युवा कवि।संप्रति सहायक प्राध्यापक। रंगकर्म में सक्रिय, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
अंतराल
कभी टूटकर बरसे बादल की तरह बेतहाशा
कभी गरजे जोरों से
कभी बिजली की मानिंद गिरे एक-दूसरे पर ऐसे
जैसे सबकुछ राख हो गया हो
जली हुई जमीन से
उठता हुआ धुआं देखते रहते हैं
दो सिरे पर खड़े झुलसे अकड़े ठूंठ की तरह
जिसकी कोटर में कोई मासूम-सी
पुकार बची रहती है
चढ़ा हुआ ज्वार उतरता
तो शांत तट पर
लहरों से फेंकी गई
मछली की तरह तड़प-तड़प उठते
शाम का रंग भीगता रहता देर तक
धुलकर चांद निकल आता आकाश में
अंतराल के अंतस में
बिखेर जाता अनंत तारे
बिखरने से पहले।
मन आज
इतने दिनों बाद
तुमसे मिलकर यूं लग रहा है
जैसे
मुद्दतों से भारी रात
आज कपास के फर्रों सी उड़ रही है
उदास आंखों को जैसे
तितलियों के पर लग गए हैं
जैसे
मुद्दतों बाद
सीलन भरे कमरे में
उतरी हो धूप
भीगते मौसम में
निकला हो कोई इंद्रधनुष
जैसे
उत्ताल लहरें लौट रही हों समंदर में
तट शांत हो गया हो
शांत जल में
डूब गया हो मन आज।
नाव
मछलियां
अपने पंखों के निशान ढूंढ़ रही थीं जल में
और तट पर बैठा बूढ़ा
गिटार पर था अपनी खोई हुई धुन में
हवा कुछ ऐसे बह रही थी
कि उड़ते हुए पतंग
चाह रहे थे कुछ ज्यादा ही ढील
प्रेमिल लहरों के चुंबन से
जब चटक रही थी पुरानी चट्टानें
कुछ लोग ढूंढ रहे थे तट पर शिवलिंग
ढलते सूरज ने
बदन की रेत झाड़ते हुए
पुकारा चांद को
तो उछल पड़े लहरों में छिपे तारे
रात भर
जिन्हें पुकारती रही
स्वप्न में डूबी एक नाव।
सब बिक चुके थे
वे एक
सूखे पेड़ से लिपटे हुए थे
जिसकी जड़ें पत्थरों पर सर पटक रही थीं
जो गीत
वे सुन रहे थे
वह एक घायल चिड़िया के कंठ में
दम तोड़ रहा था
भीग रहे थे
जिस बारिश में बार-बार
वे बादल तेज हवा में कबके उड़ चुके थे
केवल रेत बची थी
बचे थे पैरों के निशान
नावों के संग समंदर सब बिक चुके थे।
एक दिन
एक दिन
यह रंगीन और चमकीली शामें फीकी पड़ने लगेंगी
जो ऊब और घृणा से भरा
एक खालीपन छोड़ जाएंगी
हर आंख
एक सूख चुकी नदी होगी
जिसमें चमकते पत्थरों के सिवा कुछ नहीं होगा
तुम्हारा गला सूखने लगेगा यह देखकर
तुम जब तक पानी के लिए उठोगे
एक चेहरा तुम्हारी प्यास बुझाने खड़ा मिलेगा
अपनी आंखों में तड़पती हुई मछलियों के साथ
तुम पाओगे
कि तुम्हारी देह
मरी हुई मछलियों की गंध से भरा
एक मरुस्थल है।
धूप का टुकड़ा
एक
कुतरा हुआ
धूप का टुकड़ा
पड़ा था आंगन में
जिसे
गुलाबी कर
उड़ गई थी चिड़िया।
मुत्यु के संगीत पर
एक नई भाषा में
रची जा रही है दुनिया
जिसमें न हमारी आत्मा होगी
न हमारी संस्कृति
और न ही हमारी जमीन की गंध
बदल जाएंगी जहां
जीवन की सारी परिभाषाएं
बदल जाएंगे स्वप्नों के अर्थ
स्वाद
जीभ तक सिमटकर रह जाएंगे
और भूख निकल आएगी
पेट से बाहर
आदर्श
जूते की तरह
पहने जाएंगे
बदले जाएंगे मूल्य
कपड़ों की तरह
जहां विकास और विनाश में
कोई फर्क नहीं होगा
रात
जहाँ दिन से अधिक
चमकदार होगी
और
जीवन जहां नाचेगा
प्रेत की तरह
मृत्यु के संगीत पर।
जड़ें
कितनी ही पथरीली
क्यों न हो जमीन
मजबूत जड़ें
ढूंढ ही लेती हैं रास्ता
बचा ही लेती हैं
अपने भीतर का हरापन
खिला ही देती हैं फूल
शिला पर
चीरकर पत्थर का सीना।
वे हमें
वे हमें
ले जाएंगे वापस
उन्हीं अंधेरों में
जिनसे लड़कर
हम यहां तक पहुंचे थे
इतनी
सदियों में।
संवादहीनता
दरवाजे पर लगी घंटी से
एक थकी हुई आवाज आती है
एक औरत चिटकनी खोलकर
लौट जाती है चुपचाप
खोलते हुए
दिनभर की परेशानियों के फीते
एक आदमी सुनता है सिर्फ
पानी से भरे गिलास का
चुपचाप रखा जाना
चुपचाप
नजर आता है एक परिवार
बैठा हुआ खाने की मेज पर
जिनके बीच से आती है केवल
बर्तनों की आवाज
अपने आस-पास से कटकर
सिकुड़ते जा रहे इस घर में
नजर आते हैं
जीवन के महत्वपूर्ण द़ृश्य
संवादहीन होते हुए।
नए कपाट पर
एक पुराना ताला जड़ा हुआ है
नए कपाट पर
मोतियाबिंद पुराना
जैसे आंख पर
मुंह की बन गई है बनावट कुछ ऐसी
हर बार फंस ही जाता दाना
दुखता रह-रहकर
पड़ता पछताना
शैवालों से
भर गया है सरोवर
कोई कैसे देखे जल के भीतर।
संपर्क : क्वा. नं.- 4ए, सड़क नं.1, सेक्टर-8, भिलाई नगर, जिला–दुर्ग, छत्तीसगढ़–90006 मो.7389854923