साबित करो उसे धर्म विरोधी/इससे भी न चले काम/तो उसके राष्ट्र प्रेम पर संदेह पैदा करो लोगों के मन में/ ध्यान रखो/ किसी भी परिस्थिति में लोगों के मन में/ उसके लिए सहानुभूति पैदा न हो/ पहले एक बूढ़े की हत्या में धोखा खा चुके हैं हम।’ यहां संकेत गांधी की ओर है। गांधी को लेकर आज पूरे देश में सत्ता द्वारा जो नैरेटिव सेट किया जा रहा है, वह मानव सभ्यता की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में से एक है।
आशीष त्रिपाठी आज के उन थोड़े कवियों में हैं, जिनमें व्यवस्था को लेकर सिर्फ असंतोष ही नहीं बल्कि विवेकधर्मी काव्य-दृष्टि भी है। उनकी कविताएं शब्द से ज्यादा चित्र हैं। वे अपनी काव्यात्मकता में एक सजग नागरिक, एक सोशल एक्टिविस्ट एवं भविष्य द्रष्टा की तरह उपस्थित हैं। वे भाव और भाषा को बराबर एक रेंज में रखते हैं, कहीं ओवरलैपिंग नहीं है। वे भाषा को एक पाठ की तरह देखने वाले कवि हैं। वे भाषा से आचरण को मापते हैं, भाषा की तमीज से मनुष्यता का आख्यान रचते हैं। भाषा जब सहृदयता, परदुखकातरता, ईमानदारी, सहजता का दामन छोड़ती है, वह छद्म और बनावटी ही नहीं बल्कि जन-विरोधी भी हो जाती है। ‘कलयुग’ कविता में है- ‘यह उस युग की बात है/ जब भाषा से/ सौम्यता, उदारता और विनम्रता जैसे शब्दों का लोप हो गया था/ ….सिर्फ पुरस्कार के लिए/ कविताएं लिखने वाले कवि राजकवि थे/ फिर भी ‘कविता’ पर संदेह किया जाता था/ क्योंकि उसमें भाषा के गुणों का उपयोग करने की शक्ति शेष थी।’ कवि भाषा की ईमानदार अभिव्यक्ति पर बढ़ रहे खतरों की ओर संकेत करता है।
आशीष त्रिपाठी ‘काला-सूर्य’ कविता में अपनी उजली और निर्मल भाषा के साथ उपस्थित हैं, ‘मेरी भाषा उजाले की भाषा है/ जिसकी संधि-संधि में समाई है/करोड़ों लोगों की निर्मलता/ उस पर छाते जा रहे हैं/कालिमा के ध्वजवाहकों के शब्द और वाक्य/बेदखल कर दिए गए हैं प्रश्नचिह्न/असहमतियां कारावास झेल रही है।’ कवि भाषा को प्रतिरोध का, प्रेम का, विवेक का, परंपरा का, स्मृति का, संवेदना का, साहस का, भविष्य का, स्वतंत्रता का, मुक्ति का, उम्मीद का और पुरखों की सीख का पर्याय बनाना चाहता है, ताकि इसके जरिए मानव-सभ्यता को उजास से भरा जा सके।
जिज्ञासा : आज जब व्यवस्था द्वारा जनता की भाषा और संवेदना को मार डालने की कोशिशें हो रही हैं, एक कवि कहां तक उनकी रक्षा करने में सक्षम है ?
