चर्चित कथाकार। साहित्य की कई विधाओं में लेखन। कहानी संग्रह ‘लड़की जिसे रोना नहीं आता था’, ‘माई रे…’, ‘एक मधुर सपना’, ‘पानी पानी’, ‘एक स्वप्निल प्रेमकथा’ आदि। बच्चों के लिए भी लेखन। संगीत से लगाव।
‘सिरचन सुन!’
सुन कर सिरचन को अच्छा लगा! कम से कम किसी ने तो आवाज देने लायक समझा उसे। फिर ये तो कोई ऐसे-वैसे नहीं, बल्कि बाबा थे। गांव के मंदिर के पुजारी। भला उस दीन को क्या सुनाना चाह रहे?
-अच्छी खबर है! हमारे-तुम्हारे ही नहीं, पूरे गांव के लिए। बबुआ जी की बिटिया का बियाह होने वाला लगता है। बड़के बाबू जी आय रहे कल राते। दिन दिखवाय सुदिन पूछे। चौरा पूज फिर चले गए…!
यह तो सच में सत्तू में गुड़-घी और दही में छाली जैसी बात थी! सिरचन का जी और मुंह भर आया। बरसों बाद! हां सच में बीत गया था तबसे कितना अरसा…।
कोई तीस बरस पहले मानू के घर हुए अपमान के बाद, तब लगा था कि ऐसे जीवन और ऐसी दुनिया में रखा क्या है? वह भी उस जैसे कारीगर के लिए। उनका तो इस मिट्टी से उठ जाना ही अच्छा! कोसा मेहरी को भी। मुई खुद तो गई… बाल बच्चों समेत… और उसे छोड़ गई ये दिन देखने, सहने के लिए! बस चुप सा हो गया उस दिन से। बहुत बुने बनाए- चिक, आसनी, शीतलपाटी, मोढ़े और क्या-क्या! प्रण लिया, अब इन सबको हाथ भी नहीं लगाएगा।
लेकिन फिर तोड़ा अपना मौन और प्रण मानू के लिए! पूरा कर अधूरा काम भागता दौड़ा कि पहुंचा दे उस तक उसकी सौगात। नहीं तो ससुराल में रहेगी नहीं उसकी बात। जाने क्या क्या सहने पड़ें ताने! भेंट हो गई संयोग से। जो भेंट लाया था दे भी दी। लेकिन उनकी गाड़ी ने टेसन छोड़ा, जैसे ही मन हुआ दोबारा कि छोड़ छाड़ दे सब कुछ। आ जाए अगली गाड़ी के नीचे। उठ जाए असार इस संसार से। मगर मनाया मानी मन को जैसे तैसे।
लगा कि इस तरह हार कर गया तो उसके संग–साथ ही चली जाएगी हमेशा हमेशा के लिए यह कला भी। जाने से पहले किसी को तो सौंप जाए यह धरोहर! अपनी जान लेने का तो हक है फिर भी… मगर इस कारीगरी को मिट जाने देने का नहीं! लेकिन दे भी तो किसको यह थाती?
