स्त्री विमर्श आधी आबादी के संघर्ष और उत्थान का विमर्श है।फ्रांसीसी राज्य क्रांति (1789) के तीन प्रमुख बिंदु थे- समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व।ये किसी भी देश में मानवता के हक में जरूरी हैं।पश्चिमी देश और भारत के इसी समानता के सिद्धांत के तहत स्त्री के हक और स्त्री प्रश्न के मुद्दों पर चर्चा शुरू हुई।भारत में नवजागरण के उदय के साथ ही स्त्री के सवाल पर गंभीरता से विचार होने लगा था।आगे चलकर स्त्री-मुक्ति आंदोलन के सामने दोहरी चुनौतियां थीं।स्त्रियों को दो स्तरों पर लड़ाई करनी पड़ी थी।पहला, अपने अधिकारों और समानता के लिए तो दूसरा औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध।आगे चलकर स्त्री-पुरुष के समान अधिकार की मांग और पुरुषसत्तात्मक समाज द्वारा स्त्रियों पर थोपी गई रूढ़ियों और अंधविश्वासों का विरोध भी स्त्री-आंदोलन के विषय बने।समय के साथ कई नई समस्याएं जुड़ती गईं।स्त्रियों की राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक हिस्सेदारी की चर्चा भी होने लगी।कई नए कानून बनाकर स्त्रियों के अधिकारों को सुरक्षित करने की घोषणा भी की गई।लेकिन बहुत कुछ कागज़ पर ही दिखाई देता है।अभी भी स्त्रियों का यौन उत्पीड़न थमा नहीं है।पिछले लगभग चार दशकों से स्त्री-विमर्श ने दुनिया भर में अपना खास प्रभाव दिखाया है।
आज महिलाओं की मौजूदगी विधानसभा और संसद तक है, हालांकि महिला आरक्षण विधेयक 15 सालों से अटका हुआ है।इसका पुरुष प्रतिनिधि विरोध करते हैं।आज भी दहेज की समस्या है, परिवार द्वारा उच्च शिक्षा पर रोक लगा दी जाती है और सामाजिक हिस्सेदारी, आर्थिक आत्मनिर्भरता जैसी समस्याएं मौजूद हैं।आज स्त्रियों के बंधनों का नए सिरे से महिमामंडन हो रहा है।
पिछले कुछ दशकों के अभूतपूर्व परिवर्तन से स्त्री विमर्श अछूता नहीं रहा है और नई समस्याएं भी पैदा हुई हैं।एक तरफ, सुदूर गांव में स्त्रियों का एक ऐसा तबक़ा है, जो बदलावों और समस्याओं से अनभिज्ञ है तो दूसरी तरफ, बाजार और मीडिया स्त्रियों की छवि का निर्माता हो गया है।आज भी समाज में एक लकीर खिंची हुई है कि स्त्रियां कोमल हैं, वे सभी कामों को नहीं कर सकती हैं और पुरुष सभी काम कर सकते हैं।
यह परिचर्चा स्त्री विमर्श के नए मुद्दे को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, क्योंकि नई स्थितियों में पश्चिमी सोच तथा संरक्षणवादी सोच की विडंबनाओं को सामने लाना जरूरी है।इस परिचर्चा में महत्वपूर्ण लेखिकाओं ने हिस्सा लिया है।
सवाल
1 स्त्री विमर्श ने पिछले चार-पाँच दशकों में सामाजिक परिवर्तन में जो भूमिका निभाई है, उससे आप कितनी संतुष्ट हैं?
2 पितृसत्ता की मजबूती में धार्मिक कट्टरता की क्या भूमिका है? क्या वर्तमान समय में पितृसत्ता फिर मजबूत हो रही है?
3 पश्चिमी स्त्रीवाद और भारतीय स्त्री चेतना के बीच आप क्या समानता और क्या फर्क महसूस करती हैं?
4 भारत के स्त्री मुक्ति आंदोलन में जाति का मुद्दा क्यों नहीं उभर पाया, जबकि दहेज प्रथा को मजबूत बनाने में जाति की भूमिका महत्वपूर्ण है?
5 आपको लोकतंत्र तथा सामाजिक न्याय के मुद्दे पर क्या कहना है?
6 क्या स्त्री लेखन होमोजीनियस हो गया है? यह पहले से किस तरह भिन्न है?
स्त्रियों को जातिप्रथा के उन्मूलन के लिए आगे आना चाहिए
नमिता सिंह वरिष्ठ कथाकार और लेखिका।कृतियां :‘खुले आकाश के नीचे’, ‘राजा का चौक’, ‘नीलगाय की आँखें’, ‘जंगल गाथा’ , ‘मिशन जंगल और गिनीपिग’, ‘उत्सव के रंग’, ‘कर्फ्यू तथा अन्य कहानियां’ (सभी कहानी संग्रह), ‘अपनी सलीबें’, ‘लेडीज़ क्लब’ (उपन्यास)। ‘कृति और कृतिकार’ (समीक्षा और आलोचना), ‘स्त्री प्रश्न’ (स्त्री विमर्श)। |
(1) आंदोलनकारी स्त्री विमर्श हमारे यहां स्पष्ट रूप से 7वें दशक के बाद दिखाई देती है।नवजागरण काल में समाज सुधार आंदोलनों का मुख्य फ़ोकस घर की चारदीवारी के भीतर बंद स्त्री को शिक्षा का अधिकार देने के साथ-साथ उसे अमानवीय सामाजिक कुप्रथाओं से मुक्ति दिलाने के प्रयासों पर था।20वीं सदी के पूर्वार्ध से देश की आजादी के लिए जन-आंदोलन तीव्र होने लगे।महात्मा गांधी का चमत्कारिक नेतृत्व था और आधी आबादी यानी स्त्रियों की सहभागिता के लिए उनका विशेष आह्वान था।हर वर्ग और जाति की महिलाएं सामाजिक बंधनों को तोड़कर खुद-ब-खुद मुख्य धारा में शामिल हो रही थीं।कुछ महिलाओं ने नेतृत्वकारी भूमिका भी निभाई थीं।
आजादी मिलने के बाद स्त्रियों का राजनीतिक आंदोलनकारी रूप मद्धिम हो गया।इस बीच स्त्रियों की शिक्षा और स्वावलंबन के लिए शासन द्वारा अनेक कार्यक्रम चलाए गए।उनके परंपरागत सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के प्रयास शुरू हुए, लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक समानता के लिए आंदोलन ७वें दशक के बाद ही शुरू हुए।शासन की रीति-नीति में भी बदलाव दिखाई दिए।इनका असर स्त्री समूह में ही नहीं, पूरे सामाजिक स्तर पर दिखाई पड़ा।इससे मानसिक बदलाव की व्यापक स्थितियाँ बनीं।
महिला संगठनों ने स्त्रियों के मुद्दे उठाए।रूप कुँवर सती कांड हो, मथुरा बलात्कार कांड या राजस्थान की साथिन भंवरी देवी बलात्कार कांड या 2012 का निर्भया कांड हो, स्त्रियों का संगठित आंदोलनकारी रूप दिखाई देता है।दलित स्त्रियों के प्रश्न भी साहित्य और समाज में इसी दौरान उठाए गए।इन सबके बावजूद, यह कहना ज़रूरी है कि मध्य और उच्च वर्ग के अलावा दलित, ग्रामीण, पिछड़े तथा आदिवासी समाज की स्त्रियों के जीवन में अपेक्षित बदलाव के लिए अभी बहुत कुछ करना ज़रूरी है।कभी-कभी लगता है कि पिछले कुछ वर्षों में स्त्री जीवन के सशक्तिकरण और बदलाव का प्रवाह सीमित हो रहा है।
