शंभुनाथ

आज हर व्यक्ति हिंसा के निशाने पर है और उसका औजार भी!

दुनिया में शिक्षा और व्यापार के विस्तार के कारण शांतिप्रिय लोगों की संख्या किसी भी युग से अब ज्यादा है। इसके बावजूद, हर देश में अपराध और हिंसात्मक घटनाओं में न केवल बेतहाशा वृद्धि हुई है बल्कि इन दिनों हिंसा का स्वरूप बिलकुल बदल गया है। यह जितना प्रत्यक्ष है, उससे अधिक अप्रत्यक्ष है। विचित्र यह है कि हिंसा पहले की तरह अब कुछ बलशाली व्यक्तियों का काम नहीं है, सामान्य लोग भी हिंसक हो रहे हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच दूरी बढ़ रही है, ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना टूटा है।

क्या भारत एक महाभारत से गुजर रहा है? गृहयुद्ध के उस महाकाव्य-काल में लोग ‘जीना और जीने देना’ भूल गए थे। मुझे महाभारत के कुछ अंतिम दृश्य याद आ रहे हैं। युद्ध के बाद दोनों पक्ष के परिजन शवों के पास बिलख रहे थे। घायल कराह रहे थे। धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती तीनों एक साथ जंगल गए और वहां लगी आग में प्रवेश कर गए। अश्वत्थामा विक्षिप्त होकर इधर से उधर घूम रहा था। उत्तरा शोक में डूबी थी। युधिष्ठिर के युद्धोतर विजय-यज्ञ में पुण्य के कण न पाकर नेवला लौट गया था। द्वारकावासी यदुवंशी मूसल युद्ध में एक-दूसरे को मार रहे थे। कृष्ण एक बहेलिये के बाण से मारे गए। कुछ वर्ष राज करने के बाद स्वर्गारोहण की राह में युधिष्ठिर को छोड़कर,‘गीता’ के ज्ञानी अर्जुन सहित बाकी सभी पांडव और द्रौपदी बर्फ में गल गए। इनमें कोई स्वर्ग न जा सका। महाभारत की हिंसा के ये कुछ निष्कर्ष हैं!

‘अहिंसा परमो धर्म:’, यह महाभारत की पंक्ति है। लगता है, महाभारत महाकाव्य का उद्देश्य बाकी सारी चीजें हटाते हुए अंतत: यही संदेश देना था- अहिंसा ही मानव धर्म है! यह एक सार्वभौम सत्य के साथ हिंदू सत्य भी है।

धार्मिक परंपराओं में जीवन की महत्ता का गान

गांधी ने एक जगह लिखा है, ‘मेरे हिंदू होने के दावे से कुछ लोग इसलिए इनकार करते हैं कि अहिंसा में मेरा अगाध विश्वास है।’ यह सही है कि भारत का अतीत स्वर्ण से मढ़ा हुआ ही नहीं, रक्त से नहाया हुआ भी है। फिर भी एक प्राचीन क्लासिकल ग्रंथ ‘अथर्ववेद’ कहता है, ‘संपूर्ण मानवता शांति और सौहार्द की भाषा में बोले, सभी जीव बचे रहें!’(बारहवां अध्याय)। ‘अथर्ववेद’ का एक और कथन है, ‘पृथ्वी माता, तुम्हीं संपूर्ण विश्व हो और हम तुम्हारी संतान हैं। हमें भिन्नताओं से ऊपर उठकर प्रेम और शांति के साथ जीने का बल प्रदान करो।’ (वही)। एक समय ऐसी ही प्रार्थनाएं थीं, जबकि आज भिन्नता ही सत्ता का स्रोत है। अतीत से आप क्या हासिल करते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि आप उसके पास गिद्ध बनकर जाते हैं या हंस बनकर। नि:संदेह दुनिया की उठाई गई दीवारों में साहित्य हर युग में खिड़की की तरह रहा है।