फिर मुंह को आने लगा कलेजे के साथ साथ वही सब- मुई खुद तो गई बाल बच्चों को भी साथ लेती हुई…। कम से कम एक किसी को तो छोड़ना था साथ देने को? कोई तो चाहिए! बंस नहीं तो कारीगरी को तो बढ़ाने के लिए आगे।
इसी सोच में था कि घुमंतू साधुओं के साथ लगा दिखा वह बच्चा। ‘महाराज यह बालक…?’ हिम्मत कर पूछा। कौतुक से भरा। ‘हमारा नहीं यह! अपने मन से चला आया है कहीं से। समझाया बहुत। मगर मान नहीं रहा। कहता है घर छोड़ दिया है! बचपना लेकिन नहीं छूटा…।’ सबसे बड़े स्वामी ने कहा – बच्चे की ओर देखते हुए जो उस समय बंसवाड़ी में बांस के पत्ते खींच सीटी चकरी या फिरनी सा कुछ बनाने की धुन में था। संभावना भी है! मन ही मन सोचा सिरचन ने। होती ही है वह तो हर नयी पौध में। हर नए हाथ और मन में! ‘स्वामी जी! छोटा मुंह और जिगरा बड़ा। आप इस बच्चे को पालने के लिए मुझे देंगे क्या? अपनी कारीगरी सिखलाना सौंपना चाहता हूँ इसे… दुनिया से अपने जाने से पहले’ कहते हुए था अंदेशे में। दिल में डर भरा कि साधु संत कहीं मान न जाएं बुरा। फिर शाप तो उनके कमंडल में ही रहता… और कुभाख जैसे होंठों पर। क्या जाने क्या कह दें कर दें क्या क्या! पर खोने के लिए पास उसके था भी कुछ नहीं उस समय! इसीलिए कह दिया हौसला कर के। सुन कर क्रोधित नहीं हुए महाराज। अपितु हँसे- हम तो हैं ही नहीं बीच में कहीं! यह तो तुम जानो और जाने यह बच्चा! दिन दो दिन रहेंगे यहां। उतना समय है पास तुम्हारे। यदि उतने में हिल मिल गया तुमसे… जैसे अभी संग हमारे – तो छोड़ जाएंगे यहीं। सौंप देंगे तुम्हें अपनी कला सौंपने सिखाने के लिए।
सुनते सिरचन के बुझे मन में जैसे प्राण लौट आए। होंठ और हाथ फड़कने लगे। भर आई आंखें।
‘लेकिन ध्यान रहे!’ खरज स्वर गूंजा स्वामी जी का। ‘हम साधुओं की संगति में रहा है यह बच्चा। इतने दिनों में बस गया कहीं हममें भी। कुछ इसके अंदर भी अंश आ गया हमारा। किसी ने कभी हाथ भी लगाने का दुस्साहस किया तो यह उसी समय हाथ से निकल जाएगा। लौट आएगा फिर शरण में हमारी। और धृष्टता की होगी जिसने उसका तो जो होगा सो होगा ही…।’ कह कर चले गए साधु। उपहार या वरदान स्वरूप उस बालगोपाल की जिम्मेवारी सौंप कर उसे।
सिरचन को लगा किसी बड़े पुण्यफल सरीखा वह बच्चा! बड़ी किस्मत और नेमत से ही मिलता है किसी को कोई ऐसा। वह भी तब जब कोई और आस हो न आसरा! इसीलिए पुकार का नाम रखा उसका मन्ना। मन की मुराद ही तो वह था! सधुक्कड़ी नहीं कारीगरी के लिए ही बना! जो भी बताओ झट सीख जाता और सीखे हुए में अपना भी हुनर मिलाता।
मन का मानी उसी तरह मगर मानस का धनी! थोड़ा बड़ा हुआ तो आस पास की लकड़ियों, बल्लियों, बेंत, खपच्चियों को जोड़ कर एक यंत्र सा बना डाला बुनने वाला! जैसे मन्ना को उसका नाम दिया था सिरचन ने… मन्ना ने मशीन का नाम रखा – सिरचन का सिरजन!
