युवा कवि।अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।संप्रति व्याख्याता। |
एक
इक तमाचा गाल पर तब मार जाती है हवा
जब वतन की सरहदों के पार जाती है हवा
उनकी सांसों की महक लाती है मेरी सांस तक
मुझ पे खुशियों का खजाना वार जाती है हवा
मेघ ला कर जब बुझाती है धरा की प्यास को
शोक में डूबे कृषक को तार जाती है हवा
तब मुझे आभास होता है स्वयं की जीत का
जब किसी जलते दीये से हार जाती है हवा
जिस घड़ी यह मित्रता करती है अश्विन आग से
उस घड़ी सच मानिए बेकार जाती है हवा।
दो
जो चिंतनशील थे इस देश के हालात को लेकर
झगड़ बैठे वही आपस में अपनी ज़ात को लेकर
वो सारे लोग भी दो गज ज़मीं में ही दफन होंगे
वहम पाले हुए हैं जो मेरी औकात को लेकर
जरा सा भी तो खारापन नहीं देता है बादल को
समंदर खुश है नदियों से मिली सौगात को लेकर
वे अपनी जीत पर उतने जियादा खुश नहीं दिखते
बड़े खुश दिख रहे हैं जो हमारी मात को लेकर
मेरी बरसात पर लिक्खी ग़ज़ल को दाद क्या देता
डरा सहमा हुआ था जो कृषक बरसात को लेकर।
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