वाल्मीकि ने क्रौंच वध के विरोध के साथ रामायण की शुरुआत की थी। यह हिंसा का विरोध था। उपनिषदों का सार अद्वैत ही नहीं अहिंसा भी है। यदि हिंदू परंपराओं में युद्ध, अस्त्र-शस्त्र, भेदभाव और हिंसा की बातें हैं तो यहीं तक सीमित न रहकर देखा जाना चाहिए कि हमारे प्राचीन क्लासिकल साहित्य का मुख्य संदेश क्या है। बौद्ध और जैन दर्शनों में ही नहीं, हिंदू धार्मिक परंपराओं में भी जीवन का महत्व बताया गया है। उनमें अहिंसा और सौहार्द की बातें हैं, भले पौराणिक देवी-देवता बढ़-चढ़कर हथियारबंद हों।

इतना ही नहीं, प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रकृति और पर्यावरण-संरक्षण के उदाहरण हैं। चरक प्रदूषण पर चिंतित होते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में है, ‘उनके लिए दंड की व्यवस्था होनी चाहिए जो रास्तों पर गंदगी फेेेंकते हैं। (2.145)। कौटिल्य ने चालाक व्यापारियों से क्रेताओं की सुरक्षा के नियम बनाए। ब्राह्मण होते हुए भी निम्न वर्ण के लोगों को अलग मुहल्ले में बसाने की जगह नगर में सबके साथ बसावट की व्यवस्था दी। आध्यात्मिक ढांचे में ही सही, भारत ने प्रकृति में सौंदर्य देखा, उसके संरक्षण की चिंता की और पुराने सामाजिक नियमों को समय-समय पर सुधारा। कहने की जरूरत है, इस देश के धर्मसत्तात्मक और राजसत्तात्मक अतीत से उसका सांस्कृतिक अतीत भिन्न है। इसमें मानवता की पुकारें हैं।

कृष्ण भक्त कवियों के सामने दो विकल्प थे- महाभारत के युद्धरथ पर बैठे सुदर्शनचक्र वाले कृष्ण तथा लोक-पुराण की कथाओं के पीतांबर पहने, मोरपंखधारी, बांसुरी वाले कृष्ण में से किसे चुनें। एक भी भक्त कवि ने महाभारत के कृष्ण को नहीं चुना। सभी ने उस कृष्ण का भजन किया, जिनके साथ अर्जुन नहीं राधा थी। उल्लेखनीय है कि मंदिरों में रुक्मिणी नहीं, राधा-कृष्ण हैं, क्योंकि राधा संपूर्ण सृष्टि से प्रेम का ही महाभाव है।

मराठी कवि ज्ञानदेव ने ‘ज्ञानेश्वरी’ में कहा है, ‘सत्य हमेशा अच्छा है, क्योंकि जो घृणा पर टिका है वह सत्य नहीं है।’ आदर्श के ऐसे ऊंचे साहित्यिक विचारों के बावजूद आम लोग हजारों साल से घृणा, बर्बरता और आतंक के बीच जीते रहे हैं, पर अब तो विचार भी असुरक्षित हैं!

हर हिंसा विचारशक्ति के अंत की घोषणा है

21वीं सदी में प्रत्यक्ष उपनिवेश नहीं हैं। सभी देश स्वतंत्र हैं जहां विभिन्न धर्मों, नस्लों और जातियों की मिश्रित आबादी वाले आधुनिक नगर हैं। नगरों में अनोखी रोशनी वाले ऊँचे भवन हैं, पर उनकी नींव में सांस्कृतिक अंधेरा है। लोगों के मन में बासी घाव हैं, सीवन हैं। आर्थिक उदारीकरण आया तो सारी मानवीय आशाओं को तोड़ते हुए सामाजिक अनुदारता और हिंसा का एक नया युग भी आ गया। आज बाजार में बहुत से रंग हैं, चहल-पहल है, पर समाज विभाजन और हिंसक टकराव से भरा है।