(2) स्त्री समानता और अधिकार की बात लोकतांत्रिक समाज में ही संभव है।हम देख रहे हैं पिछले कुछ सालों में मॉरल पुलिसिंग (नैतिक पहरेदारी) की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं।स्त्री-पुरुष संबंध हों, परस्पर मित्रता के संबंध हों, जाति और संप्रदाय के आधार पर समाज के कथित स्वयंभू ठेकेदारों द्वारा उन पर हमले हुए हैं।अपनी जाति-विरादरी से बाहर के विवाह संबंधों में परंपरागत परिवारों में विरोध अकसर होता है।खाप पंचायतों ने तो फ़तवे भी दिए हैं।परिवार के नाम पर ऐसे संबंधों में हत्याएं भी होती रही हैं, लेकिन नागरिक समाजों द्वारा, सामाजिक संगठनों द्वारा इनका विरोध भी हुआ है और कानून-अदालतों ने इन घटनाओं को संज्ञान में लिया है।आज पढ़े-लिखे, उदारवादी प्रगतिशील सोच के परिवारों में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह परस्पर सहमति से भी हो रहे हैं, लेकिन ऐसे अनेक प्रकरण हैं जहां तथाकथित राष्ट्रवादी-धार्मिक संगठनों ने घरों में घुसकर बवाल और हस्तक्षेप किया।
दरअसल यह भी पितृसत्तात्मकता का ही रूप है।वर्ण, जाति और लिंग-आधारित सामाजिक नियम धर्म सम्मत बताए गए हैं।पुरुष-वर्चस्व को स्थापित करते हुए स्त्रियों, दासों और शूद्रों के लिए वर्णवादी व्यवस्था में कठोर नियम बनाए गए।उत्तर वैदिक काल से लेकर पाँचवीं-छठी शताब्दी तक भारतीय समाज की सामंती संरचना मजबूत हुई, जिसमें शूद्रों, दासों के साथ स्त्रियों का भी दासत्व था।पितृसत्तात्मकता के फलस्वरूप ही बालविवाह, सती प्रथा और वैधव्य के बीभत्स रूप समाज में थे।उन्नीसवीं सदी के आरंभ में शुरू हुए समाज-सुधार आंदोलन और बीसवीं सदी की आज़ादी की लड़ाई में स्त्री-समूह की सहभागिता थी, फिर स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त कर स्त्रियाँ आगे बढ़ी हैं।उन्होंने आत्मविश्वास अर्जित किया है।लेकिन बढ़ता हुआ धार्मिक कट्टरवाद, जो वर्णवादी व्यवस्था का पोषक है, दो सौ साल की इस प्रगति यात्रा को पीछे न धकेल दे, यह आशंका होती है।
फिर भी सामाजिक समानता और सम्मानपूर्ण जीवन के अधिकार के प्रति स्त्री समाज पहले से अधिक चैतन्य हुआ है।वह परंपरागत ढांचे से अलग, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है।लेकिन आज एक दूसरी धारा भी निर्मित होने लगी है, जहां स्त्री की छवि को मातृशक्ति के आदर्श के रूप में स्थापित किया जाता है।प्राचीन सामंती समाज में भी स्त्री की भूमिका को केवल उसकी पुनरुत्पादकता तक सीमित कर दिया गया था।इस तरह वर्तमान सांस्कृतिक पुनरूत्थानवाद पितृसत्तात्मकता को ही पुन: स्थापित करने की चेष्टा है।
(3)पश्चिम में स्त्री चेतना की शुरुआत औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप निर्मित वातावरण में हुई थी।ब्रिटेन में खराब आर्थिक स्थितियों से जूझ रहे किसानों ने शहरों की ओर पलायन किया, नया श्रमिक समाज बनने लगा।शहर में आर्थिक स्थितियों से निपटने के लिए महिलाएं भी उद्योगों में मज़दूरी करने लगीं।नए उभर रहे मध्यवर्ग की महिलाओं के साथ उपभोक्ता समाज बनने लगा तो घरों में सहायिका के रूप में भी काफी श्रमिक स्त्रियाँ थीं।उद्योगों में श्रमिक स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब थी, जिसका ज़िक्र मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पूँजी’ के प्रथम भाग में किया है।
दरअसल स्त्रियों का पहला आंदोलनकारी रूप उन्नीसवीं सदी में आया, जब न्यूयार्क की श्रमिक महिलाओं ने काम के घंटे कम करने तथा बेहतर कार्य-स्थितियों के लिए आंदोलन किए।लंबी लड़ाई के बाद बीसवीं सदी के पहले दशक में उनकी मांगें पूरी हुईं।इसका प्रभाव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्त्री-समाज पर पड़ा।योरोप में आरंभिक चरण में स्त्रियों ने पुरुषों के समान वोट देने के अधिकार के लिए आंदोलन किए जो कहीं उग्र तो कहीं संतुलित थे।पश्चिम में बड़ा मध्यवर्ग बन चुका था और महिलाएं शिक्षा के साथ समान अधिकारों के लिए जागरूक थीं।पितृसत्तात्मकता के खिलाफ सामाजिक न्याय और बराबरी के लिए विभिन्न स्तरों पर उन्नीसवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक आंदोलन होते ही रहे।80-90 के दशक में अश्वेत महिलाओं के आंदोलनों ने इन्हें अधिक विस्तार दिया, क्योंकि उनका मानना था कि मौजूदा स्त्रीवादी आंदोलन मध्यवर्गीय श्वेत महिलाओं के मुद्दों तक सीमित है।उन्होंने ‘फेमिनिज़्म’ के स्थान पर ‘वोमनिज़्म’ शब्द का प्रयोग किया, जो सभी वर्ग की महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता था।
भारत में स्थिति भिन्न थी।19वीं सदी के नवजागरण तथा 20वीं सदी के आंदोलनों में मुख्य भूमिका पुरुष समाज सुधारकों की थी।आंदोलनकारी के रूप में स्त्रियाँ स्वतंत्रता आंदोलन में दिखाई दीं।यहां बहुआयामी स्तर पर, चाहे लेखन हो, पत्रकारिता हो या सीधे राजनीति हो, इनमें उनकी भागीदारी थी, लेकिन पृथक स्त्री-आंदोलन का रूप वहां भी नहीं था।
