वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

उस दिन तो ग़ज़ब ही हो गया।.. शाम को घर लौटने पर घरेलू परिचारिका ने बताया कि कोई अँग्रेज़, रतन खेमानी (मेरे पति) की तबीयत पूछने (बुख़ार था) आया था.. पानी तक तो पिया नहीं; ऊपर से बाबू के साथ घंटे भर जाने क्या-क्या बातें करता रहा!

पता चला कि अज्ञेय जी ने आकर सागर-मुद्रा और अन्य पुस्तकों से पतिदेव रतन खेमानी को इतनी कविताएँ सुनाईं कि एक पूरा कैसेट भर गया।

यह किस्सा सुनकर मेरी आँखें पनीली हो आईं। इसे कहते हैं संस्कार, आभिजात्य या बड़ापन! जो किसी साधारण से आदमी की ऐसी ‘रखपत’ रखता है।

दरअसल अज्ञेय जी का कलकत्ता-प्रवास कई वर्षों से हमारे यहाँ निर्धारित था। उस बार वे ज्ञानपीठ के कार्यक्रम के सिलसिले में आए थे और घर में बच्चों के ‘चिकन पॉक्स’ होने के कारण हमलोगों ने उनका आतिथेय ‘जैन हाउस’ वालों को सौंप दिया था।

अज्ञेय जी से मुलाक़ात होने पर उनका यह कहना सुन कर कि ‘घर के लोगों को बच्चों की छूत थोड़ी लगती है’, मुझे कैसा महसूस हुआ, मैं व्यक्त नहीं कर सकती। मुझे ऐसा लगा मानो धरती और आकाश दोनों एक साथ मेरी झोली में आ गए हों और मैं उन्हें अपने आँचल में संभाल नहीं पा रही हूँ।

अज्ञेय जैसे गंभीर, अल्पभाषी, किंचित स्मित मुख-मुद्रा, धर्मकाँटे पर नपी-तुली-सी बातचीत की शैली और औपचारिकता से ठसाठस भरे व्यक्ति की शुरुआत ऐसी अनौपचारिक? इसकी एक वज़ह है..

मेरे शुभचिंतक मित्र अक़्सर मुझ पर तक़ाज़ा करते रहते हैं ‘अरे यार, तुम अज्ञेय जी के कलकत्ता प्रवासों में हमेशा उनके साथ रही हो इसलिए उन जैसे अमेध चरित्र पर कुछ लिखो। सुनते ही ‘छूजनी’ (कंपकपी) छूट गई, क्योंकि अज्ञेय जी के बारे में कुछ कहने का प्रयास करना, अर्थात न केवल हिमालय, बल्कि सतपुड़ा, आल्पस, विंध्य समेत दुनिया के सारे पर्वतों को और नदियों को वनस्पति समेत बाँहों में भरने का दुस्साहस करना है। जब उनके आग्रह की रक्षा करने के लिए सोचा, चलो अज्ञेय ग्रंथावली में झाँकते हैं। पर ग्रंथावली के प्राप्त तेरह खंडों में बिखरे अमृत को बटोरने की कूवत मुझमें कहाँ! इसलिए मैंने अंतरंगता का यह सरल रास्ता चुना।

वैसे मेरी साधारण समझ से हिंदी साहित्य में अज्ञेय जी सरीखा बहुआयामी व्यक्तित्व शायद कोई नहीं। जीवन का कौन-सा ऐसा कोण है, जो अज्ञेय जी द्वारा अनछुआ है।

कश्मीरियों-सा सौंदर्य; आभिजात्य और शराफत की मात्रा इतनी अधिक कि वे जैसे उनकी नाक की अनी से चौबीसों घंटे टपकती रहती थी, पूरी तरह भारतीयता का प्रतिनिधित्व करता हुआ स़फेद बुर्राक परिधान पहने वे मुझे ऐसे लगते थे, मानो कोई महान ग्रीक दार्शनिक।