एक प्रसिद्ध पश्चिमी पत्रकार टॉम बर्गिस की हाल में एक पुस्तक आई है, ‘कुक्कूलैंड : ह्वेयर द रिच ओन द ट्रुथ’। इसमें कहा गया है, ‘हम जिस चीज के साक्षी हैं, वह है यथार्थ का निजीकरण।’ इन दिनों जिसे सच या झूठ कहा जा रहा है उसका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है। उसका यथार्थ से कोई संबंध नहीं है, वह अमीरों द्वारा निर्मित सच है। यह भी कहा जाना चाहिए कि बाजार में ‘यथार्थ का निजीकरण’ हो रहा हो तो समाज में ‘यथार्थ के समुदायीकरण’ पर जोर है। दोनों जगहों की सामान्य घटना है ‘यथार्थ का विकृतिकरण’, जो मनुष्य की विचारशक्ति को बड़े स्तर पर प्रभावित कर रहा है।

जाहिर है, ‘निर्मित यथार्थ’ पर आधारित हिंसा भी ‘निर्मित हिंसा’ होगी। इन दिनों हर देश में हिंसात्मक संघर्ष बढ़ रहे हैं। रूस-यूक्रेन, इजराइल-फिलीस्तीन के बीच युद्ध चल रहा है। फिर भी दुनिया में सरहद पर लड़े जाने वाले युद्ध पहले से कम हुए हैं। हिंसक संघर्ष बढ़े हैं देश के भीतर बनाई जा रही सरहदों पर। इन संघर्षों का आधार धर्म, नस्ल, जाति, अंध-जातीयता और पुराजातीयता है। देश के भीतर की सरहदों पर बढ़े संघर्षों ने संपूर्ण मानव जीवन को सामाजिक अशांति से भर दिया है। निर्मित ‘अदर’ (अन्य माने जाने वाले लोग) नृशंसतापूर्वक मारे जा रहे हैं, उन्हें सत्ता केंद्रों द्वारा डराकर रखा जा रहा है। स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा में वृद्धि हुई है। इसका एक नतीजा है, लड़कियों की स्वतंत्रता में पहले से कमी आ गई है, डर बढ़ा है।

कई देशों में देखा जा सकता है कि जनता का प्रतिवाद इधर हिंसक और भीड़-न्याय वाला होता जा रहा है, श्रीलंका और बांग्लादेश के उदाहरण हैं। पश्चिमी देश भी अशांत हैं, यहां बहुत कुछ अभूतपूर्व घट रहा है। वैश्वीकरण के युग में एक बड़ी आबादी विषमता, विस्थापन और  वंचना की जितनी ज्यादा शिकार हो रही है, नई किस्म के हिंसक संघर्ष और आक्रामक प्रोपगंडा उतने अधिक बढ़ रहे हैं।

आज हिंसा के दो प्रधान स्रोत हैं- आतंकवाद और नव-संरक्षणवाद। आतंकवाद एक तरह का हिंसात्मक संरक्षणवाद है जो फिलहाल इस्लामिक आतंक के अर्थ में लिया जाता है। नि:संदेह जितना खतरनाक आतंकवाद है उससे कम खतरनाक नव-संरक्षणवाद नहीं है जो इस समय अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस आदि पश्चिमी देशों में फैल रहा है और जिसका एक रूपभेद भारत में है। नव-संरक्षणवाद आखिर क्यों शक्तिशाली होकर उदारवाद पर भारी पड़ गया, इसपर चर्चा होनी चाहिए, आत्मनिरीक्षण होना चाहिए।

देखा जा सकता है कि देश में जिन वजहों से हिंसक संघर्ष बढ़े हैं, उनमें मुख्य है- किसी भी आदर्श मूल्य की बलि देकर अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत बनाने की कोशिश। समाज के मिथ्या अंतर्विरोधों को राजनीतिक सत्ता का स्रोत बनाना और विद्वेष-हिंसा फैलाना आसान है, जबकि सभ्यता का सत्य है विरुद्धों में सामंजस्य। ऐसी हिंसा का लक्ष्य लोकतंत्र को टालना, अपनी स्वेच्छाचारिता कायम रखना और किसी न किसी समुदाय का बहिष्कार करना है। दरअसल समाज में हिंसा को इस तरह लगातार जिंदा रखा जा रहा है कि प्रतिशोध से भरे आम लोगों में शांति की इच्छा ही खत्म हो जाती है।