सातवें दशक के बाद ही शैक्षिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर महिला संगठनों ने विभिन्न मुद्दों पर आंदोलन किए।दहेज हत्या, यौन-शोषण, बलात्कार के मुद्दे हों या जातिगत संगठनों द्वारा अपने समाज की स्त्रियों को प्रताड़ित करने के फ़रमान हों, महिला संगठनों के माध्यम से आवाज़ बुलंद होती रही है।इनका असर भी हुआ है और एक व्यापक राजनीतिक माहौल भी निर्मित हुआ है।महिलाओं के पक्ष में नए कानून बने हैं तथा अनेक पुराने कानूनों में बदलाव भी हुए हैं।
साहित्य-लेखन में स्त्री विमर्श केंद्र में आया तो स्त्री-यौनिकता के सवालों पर बहस हुई और स्त्री-लेखन की एक नई धारा बनी।कहा जाने लगा कि स्त्री-अस्मिता और यौनिकता संबंधी बहसें पश्चिमी नारीवाद से प्रभावित हैं।आज की स्थितियों में कहना होगा कि पितृसत्तात्मकता तथा स्त्रियों को कमतर समझने की प्रवृत्ति के खिलाफ पश्चिम की स्त्रियां हों या भारत की, उनमें आंदोलनकारी प्रवृत्ति रही है। ‘मी टू’ जैसा विषय हो या लड़कियों के पहनावे की बात हो, एक संगठित आवाज़ सुनाई देती है।अगर पश्चिम में अश्वेत स्त्रियाँ अपने स्तर पर रंगभेद के खिलाफ़ एकजुट होती हैं तो यहां भी दलित स्त्रियों के प्रति हिंसा और अन्याय भी व्यापक आंदोलन का रूप ले सकते हैं।यह अलग बात है कि हर जगह कुर्सी और सत्ता की राजनीति इन आवाज़ों को धूमिल करने की कोशिश करती है।
(4) हिंदू समाज का आधार वर्ण व्यवस्था है, जाति भारतीय समाज की पहचान है।जाति की अवधारणा एक बंद समूह के रूप में है, जहां खान-पान और विवाह संबंध अपने समूह-समाज के भीतर ही होते हैं।इस सामाजिक व्यवस्था को अनेक स्तरों पर धर्मसम्मत बनाया गया है।पिछले पंद्रह-सोलह सौ सालों में यह वर्ण व्यवस्था आधारित जातिगत कट्टरता उत्तरोत्तर मजबूत होती गई।अब यह चाहे उच्च जातियां हों या निम्न वर्ण कही जाने वाली, वे पूरे समाज के डीएनए का हिस्सा बन चुकी हैं।इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो समाज सुधार आंदोलनों का स्वरूप समझ आता है।यूं भी उस समय स्त्रियों के बंदी-समान जीवन को सुधारना, उन्हें शिक्षा का अधिकार देना बड़ी चिंताएं थीं।छुआछूत के खिलाफ़, अवर्ण समाज के उत्थान और अछूतों के साथ समानता की बातें भी उठीं, लेकिन जातिप्रथा उन्मूलन किसी आंदोलन का विषय नहीं बना।इस पर पहली बार गंभीरता से भीमराव अंबेडकर ने विचार दिया और कहा कि जब तक जातिप्रथा का खात्मा नहीं होगा, तब तक समाज में बराबरी और सम्मानपूर्ण व्यवहार संभव नहीं है।निश्चय ही जातिप्रथा को समाप्त किए बिना न स्त्री-समाज के और न ही दलित वर्ग के वास्तविक सम्मानपूर्ण जीवन की कल्पना की जा सकती है।
आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी जातिप्रथा उन्मूलन कभी एजेंडा में नहीं रहा।स्त्रियों की जगह तो वैसे भी घर-परिवार-बच्चों तक सीमित थी।स्वतंत्र रूप से अपने निर्णय लेने का अधिकार उन्हें कभी नहीं दिया गया।उनका मानसिक पोषण भी जातिभेद के संस्कारों से ही हुआ है।इसलिए आमतौर पर यदि एक समूह की स्त्रियां जातिगत सामाजिक हिंसा और अन्याय का शिकार होती हैं तो दूसरी जाति की महिलाएं खामोश रहती हैं।आज के समय में प्रगतिशील महिला संगठनों ने अवश्य ऐसी घटनाओं पर आंदोलन किए हैं और पीड़ित महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए आवाज़ उठाई है।
जातिप्रथा उन्मूलन के लिए आज महिलाओं के साथ-साथ पूरे समाज को आंदोलन करने की जरूरत है।हांलाकि आज स्थितियां इसके विपरीत हैं।आज राजनीति से प्रेरित जातिगत संगठन मजबूत हो रहे हैं।दरअसल जाति का विषय पूरे परिवार-समाज के लिए सम्मान का विषय बन जाता है।ऐसा सम्मान है जिसके लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती, केवल जन्म लेने से ही इसकी प्राप्ति हो जाती है।यह जन्मगत श्रेष्ठता का भाव परिवार में पितृसत्तात्मकता को भी मजबूत करता है, जिसमें स्त्री के जीवन-संरक्षण के लिए पुरुषों की, विवाह की और पति की छत्र-छाया अनिवार्य है।यही अनिवार्यता दहेज का कारण भी बनती है।जातिगत बंधन टूटेंगे तो स्त्रियों को अपने जीवन के निर्णय, विवाह संबंधी निर्णय लेने का अधिकार मिलेगा और दहेज जैसी कुप्रथा भी खत्म होगी।
(5) लोकतंत्र और सामाजिक न्याय हमारे संविधान के केंद्र में है।संविधान हमारे देश की आत्मा है।यह देश का सौभाग्य है कि आज़ादी के बाद इसकी बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में आई जिनकी दृष्टि एक आधुनिक, वैज्ञानिक चेतना से लैस तथा शिष्ट, आत्मनिर्भर और प्रगतिशील राष्ट्र के निर्माण की थी।इसलिए जहां पाकिस्तान एक धर्म-आधारित राष्ट्र बना और विकास के हर स्तर पर पिछड़ गया, भारत ने लोकतांत्रिक राष्ट्र का निर्माण किया, जहां धर्म, जाति, लिंग आधारित किसी भी प्रकार के भेदभाव से परे प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार है।यह अलग बात है कि परंपरागत जातिवादी सोच आज भी विद्यमान है और स्त्रियां प्रताड़ना और अन्याय का शिकार हैं।
यह भी लोकतंत्र की ताकत है कि इन घटनाओं के प्रकाश में आने पर लोग आवाज उठाते हैं और न्याय के लिए संघर्ष करते हैं।निश्चय ही न्याय-आधारित समतापूर्ण समाज में ही विकास संभव है।
(6) बीसवीं सदी के मध्य में और छठे-सातवें दशक तक यह बात कही जाती थी कि आमतौर पर स्त्री लेखन घर-परिवार के मुद्दों तक सीमित है। ‘सारिका’ के संपादक कमलेश्वर प्रतिवर्ष महिला-लेखन अंक निकालते थे और उस पर टीप होती थी ‘आंसूढार कहानियों से अलग लेखिकाओं की कहानियां’।लेकिन 70 के दशक के बाद स्त्री-लेखन की ये उपर्युक्त सीमाएं नहीं रहीं।विविध विषयों पर केंद्रित साहित्य रचा जाने लगा और बेहतरीन साहित्य रचा गया।नई कहानी के दौर ने इसे ऊँचाइयों पर पहुंचाया। ‘बोल्ड’ कहे जाने वाले विषय भी उठाए गए।दलित आत्मकथाओं के साथ दलित स्त्रियों का लेखन भी सामने आया।