आशीष त्रिपाठी : भाषाओं के विरुद्ध चल रहे अभियान मूलतः उस भाषा को बोलने और बरतने वाली जनता के खिलाफ हैं। ‘भूमंडलीकरण’ जैसे सकारात्मक नाम के पीछे काम कर रहा, हमारे जमाने का पूंजीवाद असल में भयानक एकरूपीकरण पैदा कर रहा है। इससे अनंत मानवीय विरासत, जो लाखों सालों में मानवीय रचनात्मकता और सामूहिकता से उपजी है, खत्म होने के कगार पर है। एकरूपता पर ध्यान न जाए, इसलिए बहुसंस्कृतिवाद का बाजार-उन्मुख नारा बुलंद किया गया है। ऐसे में भाषा को बचाना असल में मानवीयता, संस्कृति और रचना के मूल आधार को बचाना है। इसे कोई कवि अकेले नहीं बचा सकता। हां, वह उस जन-मोर्चे का अनिवार्य अंग जरूर हो सकता है जो वर्तमान पूंजीवाद के खिलाफ बना हो।
जिज्ञासा : इस संग्रह में कई जगहों पर इतिहास को विकृत करने और गांधी के नायकत्व के खिलाफ निगेटिव नैरेटिव को लेकर चिंता व्यक्त की गई है। इस बारे में कुछ बताइए ।
आशीष त्रिपाठी : भारतीय समाज बहुपरतीय, बहुमुखी और जटिल समाज है। इसमें कभी एक नायक नहीं हो सकता, जो सबको अपने साथ ले ले। पर कभी-कभी ऐसे सक्रिय लोग आते हैं जो सबको न सही, एक बड़े हिस्से को अपना बना पाते हैं। बापू उर्फ महात्मा उर्फ मोहनदास गांधी एक ऐसे ही नेता रहे हैं। नवजागरण, प्रबोधन, आधुनिकता और स्वतंत्रता आंदोलन की सामूहिक चेतना के शीर्ष प्रतिनिधियों में से एक। उपनिवेशवाद- साम्राज्यवाद से तीव्र वैश्विक संघर्ष के एक नायक। लेनिन ने उन्हें दो दफा इसी परिप्रेक्ष्य में देखा था।
यह भी स्पष्ट है कि वे सामंतवाद- पितृसत्तावाद- धर्मतंत्रवाद से भी एक सीमा तक संघर्ष कर रहे थे। वे क्रांतिकारी न थे, पर भारतीय समाज में उन्होंने तीव्र आलोड़न पैदा किया था। वे एक सामासिक और बहुलतावादी भारत का निर्माण करना चाहते थे। उनका भारतबोध इसी बुनियादी आधार पर खड़ा था। वे संप्रदायिक भारतबोध के इतने खिलाफ़ थे कि एक बहुसंख्यवादी पागल ने उनकी हत्या कर दी। वे शक्तियां आज समाज में इतनी ताकतवर हैं कि उस हत्यारे को नायक बनाने की कोशिश है। नव-उपनिवेशवाद, नव-साम्राज्यवाद और नव-फासीवाद के आज के नायक को रास्ते से हटाए बिना देश अपना काम निर्बाध ढंग से नहीं कर सकता। आज इतिहास को विकृत करने का व्यापक अभियान बहुसंख्यवादी सांप्रदायिक भारतबोध से संचालित शक्तियां कर रही हैं, यह याद रखना बहुत जरूरी है।
जिज्ञासा: आपकी कविता का मूल स्वर प्रेम और प्रतिरोध से जुड़ा रहा है। इनके समक्ष किस तरह की चुनौतियां हैं?
आशीष त्रिपाठी : ‘जो नहीं कर सकता प्यार, वह नहीं लड़ सकता युद्ध’ – पुरखा कवि शलभ श्रीराम सिंह की पंक्ति है। प्रतिरोध तभी दीर्घजीवी होंगे, जब उनका मूल आधार आस्था हो।
आज मानवीयता पर इतना दबाव है कि हम प्यार कर पाने की मूल क्षमता से ही एक हद तक वंचित होते जा रहे हैं। ये दबाव प्रकृति और मनुष्यता के विरोधी पूंजीवाद और फासीवाद के आवयाविक अंग हैं। इनका प्रतिरोध अनिवार्य है। पर संकट यह है कि नकली प्रतिरोध भी परिदृश्य में बड़ी मात्र में मौजूद है, जो अंततः पूंजीवाद की रणनीति से संबद्ध है। ऐसे में उस वास्तविक संघर्ष- प्रतिरोध को पहचानना और उससे जुड़ना जरूरी है जो प्रकृति और प्रकृति-प्रदत्त मानवीयता और प्यार करने की क्षमता को बचाए रखने के लिए हो रहे हों। स्वतंत्रता, समानता, न्याय, लोकतांत्रिकता और बंधुत्व महज राजनीतिक नारे नहीं हैं। ये मानवीयता और कविता के सबसे पुराने स्वप्न हैं।
जिज्ञासा: इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते समय कई अवसरों पर लगा कि आपका आलोचकीय विवेक भी प्रमुखता से सक्रिय रहा है। इस बारे में आपकी क्या राय है?