शांतिप्रिय लोगों में शांति की इच्छा खत्म हो जाए, इससे बढ़कर ट्रैजडी नहीं हो सकती। आज विश्व के देशों में जो नई हिंसा है, उसकी मुख्य खूबी है, यह व्यक्तिगत की जगह सामूहिक है। दूसरी खूबी है, इस हिंसा में शांतिप्रिय लोग भी बड़े पैमाने पर शामिल हैं। उनमें उच्च-आय वर्ग के शिक्षित व्यक्ति भी हैं। आज की हिंसा की तीसरी खूबी है, लोग संरक्षणवाद के समर्थक होते जा रहे हैं। वे अतीत की अच्छी चीजों को त्यागते जा रहे हैं और बुरी चीजों को अपना रहे हैं। वे ‘अदर’ या ‘निर्मित शत्रु’ के मारे जाने पर खुश होते हैं!

हर हिंसा विचारशक्ति के अंत की घोषणा है। व्यक्ति अपना विवेक तथा अतीत के समस्त आदर्श खो देता है। उसे अतीत के सिर्फ वे नायक महत्वपूर्ण लगते हैं जो प्रतिशोध लेते हुए दिखते हैं। नए युग में संवेदनशीलता का संकट बढ़ा है। एक तरह से उस युग को अलविदा कहा जा रहा है जिसमें लोग सोचते थे, तर्क करते थे और दूसरों के दुख को अपना दुख समझते थे। हरेक के सामने आज एक न एक कृत्रिम शत्रु खड़ा है। लोग सोचते हैं, यही समय है ‘अन्य’ को उजाड़ने का, भले देश एक निर्मित मौन में चालाक बाजार द्वारा निगला जा रहा हो।

क्या अब कुछ भी हिंसा के बाहर नहीं है

92 वर्षीय अमेरिकी चिंतक नोम चॉम्स्की बदले विश्व में परमाणु युद्ध और पर्यावरण विनाश के अलावा एक अन्य संकट की ओर संकेत करते हैं- ‘जागरण को मिटा देने के प्रयास’! वर्तमान विश्व में लोगों की सैकड़ों साल के संघर्ष से अर्जित बौद्धिक उपलब्धियों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को मिटाया जा रहा है। इस दौर में जो कई आदर्श तेजी से अलोकप्रिय हो रहे हैं, उनमें अहिंसा और सह-अस्तित्व भी है। किसी प्रत्यक्ष सरकारी रोक के बिना भी असुविधाजनक तथ्यों को अंधेरे में रखा जाता है, ताकि जो ‘पूरी तरह से तर्कहीन’ है उसकी प्रतिष्ठा हो सके। हर तरफ विकसित संसाधनों से ‘अज्ञानता-निर्माण’ का एक बड़ा घेरा पड़ा है।

इसपर गंभीरता से सोचने की जरूरत है  कि जिस दुनिया में प्रेम, न्याय और शांति के आंदोलन सदियों तक चले, उसमें अहिंसा की जगह हिंसा राजनीतिक सार के रूप में फिर कैसे प्रतिष्ठित हो रही है। क्या सभ्यता पीछे लौट रही है, जिसे  ‘मध्यकालीनता’ कहते थे, उस तरफ?