‘सिरचन सुन! हाथ को ही मशीन बना लिया है जैसे तूने वैसे ही मैं इस मशीन को हाथ बनाऊंगा! नया हाथ तेरा और तुझ जैसे कारीगरों का – जिससे बुनाई गढ़ाई कढ़ाई हो उतनी ही अच्छी – बिलकुल हाथ जैसी – मगर और जल्दी। क्यों… कैसा रहेगा?’ सिरचन ही बोलता उसे मन्ना। कभी कान में कहा उसके हलके से – क्यों रे! बापू बोल ना! ‘बापू नहीं रे! तू तो भगवान सरीखा मेरे लिए। और भगवान को तो नाम लेकर ही पुकारते। बाबा दादा कौन बुलाता?’ कह कर कर देता निरुत्तर। अपने बालवचनों बोलवचनों से तो कभी बाल लीलाओं से! और कभी पल पल बढ़ती और परवान चढ़ती अपनी उतनी ही बड़ी कारीगरी से।
दिन बहुत दूर नहीं बताया था पुजारी बाबा ने बबुआ जी की बिटिया के ब्याह का। कुछ कर के देना था अगर तो समय कम था उसके लिए। हाथ भी तो अब उतने तेज रहे नहीं। कबसे अभ्यास छूटा हुआ। मड़ई के एक किनारे पड़ा ‘सिरचन का सिरजन’ दिखा! मानो धूल पड़ी हो जनमों की। झाड़ा पोंछा साफ किया उसे और जाने कितने समय बाद बैठा कुछ बुनने बनाने। पर ठेस सी लगी कलेजे को। किसी पियासे हकासे को घूँट भर पानी हलक में उतरने पर लगती जैसे कभी। कसकती हुई हूक सी उभरी और आंखें भर आईं। धुंधला झिलमिला गया सब कुछ सामने। आगे कुछ भी दिखना कठिन हो गया। और पीछे दिखाई देने लगा दूर तक…।
बबुआ जी का ब्याह पहला अवसर बना मन्ना के लिए अपने काम का जौहर दिखलाने का! उस बरस हवेली की धूम और सज धज देखते बन रही थी। आखिर बड़के बाबू जी के छोटे राजदुलारे बेटे की शादी थी! महीने भर पहले से सजाई जा रही थी दुलहन की तरह हवेली। उसे भी बुलावा आया। हमेशा की तरह। पर हाथ जोड़ दिए सिरचन ने। बताया कि ये हाथ तो जर्जर हो चुके। पत्तों की तरह कंपकंपाते। अब तो मन्ना के ही हाथ हैं हाथ उसके! और भरपूर कारीगरी भी उनमें! फिर काम दिखाया उसका। ‘हिया पर हाथ रख कर कहिए क्या ये मुझसे भी अच्छे नहीं हैं?’ देख कर दंग रह गए हवेली में सारे। सिरचन ने बात बढ़ाई आगे – हाथ में हुनर है उसके और साथ में खुद की बनाई तंत्री भी! ऐसा बनाएगा कि देखने वाले देखते रह जाएंगे!
सचमुच! जब तैयार होने लगी चिक और शीतलपाटी तो सच में सब देखते रह गए। हुनर तो उसका देखने लायक था ही। न सिर्फ सिरचन जैसा ही, बल्कि बेहतर उससे भी कई मायनों में। मन्ना की बुनाई कढ़ाई कुछ अलग सी थी। और लिखाई भी…। उसी पर जाकर आंखें अटक गईं।
बड़की मलकिनी यानी बबुआ जी की माई की इच्छा थी कि इस सुअवसर पर बतौर सास अपनी नई बहू और बतौर बहू अपनी पुरनिया सास को यादगार उपहार की तरह दें कुछ खास कढ़ाईदार करवा कर तैयार! बहू के नाम के साथ हो कुछ विशेष कारीगरी जो बिछे सुहाग की सेज पर! और कोई अनूठी कलाकारी उनकी सास के लिए भी सनामधन्य!
कढ़ाई बुनाई रंगाई इतनी अच्छी! सबकुछ तो गजब शानदार। मगर उस बनावट बुनावट पर मोर के पैर की तरह होगी मन्ना की लिखाई यह बात तो किसी को थी पता नहीं। और तो और खुद सिरचन को भी। साधुओं के साथ इतने दिन रह कर भी जाने कैसे वर्तनी पक्की नहीं हुई थी बेचारे की। लघु गुरु भेद हृदयस्थ नहीं हुआ था। दुलहन का बड़ा प्यारा न्यारा नाम था – भंगिमा। मन्ना की कूची फिरी तो हो गई भंगी मां! सासू मां अर्थात बबुआ जी की पुरखिन दादी की पुरानी परंपरानुकूल संज्ञा हुई भरनी देवी। उसे तो फिर भी लगभग सही सही उतार दिया था। बस प्यार दुलार भरे उदार स्वभाव से हर एक के हिय में वास करने वाली और सबका मन और दामन भरने वाली भरनी देवी के ‘भ’ का मुंह रंगों से भर गया था।