इसके साथ यह भी कहना होगा कि कुछेक कृतियों को छोड़ कर राजनीतिक विषयों पर, सत्ता-व्यवस्था संबंधी विषय पर और सांप्रदायिकता जैसे विषयों पर स्त्री लेखन बहुत कम हुआ है।आज के समय में समाज के सामने चुनौतियां बहुत अधिक हैं।देश, समाज और स्त्री समूह के लिए अनेक मुद्दे हैं।ये विषय धीरे-धीरे लेखन के केंद्र में आ रहे हैं।इसलिए स्त्री लेखन को होमोजिनस कहना ठीक नहीं होगा।
डी-1,सेक्टर– 50, नोएडा-201301 मो. 9412272762
बड़े-बड़े ब्रांड स्त्रीवाद के नाम पर अपने उत्पादों को लोकप्रिय कर रहे हैं
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार। |
(1) भारत में स्टेटस आफ वुमैन रिपोर्ट 1971-72 में आ गई थी।अमेरिका में ऐसी रिपोर्ट बस एकाध साल पहले ही आई थी।अपने यहां वोट देने का अधिकार पाने के लिए स्त्रियों को कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा, जबकि अमेरिका में यह लड़ाई सत्तर साल तक चली थी।स्विटजरलैंड जैसे धनी योरोपीय देश में औरतों को वोट देने का अधिकार 70 के दशक में मिला।
आजकल औरतों को देवी बनाने का चलन खूब बढ़ा है।वे जैसे कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकतीं।यह बात सचाई से कोसों दूर है।औरतें अच्छी भी हो सकती हैं, बुरी भी।भारत में स्त्री के अधिकारों के बारे में बातें तभी शुरू नहीं हुईं, जब 1975 में संयुक्त राष्ट्र ने अतंरराष्ट्रीय महिला वर्ष की बात की।थेरिगाथा पढ़ लीजिए।नैया द्वारा संपादित स्फुरणा देवी की किताब- ‘अबलाओं का इतिहास’ देखिए।मानस की चौपाई याद कीजिए, ‘कत विधि नारि सृजी जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।’ बंगाल से महाराष्ट्र तक राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, पंडिता रमा बाई, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले के विचारों को देखा जा सकता है।सुभद्रा कुमारी चौहान के बारे में महादेवी वर्मा ने लिखा था कि उन्होंने अपनी बिटिया के विवाह पर कहा था कि वह कन्यादान नहीं करेंगी, क्योंकि उनकी बेटी दान की चीज नहीं है।विधवाओं की स्थिति पर महादेवी वर्मा की रचना ‘भाभी’ से अधिक हृदयविदारक और कौन सी रचना होगी।समस्या यह है कि जब तक अमेरिका कुछ न कह दे, ब्रिटेन से सर्टिफिकेट न मिल जाए और उनका पिछलग्गू संयुक्त राष्ट्र कुछ न बोले, हमें भी लगता है कि संसार में कुछ हुआ ही नहीं है, जबकि इनका खुद का ट्रेक रिकार्ड संपूर्ण मानवता के खिलाफ है।
पिछले चार-पांच दशक में महिलाओं की उपस्थिति जिसे ‘विजीविलिटी’ कहते हैं, समाज में बढ़ी है।इसका संबंध स्त्री शिक्षा में बढ़ोतरी और उनके लिए रोजगार के अवसरों से है।उनके लिए बनाए गए कानूनों की ताकत से है।हमारे लोकतंत्र और वोट से भी है।जब से नेताओं को पता चला है कि औरतें बड़ी संख्या में वोट देने लगी हैं, तब से वे उनके हितों को भी ध्यान में रखने लगे हैं।चुनावी घोषणा पत्रों में उनकी बातें की जाती हैं।वरना एक समय ऐसा भी था जब वोटर लिस्ट में नाम के स्थान पर यह लिखा जाता था कि फलां की मां और फलां की बीबी।
हम देखते हैं कि किसी भी विमर्श के मुकाबले नेताओं द्वारा मामूली बदलाव औरतों की जिंदगी बदल देते हैं।आपको हाल की बिहार सरकार की साइकिल योजना याद होगी।उन्होंने स्कूल जाने वाली लड़कियों को बड़ी संख्या में साइकिलें दी थीं।इससे लड़कियों का स्कूलों में जाना बढ़ा।उनका ड्राप आउट रेट घटा।इऩ्हीं साइकिलों पर गांव की दीवारों से निकलकर वे पढ़ने के लिए शहरों की तरफ बढ़ीं।यह नारा भी रहा है- यदि लड़कियां स्कूल नहीं जा सकतीं, तो स्कूल उन तक आ जाएं।यह साइकिल के जरिए संभव हुआ।अकसर शिकायत की जाती रही है कि औरतों के पास कोई संपत्ति नहीं होती।जब से सरकार ने औरतों के नाम मकान की रजिस्ट्री कराने पर स्टांप ड्यूटी में छूट दी, औरतों के नाम संपत्ति होने के मामले बढ़े हैं।इन दिनों गरीबों को पक्के मकान देने की योजनाओं में मकान औरतों के नाम ही किए जा रहे हैं।सच यह है कि राजनीति चाहे तो न केवल औरतों की, बल्कि हर साधनहीन की तकदीर बदल सकती है।
जब 1977 में मैंने नौकरी शुरू की थी, तब उस बड़े पत्रकारिता संस्थान में दस औरतें भी नहीं थीं।लेकिन सैंतीस साल बाद जब छोड़ा, तो वहां बड़ी संख्या में स्त्रियां थीं और बहुत बड़े-बड़े पदों पर थीं।
(2) कोई धर्म हो, वह औरतों की ताकत से डरता है, इसलिए उन्हें दबाता है।यह ताकत बुद्धि की है।वे सोचते हैं कि औरतें सृष्टि को आगे बढ़ाती हैं, इसलिए उन्हें हमेशा उनके काबू में रहना चाहिए।दुनिया में बहुत कम देश हैं, जहां धर्म का बोलबाला न हो।कहीं खुले रूप में और कहीं छिपे रूप में।रजनीश ने जब इनपर हमला बोला था, तो उन्हें लोकतंत्र का पहरुआ कहने वाले बहुत से देशों ने अपने यहां से निकाल बाहर किया था।आप पितृसत्ता की बातें कर रहे हैं, सिर्फ पितृसत्ता ही नहीं, कोई भी सत्ता अपने निरंकुश चरित्र से ही चलती है।अगर अपने फायदे के लिए उसे लोकतंत्र का मुखौटा पहनना पड़े या कट्टरता की मदद लेनी पड़े, कोई फर्क नहीं पड़ता।यदि कहें कि पितृसत्ता खत्म हो जाएगी और मातृसत्ता आ जाएगी तो इस धरती के सारे दुख दूर हो जाएंगे, तो ऐसा नहीं है।