इन दिनों आंख मूंदकर ‘सबकी जरूरतों’ की जगह सामुदायिक हित प्रधान बना दिए गए हैं, संकीर्णता बनाम संकीर्णता का खेल है। कांटा को कांटा से निकालो! लोग अतीत के तालाब में नहा रहे हैं और अपने नदियों-समुद्रों को भूलते जा रहे हैं। यह एक विडंबना है कि अब साझा मुद्दों पर लोगों को इकट्ठा करना कठिन है, ‘मनुष्य’ तथा ‘नागरिक’ की धारणाओं का क्षय हुआ है।

समाज यहां आ खड़ा हुआ है कि केवल संकीर्ण नारों पर ही जनता को कुछ जोश आता है। लोग इन दिनों हमेशा सामुदायिक कोण से बहस करते हैं, फिर उत्तेजित होकर हमले करते हैं, ‘लिंचिंग’ करते हैं। यदि किसी स्त्री का बलात्कार हुआ हो, तो पहले देखते हैं कि वह किस धर्म या जाति की है। कोई अपराधी यदि अपनी जाति या पार्टी का आदमी है तो उसे बचाते हैं। इन दिनों अपराधी विजेता की तरह देखे जाते हैं। अगर कोई अपराधी राजनीतिक नेता हो गया तो वह हजारों लोगों के दिल पर राज करता है। कहना न होगा कि हमारे देश में अपराध को बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक वैधता मिली है।

इन दिनों दुनिया को तर्कपूर्ण विचारों से नहीं विद्वेष, घृणा और हिंसात्मक भावनाओं से चलाया जा रहा है। वे जो साझा मुद्दों या बड़े आदर्श लेकर चल रहे हैं, बदली दुनिया में बहुत अकेले हैं। क्या अब हिंसा के बाहर कुछ नहीं बचा है?

सम्राट अशोक जब बौद्ध हुआ वह अहिंसा का प्रचार करते-करते, कहा जाता है, अंतत: इतना अकेला हो गया था कि उसके पास खाने के लिए एक पूरा आम भी नहीं था।

हिंसा का अर्थ

हिंसा प्रकृति है, जबकि अहिंसा सभ्यता है। नदियों में बाढ़ आती है, पहाड़ों पर बादल फटते हैं या बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। सामान्यत: हर जीव की प्रकृति हिंसक है। एक ऐसी सभ्यता का निर्माण जिसका केंद्रीय सार अहिंसा हो, प्राचीन युगों में ही कठिन नहीं थी, भौतिक विकास के वर्तमान शिखर पर भी कठिन है। हमारे देश में एक महान संविधान के बावजूद अहिंसा अभी भी एक कठिन यात्रा है। कई बार अहिंसा का अर्थ बदलकर हो जाता है भूमिगत हिंसा, छिपे तनाव का बुद्धिमत्तापूर्ण निर्माण। ‘सांप’ मरे और लाठी न टूटे!

हिंसा का अर्थ सामान्यत: भौतिक ताकत द्वारा ऐसी हिंसा है जो किसी व्यक्ति, देश या नगर को भौतिक रूप से नुकसान पहुँचाती है। यह बहस का विषय है कि सत्ता का हिंसा से एक स्वाभाविक संबंध है या नहीं। अर्थात क्या किसी ऐसी सत्ता की कल्पना की जा सकती है जो अहिंसक हो?

हम ऐसे देश या समाज की कल्पना नहीं कर सकते, जहां सत्ताओं और प्रभुत्वाकांक्षी ताकतों को बनने से रोका जा सके। इसलिए यदि सत्ताओं का हिंसा से संबंध स्वाभाविक है तो सिर्फ एक ही मामला सामने रहता है कि हिंसा का नया रूप क्या हो। इस दृष्टिकोण से दुनिया या दुनिया के देशों का इतिहास वस्तुत: हिंसा के स्वरूप में परिवर्तन का इतिहास है। अहिंसा केवल मध्यांतर है!