‘ई का किया रे?’ बड़के मलिकार की नजर पड़ी तो चिहुँके। उनकी तो छींक भी दूर तक जाती थी और चिहुँक भी बड़ी भारी। मन भर काम करने के बाद भूख के मारे मन्ना उस वक्त बबुआ जी की मंझली भाभी का दिया कलेवा जीमने के जतन में था। हाथ मंझली भाभी का समय के साथ और तंग हो गया था या कि सिकुड़ गया था कलेजा। गाय गोरू के लिए भी अनभावत किनकिनाइन गुड़ के धेले के साथ सामने डाल कर चली गई थीं सूप में सूखा चिउड़ा। वह भी उनके स्वभाव सरीखा ऐसा कि हलक से उतारते नहीं बन रहा था।
सारी गरीबी और अभावों के बावजूद सिरचन ने तो मन्ना को भरसक भाव से ही पाला था। सो अब तक जीवन में ऐसे जेवन का कोई खास अभ्यास न था उसे। सुना उसने जरूर कि मलिकार कुछ कह रहे। पर फांका गले उतरे तब तो कुछ कहा जाए जवाब में! जबड़े में भरे चिउड़े से किसी तरह जूझते हुए अबस बरबस मुंह कुछ अजब सा हो रहा था। बड़े मलिकार को लगा जैसे गलती कर के भी वह न केवल उनकी अनसुनी अवहेलना कर रहा, बल्कि मुंह भी चिढ़ा रहा। यह तो अपने बनाए हुए बाप से भी निकला दाहिने! फिर क्या था! बड़े पैर की जूती उछली उस ओर और उस बालसुलभ फूले मुंह पर जा लगी। भरा पड़ा अधचबाया चिउड़ा धनबट्टी के धान सा बाहर आ गया। किसी और ही रंग में रंगा…।
चुपचाप उठा मन्ना और निकल गया वहां से। फिर किसी ने देखा नहीं उसे। तड़प कर रह गया सिरचन। कहां कहां उसे नहीं ढूंढ़ा। मगर सब जतन बेकार। फिर से उजड़ गई थी दुनिया। पूरी तरह! अब और रहने जीने का मतलब मकसद नहीं था। जी कर भी आखिर करना क्या? होना न होना बराबर ऐसे जहान में उन जैसों का!
समझाने वालों ने समझाया कि रहेगा तब तो जो गया फिर कर फिर कभी उसके पास आ सकेगा! मगर दिल दिमाग में तो गूंज रहा था बच्चे को सौंपते समय साधु संतों का कहा हुआ– हमारी छत्रछाया में इतने दिन रहा है यह बच्चा! कभी अगर कुछ हुआ इसके साथ ऐसा वैसा…। बाकी सब यह बात नहीं जानते थे। अधिकतर को अंदेशा था कि उस गहरी ठेस से आहत होकर कहीं कुछ कर न ले वह लड़का…।
गांव का माहौल भी अब वैसा न था। बहुत कुछ बदल गया था या बदल रहा था। पुरवा के बदले जैसे चलने लगे पछिया। पिछड़ों में भी जाग रही थी जातीय चेतना। संगठन बन गए थे उनके। कुछ की तो अपनी अदालतें भी। बात उन तक पहुंची। बात के साथ कामगार लड़के की ओर छिटके बड़के बाबू के जूते की आहट भी। वह मर्मांतक चोट खाकर पता नहीं अब है भी या नहीं बेचारा भोलाभाला…! जिस तरह सरकारी न्यायालय कभी स्वयमेव संज्ञान लेकर जनहित में कोई निर्णय लेते उसी तरह फैसला लिया उन्होंने। समय नहीं जो हो रहा उसे चुपचाप तकने सहने का! कर्म का फल तो चाहिए ही मिलना। मौका मिलते। वह भी इसी दुनिया इसी जनम में। लेकिन कानों कान भनक न थी किसी को इस बात की।