पूर्वोत्तर की खासी कम्युनिटी को देख लीजिए।वे 1990 से मातृसत्ता से मुक्ति का आंदोलन चला रहे हैं।वहां पुरुषों को वही सब भुगतना पड़ता है, जो उत्तर भारत या देश में कहीं और स्त्रियों को।सत्ता का मूल चरित्र अपनी चलाने का होता है।यदि कोई नहीं मानता तो फिर पुलिस, मिलिट्री तथा अन्य संस्थाएं हैं।अगर स्त्री सत्ता में आ भी जाए तो क्या इन संस्थाओं को खत्म कर दिया जाएगा।कभी नहीं।
दरअसल इन दिनों वर्गों की बात बिलकुल भुला दी गई है।क्या नीता अंबानी और सड़क पर पत्थर तोड़ती स्त्री या किसी के घर की कामवाली की स्थिति एक जैसी है, क्योंकि ये सभी औरतें हैं।साधनहीन पुरुष, साधनहीन स्त्री, दोनों का जीवन दूभर है।कोरोना में हमने हजारों गरीब-गुरबों को भागते देखा था, उऩमें स्त्री-पुरुष दोनों थे।
(3) अपने यहां का स्त्रीवाद पश्चिम से बहुत प्रभावित है।हम इसे अपने नजरिए से देखना नहीं चाहते।घर में हम कुछ और हैं, बाहर कुछ और हैं।कई बार लगता है कि यह मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग की कुछ स्त्रियों तक सीमित मामला है।गरीब स्त्री की आवाज यहां सुनाई नहीं देती।वह स्त्री हमारे विचार के केंद्र में भी नहीं है।हो भी क्यों।जब फेमिनिज्म का सारा ज्ञान सोनम कपूर या दीपिका के पास है, जिनके उजले चेहरे कारपोरेट के बहुत काम के हैं, तब उजड़े, धूल-धूसरित, गरीब औरतों के थके चेहरों की क्या जरूरत।
हद तो यह है कि जिस पर्दा प्रथा और तीन तलाक का विरोध स्त्रीवादी हमेशा करते रहे हैं, पिछले दिनों वे इसका समर्थन करते दिखाई दिए।ऐसा क्यों? क्या मान लें कि पर्दा औरतों के लिए ठीक है, तीन तलाक कहकर पत्नी को भटकने के लिए छोड़ा जा सकता है? सईदा हमीद द्वारा महिला आयोग के लिए मुसलमान महिलाओं की स्थिति पर तैयार की गई रिपोर्ट- ‘वायस आफ द वायसलेस’ ही पढ़ लिया जाए।आखिर मुसलमान औरतें स्त्री विमर्श से गायब क्यों हैं।
(4) दहेज और जाति का संबंध तलाशने के मुकाबले यह देखा जाना चाहिए कि जो भी साधन संपन्न हैं, वे किसी भी जाति या धर्म के हों, वे शादियों में दहेज देना या दहेज मिलना अपनी हैसियत से जोड़ते है।जिसके पास खाने को नहीं, वह क्या करे।लेकिन इनकी देखादेखी उसे भी इस जाल में फँसना पड़ता है।जब से ‘पेज थ्री कल्चर’ बढ़ी है, मध्यवर्ग बढ़ा है, तब से तो जैसे शादियों में सब कुछ लुटाने का चलन भी बढ़ा है।इसमें जाति कहां खोज रहे हैं?
(5) लोकतंत्र के बारे में किसी ने कहा था कि यह सतत चलने वाला युद्ध है।इसके अलावा हम यह भी देखते हैं कि नाम लोकतंत्र का होता है, सेवा कारपोरेट और उद्योगपति की।वरना कोरोना काल में वे अरबपति, खरबपति कैसे हो जाते।सामाजिक न्याय के नाम पर जातिगत समीकरण भिड़ाने में कोई दल पीछे नहीं है।कहते सब यह हैं कि उन्हें जातिवाद खत्म करना है, लेकिन करना कोई नहीं चाहता।बल्कि सभी उसे मजबूत करते हैं।मीडिया में भी सारे विश्लेषण जातिगत आधार पर होते हैं।मान लिया जाता है कि सारे ब्राह्मण, ब्राह्मणों को ही वोट देते होंगे और सारे दलित, दलितों को ही।जबकि ऐसा होता नहीं है।चुनावी आंकड़े भी ऐसा नहीं बताते।इस तरह के आकलन में मनुष्य के विवेक और उसके अपने चुनाव को बिलकुल भुला दिया जाता है।सामाजिक न्याय को आर्थिकी और साधनहीनता से तय होना चाहिए।वरना आज तो किसी का सरनेम देखकर ही उसे शोषक बता दिया जाता है।
(6) कई बार ऐसा लगता है कि स्त्री लेखन होमोजीनियस हो गया है।बहुत बार, आप पात्रों के नाम जाति, लिंग, धर्म के बारे में शुरुआती कुछ पन्ने पढ़कर ही अनुमान लगा सकते हैं कि पुस्तक या रचना के अंत में किसकी जीत होगी और किसकी हार, कौन सताएगा और कौन सताया जाएगा।जब चीजें इतनी सरलीकृत हो गई हों, हार-जीत का फार्मूला बन गई हों, तो कोई क्यों पूरी किताब पढ़े, जब अंत उसे कुछ पृष्ठ पढ़कर ही पता चल गया।मुझे 70-80 का दशक याद आता है, जब अच्छी कहानी, कविता, नाटक, फिल्म वह मानी जाती थी, जिसमें हर हाल में मेहनतकश वर्ग की जीत हो।कला के तमाम क्षेत्रों में मेहनतकश वर्ग जीतता रहा, लेकिन 90 के दशक के आते-आते, अपने देश में मेहनतकश वर्ग के मामूली अधिकार तक छीन लिए गए।मजदूर आंदोलन, बड़े-बड़े ट्रेड यूनियन कहां गए, किसी को पता नहीं है।
उस समय देश में बहुत बड़े-बड़े महिला संगठनों का उदय हुआ था, आज उनका कुछ पता नहीं है।उन दिनों कई महिला संगठन फेमिनिस्ट विचार को शक की नजर से देखते थे।इसे मजदूर वर्ग के आंदोलन को तोड़ने वाला बताते थे, लेकिन धारा के साथ वे भी बह गए।इन दिनों महिलाओं के मुद्दों और बहुत से लेखन को पेज थ्री, मीडिया, एनजीओ और नेताओं के हवाले कर दिया गया है।उनका दबे-छिपे यह कहना भी होता है कि जब तक स्त्री विमर्श चर्चा में है, बिक रहा है, तब तक हम भी इन जैसी कह लें।बड़े-बड़े ब्रांड स्त्रीवाद के नाम पर अपने उत्पादों को लोकप्रिय कर रहे हैं।बाद में जब कोई और विचार आ जाएगा, तब की तब देखेंगे।इन दिनों ज्यादातर लेखन मीडिया और एनजीओ के विचारों से ड्रिवन हैं।रचनाओं में पॉलिटीकली करेक्ट होने की लालसा ज्यादा दिखाई देती है।
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भारतीय संदर्भ में स्त्रीवाद स्थानीय मुद्दों को लेकर चलता है
गरिमा श्रीवास्तव प्रतिष्ठित स्त्री विमर्शकार।अद्यतन पुस्तक :‘देह ही देश’।जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर। |