21वीं सदी का आधुनिक भौतिक विकास हिंसा के ऐसे विकसित तरीके लेकर आया है जो अदृश्य हथियार की तरह हैं। टेक्नोलॉजी से उदाहरण लें। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक नई चमक लेकर आया है। कई लोगों का काम एक अकेला (रो)बोट कर देगा। उसकी क्षमताएं दिखेंगी, बुराइयां नहीं दिखेंगी। इसका एक नतीजा यह हो सकता है कि दूसरे विश्वयुद्ध में जितने लोग मारे नहीं गए, (रो)बोट धीरे-धीरे उनसे अधिक लोगों को मार डालेगा। अंतत: एक ऐसा समाज बनेगा, जिसमें बेरोजगारी या गरीबों की खराब चिकित्सा से धीरे-धीरे मरने वाले को स्वाभाविक मृत्यु का शिकार मान लिया जाएगा।

दुनिया ने पहले भी हिंसा के बड़े दृश्य देखे हैं- युद्ध, राजनीतिक दमन, ग्रंथालयों में आग, जनसंहार, आर्थिक शोषण, विलगाव आदि रूपों में। पहले की हिंसा दृश्य थी, और ज्यादा जगहें हिंसा से अछूती थीं। इन दिनों सामाजिक तनाव, हिंसात्मक उत्पीड़न और संघर्ष के रूपों में इतना विस्तार है कि हिंसा की कोई परिभाषा उसकी विविधता को पकड़ नहीं सकती।

चांद, जो इतनी दूर है, हिंसा के रेंज में है। माथे का तिलक और सिर की टोपी भी हिंसा के चिह्न में बदल दी गई है। चमड़ी का रंग हिंसा है। शादी पर सैकड़ों करोड़ का खर्च हिंसा है। भ्रष्टाचार एक बड़ी हिंसा है। आलस्य हिंसा है। झूठ हिंसा है। भेदभाव हिंसा है। कृत्रिम आरोप-प्रत्यारोप हिंसा है। आज से सौ साल पहले यांत्रिकता हिंसा थी, अब कृत्रिमता हिंसा है। बड़े अभिनेताओं द्वारा पान मसाला, ज्वेलरी, ड्रिंक्स आदि का विज्ञापन हिंसा है। न्यूज चैनल पर चीख-चीख कर समाचार वाचन हिंसा है। बाजार में जहां भी कोई ऑफर है, सेल है या कुछ फ्री है वहां हिंसा है। आत्महत्या एक न एक व्यवस्था द्वारा हत्या है। घरेलू उत्पाद की जगह विदेशी कंपनियों की वस्तुओं के प्रति आकर्षण में हिंसा है, जैसे दिवाली में मिट्टी के दीये की जगह चीन की बत्तियाँ! स्त्री के बलात्कार पर पुरुषों के ऐसे सवालों में हिंसा है कि वह खुली पोशाक क्यों पहनती है, रात में अकेली बाहर क्यों निकली! इनमें से हर एक पर विस्तृत चर्चा हो सकती है।

आज का मीडिया आक्रामक बनाता है

पिछले कुछ दशकों में दुनिया इस अर्थ में भी बदली है कि हिंसा के दृश्य हमारे जीवन में सुबह के चाय-बिस्कुट से लेकर रात की नींद तक प्रवेश कर चुके हैं। टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल हिंसा के बड़े वाहक हैं। सोशल मीडिया, वीडियो फिल्में, रील, वीडियो गेम आदि की लोकप्रियता बढ़ी हुई है। ये बच्चों-नौजवानों के जीवन के प्रमुख अंग बन चुके हैं और उनके मन में हिंसा का बीजारोपण करते हैं।

कई परिवारों में अभिभावक अपने बच्चों-किशोरों को सड़क पर ज्यादा निकलने नहीं देते, क्योंकि असुरक्षा है, पर वे घर में भी कहां सुरक्षित हैं। वे हमेशा मोबाइल पर होते हैं! मोबाइल पर हिंसक आक्रामकता के हजारों पोस्ट हैं, जिनका उद्देश्य लोगों में नफरत फैलाना है। बच्चे-किशोर अपनी छोटी उम्र से ही हिंसा सीखते हैं। इधर उनमें आक्रामकता बढ़ी है। वे अपने परिवार के सदस्यों, देश-समाज से कटकर मोबाइल को ही असली दुनिया समझते हैं। यही उनका प्रधान स्कूल होता है, जहां वे बचपन में ही कोमल भावनाओं से विच्छिन्न हो जाते हैं। उनका कला-प्रेम पॉप गाने सुनने तक सीमित है। वे घंटों मोबाइल में डूबे होते हैं। उन्हें कौन मना करे, क्योंकि खुद माता-पिता के भी हाथ में हमेशा मोबाइल रहता है!