बावजूद इसके कि अज्ञेय जी बर्कले विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके थे, किसी ने उन्हें हिन्दी के बीच में अंग्रेज़ी शब्द का प्रयोग करते न देखा था, न सुना था, यहाँ तक कि उनके ख़ब्ती क़रीबी तक यह कह कर ‘गंगाजली’ उठाते थे कि उन्होंने अज्ञेय जी को हिंदी में बातचीत करते वक़्त एक भी शब्द अंग्रेज़ी का बोलते कभी नहीं सुना। जब एक दिन मैंने अशोक सेकसरिया से कहा कि वे कभी भी किसी अंग्रेज़ी क़िताब का हवाला नहीं देते या ज़िक्र नहीं करते, जबकि हमारे विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष हर वक़्त अंग्रेज़ी क़िताबों के संदर्भ की धौंस बिखेरते रहते हैं, तो उनका तुरंत जवाब था- ‘क्योंकि वे हिंदी और अंग्रेजी दोनों साहित्य के गहन जानकार हैं।’

एक बार मैं दिल्ली में थी और इला जी के आग्रह पर सुबह की चाय पर उनके यहाँ गई तो उनका घर देख कर दंग रह गई। उनका घर घने पेड़ों से घिरे एक बड़े इलाके में था। जब मैं पहुँची तो अज्ञेय जी बाहर बरामदे में रखी आरामकुर्सी पर बैठे हुए अखबार पढ़ रहे थे। वे जिस आत्मीयता और सौम्यता से मुझे भीतर डायनिंग टेबल पर ले गए, उसे देख कर और महसूस कर मुझे रोमांच हो गया। वहाँ इला जीजी मौजूद थीं, लेकिन अज्ञेय जी ने स्वयं चाय बनाई और सिंके हुए टोस्ट पर मक्खन भी खुद लगाया। शायद इसकी वजह उनका विदेश में प्रवास था, जहाँ के लोग महिलाओं और पुरुषों के काम बाँटते नहीं हैं। पर मुझ सरीखी साधारण महिला को उनके आतिथ्य का यह अंदाज बहुत ही रोचक और मोहक लगा, क्योंकि हम अज्ञेय जी जैसे उच्च कोटि के लेखकों को मन के ऐसे ऊँचे राजसिंहासन पर बैठा कर रखते हैं जहाँ उनके चारों ओर उनकी विद्वता की आभा का एक चक्र घूमता रहता है। तभी इला जी ने कहा, ‘चलिए कुसुम जी, आपको हमारा दरख़्त पर बनाया हुआ घर दिखाते हैं।’ वैसे मैंने खजुराहो के पास ‘पन्ना गांव’ में एक अंग्रेज़ का भी ऐसा ही एक ‘दरख़्ती घर’ देखा था, पर अज्ञेय और इला जी के सौंदर्य बोध से रचा-पगा यह ‘पेड़-घर’ अद्भुत था।

अज्ञेय जी के कलकत्ता प्रवास में चाय पर या ‘रचना’ आदि के छुटभैया कार्यक्रमों में मित्रों और अन्यान्य श्रोताओं ने अज्ञेय जी से तरह-तरह के प्रश्न पूछे थे। स्मृति के आधार पर वे इस प्रकार हैं- ‘कविता के पठन-पाठन और उस युग में इसकी स्थिति पर उन्होंने कहा था कि आजकल कवि ही कवि की बात सुनते हैं और कवि ही कवि की बात करते हैं, जो अच्छी बात नहीं है। समाज में कभी कविता का सम्मान ज़्यादा होता है और कभी कम। इस दृष्टि से मैं समझता हूँ कि कविता के क्षेत्र में कोई नई घटना नहीं घटी है।’’

आलोचना के विषय में पूछे गए प्रश्न पर उनका जवाब था :‘‘हमारे समाज में आलोचना के दो काम होते हैं। एक तो साहित्य-रचना की व्याख्या करे, उससे जो नए मूल्य प्रकट होते हैं, उसे समाज तक पहुँचाए और समाज में उस साहित्य की समझ बनाए। दूसरी तरफ, आलोचना का यह काम भी होता है कि समाज में जो परिवर्तन होते हैं, उसे रचनाकर्मी तक पहुँचाए। बताए कि समाज इस तरह बदल रहा है, इसलिए साहित्य में इस तरह के परिवर्तन होने चाहिए।’’

प्रेक्षागृह में से एक व्यक्ति ने अज्ञेय जी से पूछा ‘‘आधुनिकता बोध की पीड़ा’’ निबंध में निर्मल वर्मा ने एक जगह लिखा है कि अज्ञेय का ‘मैं’ हमेशा सुसंस्कृत और शालीन है तथा ‘अन्य’ हमेशा उच्छाड़, गलत और हास्यास्पद, इस पर कोई टिप्पणी करना चाहेंगे?’’