(1) पिछले कुछ दशकों में स्त्री विमर्श ने जो भूमिका निभाई है, वह बहुत संतोषजनक नहीं है।यदि यह भूमिका संतोषजनक होती तो पिछले दो वर्षों में महामारी की वजह से बंदी के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में जो तेजी आई, वह नहीं आती।पूरे विश्व में अन्य किसी भी देश की तुलना में भारतीय स्त्रियां हिंसा की ज्यादा शिकार हुई हैं।वे आर्थिक तौर पर पहले की अपेक्षा ज्यादा सुस्थिर हुई हैं, लेकिन उनपर जिम्मेदारियों का वजन भी कई गुना बढ़ा है।भाषा में पितृसत्तात्मक अभिव्यक्तियां और दबाव पहले की अपेक्षा बढ़े हैं।
इधर पितृसत्ता के कई छद्म रूप हमारे सामने हैं, जिनका सामना करना अब पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा कठिन है।कामकाजी स्त्री और घरेलू स्त्री के लिए पितृसत्ता के अलग-अलग रूप हैं।कार्य-स्थलों पर कई बार स्त्रियां ही पितृसत्ता की अभिकर्ता बन जाती हैं।स्त्रियों की सुरक्षा जैसे मुद्दे भी गंभीर हैं, क्योंकि जाति और लिंग के आधार पर बंटे समाज के तंतु पहले से ढीले हुए हैं।एक स्त्री द्वारा यदि कहीं पितृसत्ता का विरोध किया जाता है तो हो सकता है कि वह कुंठा किसी और जगह किसी और अपेक्षाकृत कमजोर स्त्री के शोषण और दमन के रूप में निकले।सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों की सक्रियता के बावजूद यौन-हिंसा के अलग-अलग मामले सामने आते हैं, जिसका प्रभाव एक बड़े समूह की स्त्रियों के अवचेतन पर पड़ता है।एक घटना कहीं होती है, सैकड़ों लड़कियों के माता-पिता सहम जाते हैं और उनपर सुरक्षा के नाम पर पाबंदियां लगा दी जाती हैं।भारत में बलात्कार संबंधी कानून स्त्री के पक्ष में नहीं हैं, बल्कि फ्लेविया एग्नेस से सहमत होते हुए उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘पवित्रता, कौमार्य, विवाह के लाभ तथा स्त्री -यौनिकता के भय पर आधारित हैं।’
(2) धार्मिक कट्टरता की गाज स्त्रियों पर सबसे पहले गिरती है।धर्म के नाम पर तमाम पाबंदियों की शिकार स्त्री हुई है, होती रही है।धर्म के सांस्थानिक व्यभिचार और शोषण को देवदासी प्रथा में देखा गया है, लेकिन आज देवदासी प्रथा का अस्तित्व लगभग मिट जाने के बावजूद स्त्रियां धर्मस्थानों पर शोषित होती हैं।अनाथ, बेवा और बेसहारा स्त्रियों के लिए राज्य की ओर से ऐसी कोई पेंशन व्यवस्था नहीं जो भ्रष्टाचार मुक्त हो।चिकित्सा और पेंशन की सुविधाओं से महरूम और अनजान स्त्रियां मदुरई से लेकर मथुरा, वृंदावन में दो रोटी के लिए दिन-रात जबरदस्ती भजन करती हुई मिल जाती हैं।धर्म उनके लिए आश्रय भी है और शोषण का अभिकर्ता भी।
भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश में पैतृक संपत्ति में अधिकार स्त्रियां स्वयं मांगने आगे नहीं आ रही हैं।पति, पिता की मृत्यु के बाद कई मामलों में उनके पास धर्मस्थलों का आश्रय लेने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता।अंबेडकर तथा लोहिया ने जातिप्रथा के उन्मूलन के लिए अंतरजातीय, अंतरधार्मिक विवाहों को प्रोत्साहन देने की बात कही थी।सच यह है कि इस तरह के विवाह आर्थिक रूप से सबल वर्ग में तो होते रहे हैं, लेकिन आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के लिए धर्म की सत्ता को चुनौती देना अब भी बहुत आसान नहीं है।इन दिनों ऐसे बहुत से मामले सामने आ रहे हैं, जब अंतरधार्मिक विवाहों का विरोध किया गया है या उन्हें निरस्त करने के प्रयास किए गए हैं।दूसरी तरफ, धर्म के नाम पर कई तरह के व्यवसाय प्रचलन में हैं।
लोग अपनी चालों में जिन भोले अनपढ़ या मुसीबत के मारे लोगों को फंसा लेते हैं उनमें स्त्रियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है।शिक्षा और चेतना के अभाव के कारण पुत्रेष्टि यज्ञ, गंडा-ताबीज अब भी प्रचलन में हैं, बल्कि पहले से कहीं ज्यादा, क्योंकि अब मीडिया पर वशीकरण मंत्र, जन्मकुंडली और व्रत त्योहारों का महिमामंडन है, जिनमें स्त्रियों के लिए तमाम आयोजन हैं।व्यक्ति-केंद्रित आस्थाएं अब सामूहिक प्रदर्शन की चीज बन गई हैं, इनमें स्त्री के लिए पितृसत्तात्मक श्रृंखलाएं पहले से कहीं ज्यादा रूढ़ हो रही हैं।
(3) भारत ने 90 के दशक के बाद नए वैश्विक चरण में प्रवेश किया तो भारतीय स्त्री आंदोलन में तब्दीली देखी गई।शोध और अनुसंधान केंद्रों में स्त्री संबंधी पाठ्यक्रम तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हुई।फलस्वरूप अकादमिक केंद्रों में पितृसत्ता के नए बदले रूप, स्त्री सशक्तिकरण, स्त्रियों के लिए आरक्षण, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों पर पहले की अपेक्षा ज्यादा गहराई और सचेतनता के साथ विचार किया जाना शुरू हुआ।संपत्ति में उत्तराधिकार, यौन हिंसा और तलाक संबंधी कानूनों के प्रति पहले से ज्यादा जागरूकता आई।लेकिन भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे, वर्ग-वैविध्य, अल्पसंख्यकों का विस्थापन, घरेलू हिंसा जैसे मुद्दे अब भी स्थगित या विचाराधीन हैं।
इसके साथ मैं यह भी रेखांकित करना चाहूंगी कि भारत में राजनीति, अर्थतंत्र, साहित्य-संस्कृति सभी क्षेत्रों में स्त्री की नेतृत्वकारी भूमिका को स्वीकार करना अभी भी कठिन है।स्त्रियों को पीछे रखने, उनके श्रम को अवमूल्यित करने की साजिशें हर कहीं हैं।ऐसे में भी स्त्रियां ही हैं जो पर्यावरण रक्षा, युद्ध-विरोधी माहौल तैयार करने में आगे आती हैं।खाप-पंचायतों के फरमान हों या यौन-हिंसा के मामले -स्त्री उनमें उलझ जाती है, न्याय पाने के लिए, अपना हक़ पाने के लिए उसे बरसों अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ता है।यहीं उसकी ऊर्जा खत्म हो जाती है, जिससे वह स्त्री विमर्श जैसे मुद्दों पर सोच-विचार सकने की स्थिति में ज्यादा नहीं रहती।जबकि पश्चिम के स्त्रीवाद में उदारीकरण, वैश्वीकरण, नस्लवाद के मुद्दों पर काफी बल दिया जाता है।