बाजार विज्ञानचेतना में रुकावट है

विज्ञान और अहिंसा के बीच संबंध किसी भी युग में मजबूत नहीं हो सका, जबकि आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक शांति के पक्ष में थे। वे कहते थे, ‘शांति का गहरा संबंध समझदारी से है’। विज्ञान का धर्म है लोगों की समझदारी का विकास करना और मनुष्य की सामाजिक शक्ति बनना, ताकि वह अंधविश्वासों से मुक्त हो सके। लेकिन विज्ञान की इस भूमिका को व्यापारियों की दुनिया ने दबा दिया। वे इन दिनों डेटा वैज्ञानिक खड़े कर रहे हैं, ताकि डेटा का विश्लेषण करके बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधिकाधिक मुनाफे के लिए रास्ते निकालें। इसका अर्थ है, ईमानदारी और समझदारी दोनों पर गहरा संकट है।

प्राचीन भारतीय विज्ञान का क्या हुआ? प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक वराहमिहिर (600 ई.) सूर्यग्रहण को राहु-प्रसंग के अंधविश्वास से मुक्त करके उसके वैज्ञानिक कारण बता रहे थे। लेकिन धर्मसत्ता ने इस देश में विज्ञान को विकसित होने नहीं दिया और आगे सदियों तक राहु का ग्रसना सत्य बना रहा। आज बाजार सत्ता विज्ञान-चेतना में रुकावट है, क्योंकि बाजार का लक्ष्य ‘इर्रैशनल’ को नागरिक रुचि में स्थापित कर कृत्रिमताएं बेचना है। उसका मकसद कृत्रिमता को ही कला और सौंदर्य बनाकर उपस्थित करना है। बाजार को मन की सुंदरता से मतलब नहीं है, ‘रैशनलिटी’ से मतलब नहीं है। ग्राहक ‘रैशनल’ हुआ कि मुनाफा बाजार की नींव हिली!

इन दिनों ज्ञान राजनीति की मांगों के अधीन है तो विज्ञान बाजार की मांगों के अधीन। विज्ञान का इस्तेमाल झूठ फैलाने, नई-नई उपभोक्ता वस्तुएं बाजार में लाने तथा मानव श्रमशक्ति में कटौती करने के लिए हो रहा है, संहारक उपकरण बनाने के अलावा। उसका दुनिया में जितना स्वार्थ-भरा इस्तेमाल अभी हो रहा है, मानव इतिहास में कभी नहीं हुआ था। वह लूट और मार का औजार बना दिया गया है। देखा जा सकता है कि नई तकनीक के सभी इलाकों में ठग भर गए हैं।

यह एक बड़ी विडंबना है कि आदमी की उच्च तकनीक-संपन्नता के बावजूद उसका बौद्धिक खोखलापन चरम पर है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल बड़े मानवीय हितों के लिए होना चाहिए, जबकि बाजार ने इन्हें मुनाफा बढ़ाने के औजार में सीमित कर दिया है। इनका उपयोग ‘भ्रांति’ के सृजन के लिए हो रहा है, ‘लोभ’ बढ़ाने के लिए हो रहा है और मनुष्य-मनुष्य के बीच ‘स्पर्धा’ बढ़ाने के लिए हो रहा है। इन सबकी अंतिम परिणति है हिंसात्मक घटनाओं का बढ़ना।

नए विश्व में जीवन दृष्टि बदली हुई है। पैसा पहले ही जीवन का महत्वपूर्ण पहलू हो गया था, वह ‘बहुत कुछ’ से ‘सब कुछ’ हो गया था। इधर एक नई चीज आई है, मनुष्य की प्रतिष्ठा को उसके ज्ञान, मानवीय गुणों और सचाई से न आंककर इससे आंका जा रहा है कि उसका मकान कितना शानदार है, उसकी गाड़ी कितने लाख या करोड़ की है, वह कितने अरबों-करोड़ों में खेलता है या उसके पास उपभोग की कौन-सी कीमती वस्तुएं हैं। कहा गया है, नरक में रहने का बोध हमें जोड़कर रख सकता है, पर स्वर्ग की आरामदायक चीजें एक-दूसरे से दूर करती हैं!