इस बीच धूमधाम से संपन्न हुई शादी बबुआ जी की। चांद सी प्यारी दुलहन डोली से उतरी। सवा महीने संग रहेंगे दोनों यहीं हवेली में फिर बाहर जाएंगे कहीं! बड़की मलिकाइन का फरमान था। घर भर का अरमान भी। देखते बनती थी जोड़ी दोनों की अनूठी। हूर परी सी आंगन में इत उत छन छन करती नई नवेली। और पीछे पीछे चक्कर लगाते छोटके बबुआ जी। बड़ा प्यार करते उसे। शयनकक्ष के परदे खिंचे रहते देर तक। मानो हर रात सुहागरात! हर यामिनी पूनम शहदीली! एक ऐसी ही रात जब अपने फैसले को पूरा करने पहुंचे ‘अपनी अदालत’ वाले तो धोखे में मारी गई नई नवेली बिचारी। इंसाफ के हिमायती थे वे लोग स्त्रीहत्या के कतई नहीं। पर पता चला नहीं उन्हें भी कि भूल ऐसी हो गई। बड़के मलिकार का कुलदीप बुझाने आए थे वे तो – कि बेटे के जाने का दुख दर्द वे भी जरा समझें। मगर हो कुछ और गया।
जो होता उतना ही भर तो नहीं होता! पहले स्त्रीवियोग में बावले हुए बबुआ जी के इलाज के चलते और फिर आने वाले वक्त की चाप भांपते धीरे-धीरे शहर जा बसे हवेली वाले। गांव का बसेरा वीरान सा हो गया। बस गिने चुने उम्रदराज साए! वे जो मिट्टी में मिलने तक मिट्टी को छोड़ कर जाना नहीं चाहते। और बड़की मलिकाइन सरीखी पुरखिनें बूढ़ी। ठीक से देख रेख करने वाला भी नहीं। न रहा कोई इधर न बचा कुछ भी। गांव से शहर और शहर से महानगर स्थानांतरित होती गई जायदाद पुश्तैनी। अब तो सुना नई पीढ़ी को धुन बाहर जा बसने की…।
अरसे तक सिरचन के दिल पर बोझ सा रहा। अपने दुख के पहाड़ से भी भारी। जो बीता छोटके बबुआ जी पर कहीं मानता महसूस करता उसमें अपनी भी जिम्मेदारी। जब खबर लगी कि लंबे इलाज के बाद वे ठीक हो गए – शादी भी हुई दूसरी और बाल बच्चे भी – तो भार कुछ उतरा। सांस में सांस आई। वरना क्या पता छूटने के बेर भी ठीक से छूटती या नहीं!
उन्हीं के यहां थी शादी। बबुआ जी की बड़की बिटिया की। शहर से आए थे कुलदेवी पूजने दिन दिखाने मलिकार। रात भर रहे भोर पड़े निकल चले। तीन सुदिन बताए थे पुजारी बाबा ने। सब पास पास ही के। सिरचन को लगा इस सुअवसर पर उसका कुछ करना तो बनता है! अपनी ओर से जो दिल में आए! अधिक समय न था हाथ में। इसलिए करना जो भी करना होगा जल्दी ही। उसे उम्मीद थी इस जश्न के बहाने बरसों बाद आबाद और गुलजार होगी गांव की उदास हवेली। पर ऐसा कुछ होता दिखा नहीं। फिर ब्याह की तारीख से कुछ पहले पहला आमंत्रण आया कुलदेवी और देवताओं के लिए मंदिर में। उससे खुला कि विवाह स्थल तो कहीं और! कहीं दूर! वहीं पहुंचेंगे कन्या वर और दोनों पक्षों के गिने चुने। किसी महल सरीखे आयोजन स्थल पर। और वहीं होगा सब कुछ…।
अब करे तो क्या? बनाने को बना लिया था सामान भेंट का। लेकिन बहुत दूर था ठिकाना। समय उतना ही कम। फिर भी पूछा पता किया। और मन बनाया कि जाएगा किसी तरह। पहुंचा आएगा अपनी सौगात। यह जो उसकी कारीगरी की संभवत: सबसे आखिरी निशानी! जो घटा था कभी उसकी तो भरपाई हो नहीं पाएगी। पर दिल अपना शायद होगा कुछ हलका…।
लगन से लग कर बनाई थीं सिरचन ने सौगातें अनमोल अनूठी। सच में ऐसी कि देखते रह जाएं देखने वाले! भीतर संकल्प था कि जहां जितनी दूर भी हो रही हो शादी… यह अनुपम भेंट तो पहुंचा कर ही दम लेगा! पहले पहल पुजारी बाबा ने समझाने की बहुत कोशिश की। कहा कि छोटके बबुआ जी के बावलेपन से कुछ कम नहीं उसका यह बावलापन भी! लेकिन फिर उसकी लगन उसका जतन देख पसीज गए वे भी। पते के लिए मंदिर में आया कार्ड उसे दे दिया। स्टेशन जाकर पूछपाछ कर चढ़ावे पर चढ़े पैसों से टिकट कटा कर बिठा दिया रेलगाड़ी में। भला और क्या चाहिए था सिरचन को! देवताओं के लिए पठाया निमंत्रण लेकर चल दिया खुशी खुशी। अपनी कारीगरी की पोटरी साथ लिए। दूर उस डेस्टीनेशन वेडिंग की ओर…!