भारतीय संदर्भ में स्त्रीवाद अपनी स्थानीयता के मुद्दों पर सोचता है, स्त्री-श्रम और जेंडर के मसले उसकी विचारणा के केंद्र में हैं।हमारी परंपराएं और धार्मिक सामाजिक वैविध्य के कारण स्त्री- मुद्दे वही नहीं हैं जो पश्चिम में हैं।औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक समाज ने भी भारतीय स्त्रीवाद के स्वरूप और संदर्भ पश्चिमी स्त्रीवाद से अलगाए हैं।केवल पश्चिम के स्त्रीवादी आंदोलन और विमर्श से प्रेरित होकर भारतीय स्त्रीवाद को पूरी तरह समझा-गुना नहीं जा सकता।
(4) जाति, वर्ग, वर्ण, जेंडर के साथ संप्रदाय या धर्म को भी देखा जाना चाहिए।ये सभी निकष आपस में गुंथे, यानी प्रतिच्छेदी अवस्था में अपना अस्तित्व रखते हैं।यदि भारतीय समाज की संरचना देखें तो यहां के विभिन्न पदानुक्रमों में सत्ता और शक्ति-केंद्रों पर किसी वर्ग, जाति, जेंडर या संप्रदाय का आधिपत्य है।सामाजिक संरचनाओं के भीतर बहुस्तरीयता बनी हुई है, जिसका आधार किसी वर्ग, जाति, जेंडर या नस्ल का उत्पीड़न होता है।किसी एक वर्ग या जाति के प्रभुत्व की स्थापना के लिए अन्य को दमित-उत्पीड़ित किया जाता है।सामाजिक इतिहास में अंतर्विभाजक पदानुक्रमिकता का निर्माण होता है।विभिन्न अस्मिताएं, जो केंद्र के आसपास मंडराती रहती हैं, उनमें जाति और जेंडर को प्रवेश बिंदुओं के तौर पर देखा जा सकता है।विभिन्न अस्मिताएं अपने दैनंदिन प्रतिरोध के तरीकों और रणनीतियों को लेकर संघर्षरत रहती हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक पदानुक्रमिकता को बनाए भी रखना चाहती हैं।एक ओर जाति व्यवस्था को तोड़ने का प्रयास भी करती हैं, दूसरी ओर अपनी ही जाति के भीतर पदसोपानिकता को प्रश्रय भी देती हैं।
भारत में अस्सी के दशक में विभिन्न सामाजिक वर्गों की आपसी आवाजाही के बीच अंतर्विरोध को एक विश्लेषणात्मक ढांचे के रूप में उभरता देखा जा सकता है।जाति, जेंडर और कई तरह के वर्गों के आधार पर उत्पीड़न, वर्चस्व और भेदभाव की राजनीति को समझने के लिए हमें इस संरचना को समझना होगा।जहां तक दहेज जैसे मुद्दे का सवाल है, यह पहले की अपेक्षा नए और जटिल रूपों में हमारे सामने आया।इसका संबंध स्त्री के संपत्ति उत्तराधिकार से भी है।नई सदी में शिक्षा और रोजगार के बावजूद स्त्रियों को अपनी पैतृक संपत्ति में अधिकार से वंचित किया जाता है।उनके बारे में सोचा ही नहीं जाता।लड़कियों को मायके में इसके लिए लड़ाई करनी पड़ती है, जिससे भावात्मक संबंध टूटते हैं।संभवतः इसलिए विवाह के अवसर पर वे दहेज का विरोध नहीं कर पातीं, क्योंकि दहेज एक तरह से पैतृक संपत्ति में से उनका हिस्सा है, यह मानते हुए माता-पिता भी दहेज देकर अपने दाय से हाथ धो लेते हैं।कई मामलों में लड़कियों द्वारा पैतृक संपत्ति में अपना दावा पेश करने के अवसरों पर उनको जतला दिया जाता है कि अब उन्हें यह हिस्सा इसलिए नहीं मिल सकता क्योंकि उन्हें पहले ही दहेज दे दिया गया है।
(5) मुझे लगता है, व्यवहार में हमें और अधिक लोकतांत्रिक होने की आवश्यकता जितनी आज है उतनी पहले कभी नहीं थी।स्त्रियों के लिए लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के लिए एक लंबी लड़ाई अभी बाकी है।सामाजिक न्याय के प्रश्न छद्म वेश में सुलझे हुए दिखते हैं, वास्तव में सुलझे हैं नहीं।श्रम के क्षेत्र में सम्मान और बराबरी अभी है कहां?
(6) मेरे विचार से पिछले कुछ वर्षों में विविध विधाओं में स्त्रियों ने बड़े परिमाण में जिस वेग से लिखना शुरू किया है, उसे मैं स्त्री-लेखन का विस्फोट ही कहूंगी।स्त्री रचनाशीलता अपने विविध आयामों में पिछली दो सदियों को चुनौती दे रही है।महामारी के दौर में सोशल मीडिया के विभिन्न मंच पर स्त्री लेखन और वैचारिकी के अद्भुत प्रमाण हमें मिल रहे हैं।स्त्रियां अपनी रचनाओं के साथ इससे पहले, इस तेजी के साथ, इतनी बड़ी संख्या में कहीं उपस्थित नहीं दिखतीं।तमाम आलोचकीय रणनीतियों को धता बताती हुई, उपेक्षाओं के प्रति बेफिक्री का रवैया अख्तियार करती हुई इस सदी को स्त्री लेखन की सदी बनाने पर आमादा हैं।
स्त्री चली आती हुई परंपरा से रगड़ खाकर, नई चुनौतियों का सामना करती हुई आज नए से नए रूपक और उपमानों को गढ़ रही है।कविता, उपन्यास कहानी, कथेतर विधाएं, आलोचना सभी में स्त्री की सजग उपस्थिति है, यहां तक कि अनुपात में पुरुष रचनाकार कम पड़ गए हैं।यदि कथाकार आलोचक प्रियदर्शन के शब्दों में कहूं तो ‘अभी की स्थिति यह है कि यह स्त्री कविता ही मुख्यधारा की दावेदार है, अपनी सारी विविधता के बावजूद यह कविता स्त्री रचनाशीलता से जोड़कर देखे जाने का एक सहज आग्रह पैदा करती है तो इसलिए कि इसके पीछे एक स्त्री दृष्टि दिखाई देती है।अब तक पुरुष की निगाह और उसके निर्देशन में रची-सिरजी जा रही दुनिया को स्त्री की नजर और उसके नजरिए से देखने का प्रस्ताव रखती हुई ही नहीं, उसपर अपनी गहन बौद्धिकता और संवेदनशीलता के साथ मुहर लगाती हुई -यह बताती हुई कि स्त्रीत्व की इस अपरिहार्य यात्रा से गुजरे बिना इसको महसूस किए बिना, या इसमें सहयात्री हुए बिना पुरुष लेखन भी निरर्थक और अप्रासंगिक होता चला जाएगा।’
प्रोफेसर, सेंटर ऑलइंडियन लैग्युजेज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली–110067 मो.7678380738