आशीष त्रिपाठी : यथास्थिति की आलोचना के बगैर कोई कविता आकार नहीं लेती, न कवि का काम पूरा होता है। सामाजिक आलोचना के बिना कविता कोई सपना नहीं देख सकती।
![]() |
‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’ कवि फरीद खां का पहला संग्रह है। इस संग्रह की अधिकांश कविताएं स्मृति के गलियारे से होकर आई हैं। कवि का अपनी जड़ों की ओर जाना सिर्फ स्मरण का मामला नहीं है बल्कि यह कुछ मूल्यों को संरक्षित करने का प्रयास भी है।
फरीद खां अपने समय के अंधकार-पर्व को पहचानने वाले कवि हैं। हम जानते हैं कि इसका सामना आलोक पर्व से ही संभव है। इस हिंसात्मक दुनिया में रचनात्मकता ही सबसे बड़ी उम्मीद है। ‘बाघ के पंजे’ कविता में कवि बाघ और रचनाकार को समकक्ष मानता है। उसे लगता है कि दोनों अंतिम समय तक शत्रु से लड़ सकते हैं। जंगल की स्वायत्तता और हरियाली बाघ के बचे रहने से ही बची है। फरीद खां कहते हैं, ‘मुझे उम्मीद है/ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए/बाघ बन जाएगा साहित्यकार/ जैसे डायनासोर बन गया छिपकली/ और साहित्यकार कभी-कभी बाघ/ वह पंजा ही है जो बाघ और साहित्यकार को बनाता है समकक्ष/ दोनों ही निशान छोड़ते हैं/ मारे जाते हैं।’ यह सच है कि अभिव्यक्ति के लिए खतरे उठाने पड़ते हैं। फरीद खां का ‘बाघ’ एक रूपक है जो केदारनाथ सिंह के ‘बाघ’ से भिन्न है। वह वस्तुतः जंगल बचाने के स्वप्न, हरियाली बचाने के स्वप्न, आदिवासियों को विस्थापन से बचाने के स्वप्न से जुड़ा है। कवि को बाघ की आंखों में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, आदिवासी लड़ाके दिखते हैं।
कवि की चिंता पर्यावरण पर बढ़ते खतरों को लेकर भी है। जंगल का उजड़ना सिर्फ बाघ के लिए ही नुकसानदेह नहीं है, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए एक बड़ा संकट है। कवि की चिंता के केंद्र में हाशिए के लोगों के साथ पूरी सभ्यता है। कवि को इस बात की पीड़ा है कि सत्ता-व्यवस्था के लोग प्रतिवाद और जनकल्याण के शत्रु हैं। इसलिए ‘उसके पंजे काट लिए गए, जिससे बनते थे उसके निशान/ यह ऊपर का आदेश था/ कि जो उसे अमर समझते हैं उन्हें सनद रहे कि वह मारा गया/ आने वाली पीढ़ियां भी यह जानें/ उसके पंजों को भी रखा गया है संग्रहालय में।’
कवि ‘इंसाफ’ कविता में आदमियत की तलाश करता है। वह बार-बार खोते जा रहे मूल्यों के साथ-साथ जीवन गढ़ने की कोशिश करता है। आज के दौर में झूठ, धूर्तता ने अपनी जगहें बना ली हैं। ईमानदारी आज के समय में बेवकूफी का पर्याय है। कवि सच कह रहे और हार रहे लोगों के पक्ष में खड़ा होता है- ‘हारे हुए लोगों के बीच ही आती है संस्कृति की खाल में नफरत/धर्म की खाल में राजनीति/देशभक्ति की खाल में सांप्रदायिकता/सीने में दफ्न रहता है उनका इतिहास/आंखों में जलता है लहू/उन्हें जरूरत है एक धर्म की/ऐसी घड़ी में इंसाफ एक नाजुक मसला है/देश को जरूरत है सच के प्रशिक्षण की।’ कवि नए हिंदुस्तान में सच की तलाश कर रहा है। कवि कविता को सच और न्याय की प्रशिक्षणशाला बनाना चाहता है। कवि हारे हुए लोगों को अकेले नहीं छोड़ता, उनके पक्ष में खड़ा होता है।
जिज्ञासा: आपके कविता संग्रह में प्रगतिशील मूल्यों के लिए संघर्ष के प्रति गहरी आस्था है। एक कवि के लिए अब ऐसे मूल्यों के साथ खड़ा होना कितना चुनौतीपूर्ण है?
फरीद खां: सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण है उन संवेदनाओं को भोथरा किया जाना, जिस ओर ध्यान जाना किसी भी कवि के लिए बहुत जरूरी है, अर्थात- पीड़ित का दुख महसूस करना। इस काम के लिए लंबे समय से और आज भी जातिवाद का इस्तेमाल किया जाता है। आज जब जातिवाद कमज़ोर पड़ा है अथवा पिछड़े और दलित जातियों का सत्ता में हस्तक्षेप बढ़ा है, सांप्रदायिकता का इस्तेमाल सत्ता-व्यवस्था द्वारा किया जाने लगा है। इसकी चपेट में कई जनवादी कलाकार और साहित्यकार भी आए हैं। वे भले ही दक्षिणपंथी मंच से जाकर जुड़ नहीं गए, पर उनकी भाषा और उनके तर्क उतने ही सहज रूप से सांप्रदायिक होते गए, कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में : ‘जैसे बढ़ते हैं बाल/ जैसे बढ़ते हैं नाखून’।
जिज्ञासा: उपभोक्तावादी समय में स्थानीयता और लोक को अपदस्थ किया जा रहा है। आप इसे किस तरह देखते हैं?