‘‘इस पर टिप्पणी तो उन्हीं को करनी चाहिए जिन्होंने यह कहा है। वैसे इस बात का पूर्वार्ध अगर सच है, तो मुझे इसमें कोई दोष नहीं दिखाई देता और उत्तरार्ध अगर सही है, तो पूर्वार्ध कैसे सच हो सकता है?’’ अज्ञेय का जवाब था।

तभी किसी ने खड़े होकर पूछा, ‘‘काफी अरसे से आपने कथा साहित्य में कुछ नहीं लिखा। क्या आपको ऐसे माहौल में कथा साहित्य की उपादेयता कम लगती है या आप अपने को उस मनःस्थिति में नहीं पाते हैं या कोई अन्य कारण है?’’

इस प्रश्न के उत्तर में अज्ञेय ने जवाब दिया- ‘‘कभी ऐसा भी होता है कि उस विधा का समय नहीं रह जाता या उस विधा का स्वर प्रमुख नहीं रह जाता। ऐसा हो सकता है, पर यहाँ कुछ ऐसा रहा, यह तो मैं नहीं सोचता। उपन्यास का समय तो निश्चित रूप से आज है। अलबत्ता कहानी का युग अब नहीं है। इसका साहित्यिक महत्व कुछ कम हो गया है।’’ अज्ञेय जी ने यह भी कहा, ‘‘उपन्यास की लोकप्रियता, उपयोगिता और महत्व अभी कम नहीं हुआ है, लेकिन कहानी का स्थान -यह मैं सारे संसार की बात कर रहा हूँ -बहुत कुछ टी.वी. के कार्यक्रमों ने ले लिया है।’’

एक श्रोता ने पूछा :‘‘उपन्यास विधा के बारे में पिछले दिनों निर्मल वर्मा ने यह बहस शुरू की थी- ‘‘हिंदी उपन्यास ने योरोपीय ढाँचे को ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया और उसने अपनी जातीय ज़रूरतों के अनुरूप उपन्यास के स्वरूप की खोज नहीं की। इस बारे में आप क्या सोचते हैं?’’ इस प्रश्न के जवाब में उनका बेबाक उत्तर था :

‘‘उन्होंने कहा है तो उनसे ही व्याख्या लेनी चाहिए, लेकिन बहुत हद तक यह बात नहीं है। हालाँकि उपन्यासकार के बारे में यह बात जितनी सही है, उतनी ही उसके आलोचक के बारे में भी। उपन्यासों में काफी कुछ नया हुआ है, जो भारतीय ही है, लेकिन उपन्यास आलोचक अभी तक अपनी कसौटियों में कोई संशोधन नहीं कर पाया है। वह उपन्यास को अभी भी योरोपीय आलोचक की आँख से देखता है। दोष आलोचना का ज्यादा है, उपन्यासकारों का उतना नहीं है।’’

‘‘सन ’50 के बाद के किन उपन्यासकारों को आप पसंद करते हैं?’’

‘‘उपन्यासकारों में रेणु मुझे महत्वपूर्ण लगते हैं। कुछ और भी उपन्यास पढ़े हैं। कुछ अच्छे भी लगते हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का पहला उपन्यास बहुत अच्छा लगा था। फिर ‘पुनर्नवा’ भी अच्छा लगा। नागर जी के भी उपन्यास अच्छे लगे। मैंने जो ऊपर तीन नाम लिए हैं, तीनों ही उपन्यासकार पश्चिमी ढंग के उपन्यासकारों से एकदम अलग हैं।’’

महत्वपूर्ण आलोचक के प्रश्न पर अज्ञेय जी का यह बेहिचक और साफ़-शफ्फ़ाफ़ उत्तर उनके गहन आत्मविश्वास का परिचायक है, ‘‘सामान्य आलोचना की दृष्टि से मुझे हजारी प्रसाद जी द्विवेदी की आलोचना अच्छी लगती रही और मैं समझता हूँ कि उससे लाभ भी हुआ है। रमेशचंद्र शाह की आलोचना पाठक मात्र के लिए उपयोगी रही है। कुँवर नारायण ने भी आलोचना की है, लेकिन बहुत कम। उनकी आलोचना अच्छी है, लेकिन इसकी मात्रा इतनी कम है कि उसका कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। नामवर सिंह जी की आलोचना से कई बार ऐसा लगता है कि साहित्य की समझ तो उनको है, लेकिन वह पूरी तरह प्रकट नहीं होती, क्योंकि वे मतवाद के बंधन के बाहर नहीं जाना चाहते।’’

मुझे याद है जब अज्ञेय जी ने नया प्रतीकपत्रिका निकाली थी तो मेरे घर पर रचना’ (महिलाओं की संस्था) की मीटिंग के पहले मैंने उनसे गद्गद् स्वर में पूछा ‘‘अज्ञेय जी ये इला डालमिया कौन हैं?’’