तबीयत अब ठीक नहीं रहती थी उसकी। रह रह कर उठती खांसी। सफर करते मन में ऐसे भाव भी आते रहे मानो देवदास हो वह! ऐसा देवदास जिसके पास दारू न दवा। न साथ कोई चुन्नी बाबू ही। मगर फिर मजबूत करता अंदर से अपने को भीतर से। दूर की डगर है। तीन चार रोज तो पहुंचने में ही लगेंगे। तब तक बचाए संजोए रखना है अपने को और अपनी धरोहर को भी। लेकिन बीच में ही आंख लग गई। खुद उसकी कैसे लगती! लगी रेल वालों की। रेल पुलिस ने घेरा।
– चुरा कर ये सामान कहां ले जा रहा?
– चोरी का नहीं जी बिलकुल। यह तो कारीगरी का है!
– चोरी को कारीगरी कहता है? इतने डंडे पड़ेंगे कि अब तक का खाया पचाया सब उगल देगा!
‘उगलने को कुछ नहीं मेरे पास… सिवा बलगम के!’ कोशिश की समझाने की सिरचन ने। ‘किसकी चोरी करूंगा मैं भला? मेरे सिवा यह कारीगरी तो किसी को आती नहीं अभी। लगता है इसी तरह साथ चली भी जाएगी साथ अपने। एक बच्चा था… वह भी चला गया जाने कहां…!’
‘ठीक है! कारगरी है हाथ में तो पेश कर जरा नमूना! चल बुन कर कुछ दिखा। अपनी कमाल वाली कारीगरी।’
उधे़ड़कर कुछ बुन दिया उनके आगे! ठगे रह गए देखने वाले। अब क्या कहा जाए…? ‘वह सब तो ठीक है! मान लिया कि यह तुम्हारा ही। लेकिन साधारण टिकट लेकर चढ़े हो गाड़ी में। और सामान तुम्हारे पास इतना! एक सवारी के टिकट पर जितना जा सकता उससे कहीं बहुत ज्यादा!
‘तो इनकी भी टिकट काट देंगे?’
‘ऐसे कैसे? हां इनमें से कुछ का अब जरूर टिकट कटेगा! तुम्हारा बोझ कर देंगे थोड़ा हलका…।’
‘और हम आखिर किस दिन काम आएंगे! कुछ चीजें हम भी रख लेंगे। फिर मजे मजे में सफर पूरा कर सकोगे!’ सिपाही के साथ चेकर भी मिल कर लुत्फ लेने लगा। दोनों ने अपनी अपनी पसंद की कलाकारी निकाल ली। किसी तरह अरज निहोरा कर कुछ सौगातें बचाईं सिरचन ने। बताया किस बड़ी हस्ती के यहां यह जा रहा उपहार ये सौंपने। फिर दिखाया थैले से निकाल कर कार्ड भी उन्हें।
‘अरे! इतने बड़े लोगों के यहां जा रहा! ऐसी शादी में? तब तो बख्शीश भी खूब मिलेगी।’
‘अब इस काम की बख्शीश मैं लेता नहीं।’ जीभ दांतों के बीच रख दी सिरचन ने। ‘बस पहुंचा दूं वहां तक! और मुझे कुछ चाहिए नहीं अपने लिए…।’
‘तो लेकर रख लीजो हमारे लिए! लौटती बेर फिर मिलेंगे।’ ताकीद करते गए वे मुंह में आया पानी पोंछते।
‘कहा था बावले कि छुपा कर रख दे यह सब शौचघर में एक किनारे!’ आते जाते यह सारा नजारा देखते कहा चाय वाले ने। केतली लिए ‘गरम चांऽ चांऽ’ करते। सिरचन ने कुछ कहा नहीं। किसी के कहे भी शौचघर में कैसे रख देता भला पावन मन से बुने उपहार ये…?