उपभोक्ता वस्तुओं का ज्यादा लोभ मनुष्य को गिराता ही नहीं, हिंसक स्पर्धा की ओर भी ठेलता है। ऐसी स्पर्धा परस्पर विच्छिन्नता बढ़ाती है। हम भूल जाते हैं कि अधिकाधिक लोभ अधिकाधिक असुरक्षित करता है। ‘अंधेर नगरी’ नाटक में क्या हुआ?

यह सभ्यताओं के टकरावकी जगह सभ्यताओं पर हमलेका दौर है

दुनिया में हिंसा और हिंसात्मक विचारों का बढ़ना असीम भौतिक प्रगति के बावजूद असभ्य होते जाना है। इस दौर को एक खास अमेरिकी दृष्टि से सभ्यताओं के टकराव का दौर (सैमुअल हंटिंगटन) कहा गया है जबकि यह विश्व बाजार, राजनीति और इन दोनों द्वारा संचालित मीडिया द्वारा सभ्यताओं पर तरह-तरह से हमले का दौर है।

इसमें संदेह नहीं कि इस युग में ‘पहचान का अधिकार’ एक प्रमुख विषय है, पर इसके साथ ‘जीवन का अधिकार’ कम महत्वपूर्ण नहीं है। आज जीवन आर्थिक, पर्यावरणीय तथा सांस्कृतिक सभी कोणों से किसी भी युग से ज्यादा असुरक्षित है। कहने की जरूरत है कि मनुष्य का जीवन ही असुरक्षित है, ऐसा नहीं है। हमारी भाषा, रचनात्मकता, सामाजिक सौहार्द, राष्ट्रीय विविधता, पढ़ने की संस्कृति और ज्ञान की परंपराएँ भी असुरक्षित हैं। हमारे रोजगार असुरक्षित हैं। स्त्रियां और दलित-कमजोर वर्ग असुरक्षित हैं। लोग बाहर के हमलों से ज्यादा देश के भीतर की घृणा से असुरक्षित हैं। हमारा प्रेम, हमारी स्वतंत्रता, हमारे विश्वास असुरक्षित हैं। ऐसा केवल तब होता है, जब लोग बड़े मकान या बड़े फ्लैट में रहते हुए और लंबी गाड़ियों में घूमते हुए भी सभ्यताहीन होते जा रहे हों और हिंसात्मक प्रवृत्तियों के गुलाम हों।

क्या हम हिंसा की अंधेरी गलियों से लौट सकते हैं? एक बार फिर महाभारत महाकाव्य में आते हैं। शांति पर्व में है, ‘यह मनुष्य है जो कलह और प्रतिहिंसा से बाहर निकल सकता है, क्योंकि उसमें ज्ञान अर्जित करने की क्षमता है।’ (हंसगीता, 199.40-45)। आज भी हर तरफ प्रतिशोध की महाभारत-जैसी ही आग है, ‘मारो- खून पी लो- तबाह कर दो’ की आवाज है। यह अतीत के खंडहरों से उठकर आ रही हो या सत्ता के वर्तमान गलियारों से। वर्तमान युग की ऐसी हिंसा मानव देहों पर ही नहीं, सभ्यताओं पर भी हमला है। यह हमारे अब तक के जागरण को छीनना है।

सभ्यता का आशय है जीने का ज्ञान, निश्चय ही सूचनाओं का मालगोदाम बनना-बनाना नहीं।  हमें ज्ञान पर हमलों को रोकना होगा!