और ज़रा देखिए बड़े आदमी का बड़प्पन हो सकता है, मेरे सरल स्वभाव से परिचित होने के कारण उन्होंने एकदम सहजता से कहा : ‘‘ये रामकिशन जी और दिनेश नन्दिनी जी डालमिया की पुत्री हैं।’’

‘‘ओ तभी इनमें इतनी काबिलियत है कि ये आपके साथ संपादन करें। वरना मैं तो सोचे जा रही थी कि हम मारवाड़ियों में तो इतनी पढ़ीलिखी और साहित्यिक समझवाली महिलाएं तो विरल ही हैं।’’ मेरी कौतूहलभरी जिज्ञासा के उत्तर प्रत्युत्तर में अज्ञेय जी हल्का सा मुस्करा दिए।

अज्ञेय जी ने जब ज्ञानपीठ पुरस्कार राशि में बराबर की राशि मिलाकर ‘वत्सल निधि’ की स्थापना की तो मैंने पूछ लिया- ‘‘आपने ऐसा किस उद्देश्य से किया है?’’

‘‘जब कोई साहित्यकार बीमार होता है, तो सभी शोर मचाते हैं कि सरकार को कुछ करना चाहिए। सरकार को क्यों करना चाहिए ऐसा कुछ लेखक के लिए, जो वह दूसरे नागरिकों के लिए नहीं करती? हमें अपने लिए माँग क्यों करनी चाहिए? हम एक तरफ तो यह मानकर चलते हैं कि लेखक साधारण आदमी से जुड़ा हुआ है और साधारण आदमी है। दूसरी ओर, हम उसकी हर ज़रूरत को असाधारण मानते हैं और उसके लिए सरकार से चाहते हैं कि कोई असाधारण व्यवस्था करे; ऐसा क्यों? जिस तरह हम अपने परिवार के किसी सदस्य के सुख-दु:ख में हिस्सा लेते हैं और साहित्यकार को अपना परिवार मानते हैं, तो हम खुद उसके सुख-दुःख में सबसे पहले योग देने क्यों नहीं जाते?’’

जिन्होंने अज्ञेय जी को थोड़ा भी जाना है, वे इन शब्दों के महीनपन और गहराई को समझ सकते हैं… समझ सकते हैं उस करुणा को, जो उनके हृदय में राज करती थी; जबकि आमतौर पर अज्ञेय जी को बहुत ही आत्म-केंद्रित, असंपृक्त, निर्मोही और अभिजात औपचारिकता से परिपूर्ण एक मुजस्सम माना जाता था। मुझे वे कभी ऐसे नहीं लगे, क्योंकि चार-पाँच बार अज्ञेय जी के आतिथेय (कलकत्ता प्रवास) की भूमिका निभाते समय मुझे बार-बार यही अनुभूति होती थी कि अज्ञेय जी का अंतर्मन बाल-सुलभ-सा सहज था। एक बार जब मैं उनके और इला जी के लिए उपहार लाने जा रही थी, तो वे भी साथ चल पड़े (आश्चर्य-सा हुआ, क्योंकि यह घटता नहीं था)। ख़ैर.. दुकान में पहुँच कर वे अपनी शुभ्र धवल दंतपंक्ति से चमचमाती हँसी बिखेर कर बोले, ‘‘उलाहना न मिल जाए, इसलिए आया हूँ। वरना कहा जाता है- पसंद आए चाहे नहीं, आप थोड़े ही पसंद कर के लाए हैं!’’ फिर बाक़ायदा उन्होंने गुलाबी रंग की एक ढाकाई जामदानी चुनी।

एक बार दिल्ली से उनका पत्र आया, ‘‘आपका भेजा अशोक का पौधा मिला। सौभाग्य से तभी सुंदरलाल जी बहुगुणा आ गए, तो उनसे रोपवा लिया।’’

मेरा जवाब था, ‘‘अज्ञेय जी ! कहा जाता है कि अशोक वृक्ष पर षोडश कन्या का पदाघात हो, तभी उसमें से फूल खिलते हैं। आपने यह क्या किया? बहुगुणा जी से पौधा रोपवा लिया!..’’