पहुंच तो गया किसी तरह। और वह भी सही समय। मगर उस भव्य विशाल परिसर में उस जैसे छोटे आदमी की समायी हो तो कैसे? उससे अच्छी वेशभूषा में तो द्वारपाल और संतरी प्रहरी थे वहां। सारी बिनती चिरौरी बेकार। टरका दिया गया हर बार। कार्ड दिखाया तो बोले क्या इतने बेवकूफ हैं कि कार्ड कहीं से झटक लेने से तुझे जाने देंगे? बताया सिरचन ने कि ऐसा वैसा नहीं कार्ड यह! बल्कि भगवान को भेजा हुआ! सुन कर वे हँसे। ‘तो जा जल्दी से! वापस चला जा वहीं। शरण में भगवान की। नहीं तो हमारे हाथों पहुंचा दिए जाओगे…!’ सिरचन मायूस हो गया।
इससे अधिक लाचार अपने को कभी महसूस नहीं किया था। आते जाते लोगों को देखा कि कोई तो देख कर पहचान पुकार ले। लेकिन उस चकाचौंध में उस जैसे को कौन देखता पूछता? बार–बार निवेदन करने पर भी कोई असर या चारा न देख आखिरकार कहा दरबानों से – ‘अच्छा ठीक है! न जाने दें उसे। पर उसकी यह सौगात तो अंदर भेज दें। देखने वाले पहचान जाएंगे। कारीगरी है यह कैसी और किसकी…!’
इस बार द्वाररक्षकों ने किया नहीं इनकार। रख लिया लेकर उपहार। सिरचन को लगा जैसे काम पूरा हो गया। अब सौगात उसकी अपनी मंजिल तक पहुंच जाए शायद! और वह भी…। कदम मुड़ने को ही थे कि नजर किसी की पड़ी। ‘अरे सिरचन तू! इधर क्या कर रहा?’
बताई सिरचन ने सारी बात। हालांकि पहचान नहीं पा रहा था पहचानने वाले को।
‘किस फेरे में पड़ा बावले? चला जा यहां से! इससे पहले कि कोई देख ले। वरना कुछ अनर्थ हो सकता। कइयों को अब भी याद है! वे उस हादसे के पीछे तेरा हाथ देखते।’
‘कैसी बात करते हैं साहेब! कारीगर के हाथ हैं ये! हथियार कैसे उठा सकते?’ फूटा सिरचन के भरे कंठ से।
‘यही कह कर तो समझाया शांत किया था उन्हें उस समय। वरना सलाखों के पीछे भेजना चाह रहे थे तुझे…।’
‘राम राम!’ सिरचन का जी भर आया। ऐसी नगरी किस बिध रहना? अब और नहीं एक पल रुकना। इस महफिल इस दुनिया में!
निकल ही रहा था कि दरवाजे के पास लगा पान का स्टॉल दिख गया। हवा के साथ खुशबू आ रही थी मीठी-मीठी प्यारी-प्यारी। बंध रहा था बीड़ा गमकौआ। कोई सामान तो अब था नहीं साथ। संभवत: इसलिए द्वारपालों का ध्यान इस बार नहीं गया। या कौन जाने जान बूझ कर जाने दिया उन्होंने। ‘तनिक लगाना तो एक जल्दी से! और बड़े प्यार से!’
कहा सिरचन ने तो कहने के साथ निकली तनिक नमी सी। जिस पर पड़ा छींटा वह मुड़ा। मुड़ते झांस पसीने की लगी। नाक में घुसा भभका। ‘अरे किसने इस जाहिल को इधर आने दिया? लगता है कितने दिन से नहीं नहाया। पान का पूरा मजा किरकिरा कर दिया बुड़बक ने। स्वाद बिगाड़ कर रख दिया ! थू… आक्…!’