फरीद खां: यह सवाल वैश्वीकरण से जुड़ा है। इसकी चपेट में कौन आया, इससे ज्यादा जरूरी है यह जानना कि इसकी लगाम किसके पास है। तभी हम इस द्वंद्व को समझ पाएंगे। पश्चिम या अमेरिका और उसके सहयोगी देश ही दुनिया के दूसरे देशों और संस्कृतियों के लिए लोकतंत्र, मानवाधिकार, आधुनिकता, शिक्षा – अशिक्षा आदि तय करते हैं। रुडयार्ड किपलिंग की कविता ‘द व्हाइट मैन्स बर्डन’ में इसका स्पष्ट संकेत मिलता है। अपने विचार के प्रसार के लिए पूंजीवाद अथवा पश्चिमी सभ्यता दुनिया को युद्ध में झोंकने से भी बाज नहीं आती। इसे पूंजीवाद का राजनीतिक और सांस्कृतिक हमला कहना चाहिए।
जिज्ञासा: आपने ‘अफवाहों की सरहद’ कविता में यह जिक्र किया है कि इतिहास की जगह अफवाहें लेती जा रही हैं। इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?
फरीद खां: हमारा समाज इतिहास से ज्यादा अफवाहों पर विश्वास करता है। घृणा अफवाहों का एक बड़ा तत्व है। फासीवादी समय में घृणा मनोरंजन का माध्यम बन जाता है और सूचनाओं के निहितार्थों में जाने की कोशिश के प्रति एक मानसिक आलस्य दिखाई देता है। इस मामले में हमारा देश कोई अनोखा नहीं है। दुनिया के ज्यादातर देशों में, अलग-अलग रूपों और संदर्भों में ऐसा होता रहा है। अफवाहों में अफीम जैसा नशा होता है, जबकि ऐतिहासिक तथ्य लोगों की तंद्रा भंग करते हैं और किसी भी तरह की घृणा को पुष्ट नहीं करते।
जिज्ञासा: धार्मिक प्रतीकों के उभार को आप भारत की सामासिक संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता के लिए कितना घातक मानते हैं?
फरीद खां: प्रतीकों में एक साथ इतिहास, मिथक, संस्कृति, धर्म, दमन, भावना, कविता, साहित्य बहुत कुछ होता है। हमें उनके बारे में सोचने और बोलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। सर्वप्रथम यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि मुझे धार्मिक प्रतीकों से कोई समस्या नहीं है। बल्कि मैं उनके निहितार्थ को समझने की कोशिश करता हूँ और मानता हूँ कि उन रूपकों में मानव विकास के महत्वपूर्ण अध्याय दर्ज हैं। हमें उनकी व्याख्या करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, क्योंकि वे प्रतीक केवल एक समुदाय या एक संगठन या एक देश के ही नहीं बल्कि समस्त मानव प्रजाति के हैं। नई व्याख्या की स्वतंत्रता पिछले कई वर्षों से संकुचित हो गई है और प्रतीक केवल एक चिह्न या निशान भर रह गए हैं। उनकी आड़ में हिंसा भड़काई जाती है और सामुदायिक वर्चस्व की स्थापना की कोशिश की जाती है। इस कारण अब कुछ नया सोचने के पहले भय आता है। कहने का अभिप्राय है, अभिव्यक्ति पर इस तरह से भी हमला किया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला धर्मनिरपेक्षता और सामासिक संस्कृति पर हमला तो है ही, साथ में उन प्रतीकों के साथ भी अन्याय है।
जिज्ञासा: आधुनिक विकास की धारा ने श्रमिकों और आदिवासियों दोनों को हाशिए पर धकेल दिया है। इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे?
फरीद खां: आधुनिक विकास जिस रास्ते पर चल पड़ा है वह समस्त मानव जाति के लिए विध्वंसक है। न उसमें कुछ आधुनिक है न उसमें विकास का कोई तत्व है। एक व्यक्ति के मुनाफे के लिए जंगल के जंगल काटे जा रहे हैं। लोगों को बेघर किया जा रहा है। शहरों के नाम बदलने वाली सरकार बुलडोजर लेकर न्याय की परिभाषा बदल रही है, जबकि विकास का अर्थ मानव विकास होता है और आधुनिकता वह होती है जो मनुष्य को आगे लेकर जाए, न कि दो हजार साल से भी ज़्यादा पीछे लेकर जाए, जिसका कोई अर्थ नहीं है।
समीक्षित पुस्तकें :
- सूरजमुखी के खेतों तक: एकांत श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2024, मूल्य-325
- अयोध्या में कालपुरुष : गाथा कविताएं: बोधिसत्व, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-2024, मूल्य-250
- शांति पर्व: आशीष त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2024 मूल्य-250
- गीली मिट्टी पर पंजों के निशान: फरीद खां, सेतु प्रकाशन, संस्करण-2023, मूल्य-260
1, राम कमल रोड, पोस्ट-गरिफा, पिन-743166, उत्तर 24 परगना (प.बं.) मो.9331075884