मैं नासमझ यह समझ नहीं पाई थी कि गझिन सोच के व्यक्ति अज्ञेय ने कुछ सोचकर ही सुंदरलाल बहुगुणा से वह पौधा लगवाया था। इसकी ताईद बहुगुणा जी के कलकत्ता आने पर हुई। उन्हें देखकर मैं सोचे जा रही थी कि इस उम्र में बहुगुणा जी का यह रूप और रंग (?), तो उस समय तो वे सच ही किसी भी सुंदर षोडश कन्या से बराबरी कर सकते थे!

एक बार ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ में संप्रेषणीयता पर उनकी व्याख्यानमाला थी। मैंने घर पर नोक-झोंक में उनसे कह डाला, ‘‘अज्ञेय जी, आप संप्रेषणीयता पर बोल रहे थे। पर मुझे तो लगता है कि आपका भाषण वहाँ उपस्थित विद्यार्थियों के सिर पर से गुज़र रहा था। वे यदि सिर भी हिला रहे थे, तो केवल दिखाने के लिए।’’

उन्हें यह बात भायी नहीं, यह उनके चेहरे से ज़ाहिर था। पर मुझ पर उनका विशेष स्नेह था। उनकी गहन समझदारी से भरी गंभीरता थी। अत: धैर्य-भरे स्वर में वे बोले, ‘‘इससे हल्का उस गहरे विषय पर बोला नहीं जा सकता। ये बातें सीधे समझ में आतीं भी नहीं, पर यदि बाद में ध्यान दिया जाए, तो तथ्यों की सत्यता आपको काफ़ी कुछ समझा देगी।और कहना न होगा ऐसा ही हुआ।

आपसी बातचीत में अज्ञेय जी जो प्रेम-धारा प्रवाहित कर देते थे, उसका कुछ अनुभव भारतीय भाषा परिषद वालों को भी है। घटना उस समय की है जब अज्ञेय जी मंच से काव्य-पाठ करना पसंद नहीं करते थे। वे युगोस्लाविया से लौटे थे और प्रभाकर माचवे के आग्रह पर परिषद में काव्य-पाठ के लिए तैयार हो गए। पर होनी देखिए, जैसे परिषद पर कुदरत का कहर मानो उसी दिन होना था! उनके माइक पर आने के पाँच मिनट बाद ही बत्ती गायब, माइक ग़ायब, ए.सी. तो दूर पंखा तक ग़ायब…। ऊपर से गर्मी का महीना.. हॉल खचाखच भरा। मारे शर्म के पदाधिकारियों का बुरा हाल। हम सबके चेहरे यों उड़े हुए थे मानो कोई ग़मी हो गई हो! भयंकर नुकसान! पर ‘करें तो क्या करें’ की मुद्रा में सब हतप्रभ से एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। घबराहट में किसी को भी सिर से पैर तक चूते पसीने का भान न था, पर धन्य हैं अज्ञेय जी ! और धन्य हमारे भाग्य कि अज्ञेय जी ने एक हाथ में टार्च सँभाली और एक में काग़ज़ और किताबों का पुलिंदा; और बिना रुके, बिना अटके, बिना पसीना पोंछे, एक घंटे तक धाराप्रवाह काव्य-पाठ करते रहे, ‘असाध्य वीणा’ समेत!

अज्ञेय की ऐसी ढेरों महीन-महीन, छोटी-छोटी घटनाएँ हैं, जो उन्हें एक बड़ा आदमी और असाधारण लेखक साबित करती हैं।

उनका मानना था ‘‘प्रेम-सौंदर्य सब जगह छिटका हुआ है। कलाकार की कोशिश होनी चाहिए कि उसके दर्शन कर पाए और आत्मा से उसको सबको उपलब्ध कराए! वह सहज रूप से  सबके अंतरंग को उतना साफ टटोल सके, जैसा कि वे अपना चेहरा आईने में देखते हैं।’’

पर क्या कभी भी! किसी को भी पूरी तरह कोई समझ पाता है? और यदि वह ‘अज्ञेय’ जैसा श्लाघनीय व्यक्तित्व हो, तो क्या यह कठिनाई और बढ़ नहीं जाती?…

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