‘इस पसीने से ही सिंचती है बाबू हर मिठास दुनिया की! और बनता है सब कुछ जो सुंदर मनभावन!’
‘अच्छा? तो तू अपना ज्ञान भी बघार रहा! अब हमें सिखाएगा? अरे कहां हो डंडो मुस्टंडो? लेकर जाओ फौरन इसे। दूर हमारी नजरों से। फिर जितनी खा सकेगा खिलाना मन भर के…।’
कोई लीडरनुमा आदमी था शायद! छुटभैये जिसके खींचे ले जा रहे थे बाहर। एक नीमअंधेरे कोने में जहां ढेर था घूरे का। घेर कर वहीं खड़े हो गए। बांहें चढ़ाने लगे अपनी तो बस इतना कहा उसने कि जो करें सोच समझ कर। और सहेज संभाल कर। दिल कहे जितना। जी करे जैसा! इनसान वह भी। उनके बीच का उन्हीं के जैसा! पर हाथों में ऐसी कारीगरी जो अब गांव शहर देश क्या दुनिया भर में कहीं नहीं।
‘ठीक है! कह रहे तो मान लेते। हाथों को हम हाथ नहीं लगाते! तुम रहो न रहो हाथ सलामत रहें तुम्हारे…!’ कह कर पांव तोड़ कर वहीं छोड़ दिया उन्होंने। बाणों की शय्या थी भीष्म की। कूड़े की उसकी। पर इस तरह पड़े हुए भी सुकून की सांस ले सकता था। यह सोच कर कि स्नेहिल भेंट उसकी – वह कला वह कारीगरी- वहां पहुंचेगी जहां चाहिए पहुंचनी…।
बड़की मलिकाइन की धुंधलाती आंखें गुनावन में पड़ गईं देखते। परसने लगी वह बुनावट। मानो छूकर उसे समझने की कोशिश कर रहीं। मानू ने तो पहचान लिया पहली नजर में! जान गई कि सिरचन काका की है कारीगरी। दौड़ कर गई द्वार तक। मगर कोई वैसा नजर न आया दूर दूर तक। लौट कर बड़े प्यार से बतलाया समझाया दुलहन बनी भतीजी को – जिसने बस नाम सुना जाना था इस कला और इसके कारीगर का। ‘साथ अपने ले जाना! और संग सदा रखना! किसी बहुत बड़े आदमी की भेंट जान कर… किसी बड़े अपने का प्यार समझ कर बावरी! पीर फकीर की मान कर दुआ…!’
उसने किया भी ऐसा। पर हवाई अड्डे पहुंच कर पता चला सामान हो गया ज्यादा! थोड़े भी अधिक भार की कीमत थी काफी! और कुछ तो छोड़ने को तैयार न था कोई। उसे ही बलिदान करना पड़ा। उस भेंट को अलग अपने से। वैसे भी त्याग उत्सर्ग का पुण्यकार्य तो आता स्त्रियों के ही हिस्से में। रो सुबक कर भी वह अपना भार कम कर रही थी। सब समझ रहे थे नई लड़की के संस्कार कितने अच्छे! नहीं तो ब्याह कर विदेश बसने जाते अब कौन रोता भला? भले अपने लोग अपनी मिट्टी छूटे पीछे…।
उधर कूड़े की ढेरी पर भी सिरचन खुश था- यह सोच कर कि इतने जतन से बुन बना कर भेजीं जो अनमोल चीजें वे पहुंच गई होंगी सही जगह सही हाथों में। इधर एक कोने पड़ी वह कारीगरी जाने वाली थी रद्दी की ढेरी की ओर। तभी उधर से गुजरते किसी प्रवासी की नजरें पड़ीं। अटक गईं निगाहें लावारिस पड़ी उस कारीगरी पर। क्या मैं इन्हें ले जा सकता साथ अपने? पूछा उसने।
लगा दूर से हाथ जोड़े हुए कोई लड़की कह रही ‘हां हां हां…’ ! उसके साथ खड़ा एक बच्चा… और पीछे एक बूढ़ा जिसकी जीभ दांतों से दबी थोड़ी बाहर निकली हुई…
*रेणु की पुण्यस्मृति को नमन करते हुए
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