गांवों–कस्बों में स्त्री की दुनिया बदल रही है
मीना बुद्धिराजा युवा लेखिका।आलोचना की दो पुस्तकें प्रकाशित।अद्यतन आलोचना पुस्तक ‘समकालीन रचनशीलता की वैचारिकी’। |
(1) स्त्री विमर्श ने स्त्री अस्मिता के आंदोलन के रूप में पिछले चार-पांच दशकों में जो भूमिका तैयार की, वह एक साझे प्रयास का परिणाम है।आज स्त्री मुक्ति की जो स्वतंत्र परिभाषा है, उसका संबंध मुख्यतः समाज में लैंगिक समानता, आत्मसम्मान, न्याय और मानवीय संबंध के अधिकार से है।स्त्री विमर्श को आरंभ किए गए व्यापक संघर्ष और गैर-बराबरी से मुक्ति के लिए विद्रोह की परिणति माना जा सकता है।नि:संदेह आज नैतिकताएं बदल रही हैं, उनके पैमाने और मूल्यों में भी बदलाव तेजी से दिखा है।स्त्री के लिए परंपराओं को तोड़कर दैहिक-आर्थिक-मानसिक गुलामी से मुक्त होने का नया आगाज हुआ है।लक्षित किया जा सकता है कि देश में हर वर्ग, हर जाति और हर क्षेत्र में स्त्री की स्वतंत्र पहचान को स्वीकार करते हुए उसके प्रति रूढ़िवादी सोच बदली है।शिक्षा, राजनीति, समाज कल्याण, प्रशासन, खेल, मीडिया, कला, तकनीक हर जगह स्त्रियों ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है।इस नई तस्वीर से स्वंतत्र मानवीय गरिमा के अपने अधिकार के लिए स्त्री का अस्तित्व एक नई पहचान लेकर उपस्थित हुआ है।स्त्री अपने लिए सर्वथा नए रूप का अन्वेषण कर रही है।इस जागरूकता से हुए बदलाव की प्रक्रिया में बहुत से संकीर्ण बंधन टूटे हैं।स्त्री अपने रास्ते के अवरोधों के रूप में मौजूदा पुरानी धारणाओं और पूर्वग्रहों के जाल को उतारकर अपनी वास्तविक अस्मिता पाने में कामयाब हो रही है।
पिछले लगभग दो-तीन दशकों में बहुत सी बंदिशें और पुरुषसत्तात्मक शिकंजे टूट चुके हैं।स्त्री को जो सबसे बड़ी उपलब्धि मिली है, वह है मानसिक आज़ादी।महानगरों में ही नहीं, बल्कि गांव-कस्बों में भी स्त्री की बदलती हुई दुनिया अपने होने का सबूत दे रही है।वह अपने निर्णय स्वयं ले रही है- घर-परिवार और समाज में ही नहीं, जीवन के संघर्षों में भी वह साहस लेकर अपनी नई संभावनाओं की निरंतर खोज की यात्रा में आगे बढ़ रही है।गैर-बराबरी से मुक्ति की दिशा में यह स्त्री विमर्श की सार्थक ऐतिहासिक उपलब्धि है।
(2) विश्व के प्राय: सभी समुदायों, वर्गों और जातियों में धर्मिक तौर पर पितृसत्ता किसी न किसी रूप में मौजूद है।सदियों से स्त्री के अस्तित्व के दमन के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से धर्म ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था को अपना हथियार बनाया है।स्त्री को संस्कारों, रीतिरिवाजों और आदर्शों के ढांचे में कठोर बंधनों की बेड़ियों में जकड़ने के लिए बड़ी बारीकी से एक धार्मिक जाल बुना गया है।इसके माध्यम से स्त्री धर्म के पालन, त्याग, सहनशीलता के रूप में उसके शोषण को स्वाभाविक परंपरा और मान्यता के रूप में स्थापित करने की निरंतर कोशिश की गई।धर्मशास्त्रीय रीति-रिवाज़ों की आड़ में सभी धर्मों में आदर्श स्त्री चरित्रों की कल्पना है।बाल विवाह, घरेलू हिंसा, हिज़ाब, तीन तलाक जैसी प्रथाओं ने स्त्री की पराधीनता को बढ़ाया है।
वर्णव्यवस्था, पितृसत्ता, धर्म के विधि-विधानों के नाम पर धार्मिक नीति नियामकों ने घालमेल पैदा किया है।उन्होंने स्त्री-विरोधी रूढ़ियों को समाज की जड़ों में अभी तक बनाकर रखा है।इस समय पितृसत्ता की कुटिलता से जूझना ही स्त्री मुक्ति की चिंता का विषय है।अब स्त्री बहुत परिपक्व बौद्धिक सोच लेकर आगे बढ़ रही है।
(3) विश्व के स्त्रीवादी चिंतन ने नि:संदेह भारतीय साहित्य और समाज को समझने की एक नई अंतर्दृष्टि प्रदान की है और उसे प्रभावित किया है।सीमोन ने जब कहा, ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है’ तब यह तथ्य सार्वभौम स्त्री अस्मिता और नियति पर पूरी तरह लागू होता दिखा।फिर भी कोई चिंतन, विमर्श और आंदोलन अपने देशकाल और परिस्थितियों से निरपेक्ष नहीं होता।वैश्विक और पश्चिमी स्त्रीवाद ने आर्थिक और दैहिक स्वतंत्रता के लिए जो व्यापक संघर्ष किया उसका प्रभाव भारतीय स्त्री चिंतन पर हुआ है।उसके बाद ही अपने अनुभव और त्रासदियों को व्यक्त करने की मुहिम शुरू हुई।लेकिन भारतीय सामाजिक ढांचे में परिवार की संस्था बहुत मजबूत है और स्त्री का सामाजिक यथार्थ बहुत बहुस्तरीय, जटिल और संश्लिष्ट है।इसी जमीन पर खड़े होकर मुक्ति का संघर्ष करना है, अपने लिए स्पेस भी बनाना है।लेकिन सिर्फ वैयक्तिक मुक्ति यहां अधूरी है, सामूहिक मुक्ति में ही उसकी अपनी अस्मिता की मुक्ति है।
(4) स्त्री मुक्ति का आंदोलन अपनी प्रकृति में तमाम भेदभावों को चुनौती देनेवाली है।जाति-वर्ग की अवधारणाओं से मुक्त हो तभी उसकी सार्थकता है।पूरे समाज की मुक्ति में ही स्त्री की मुक्ति है, तभी वह अपने स्वतंत्र मानवीय अधिकारों और समान भागेदारी की हकदार हो सकती है।जाति की अवधारणा संपूर्ण सांस्कृतिक-सामाजिक संरचना में उपस्थित है।किसी जाति और समाज में स्त्री की वही पहचान होती है, जो धार्मिक पितृसत्ता उसके लिए कर देती है, उसकी अपनी निर्णयात्मक शक्ति को अपदस्थ करके।आधुनिक समाज में खुली सोच से इन जातीय संकीर्णताओं पर प्रहार जरूरी है, क्योंकि तभी दहेज प्रथा को मिटाया जा सकता है।
(5) आधुनिक स्त्री विमर्श में भूमडंलीकरण ने उपभोक्तवादी संस्कृति के प्रचार द्वारा देह-मुक्ति के लिए तो बहुत अवसर दिए हैं, लेकिन लोकतांत्रिक गतिविधियों को संकुचित कर इसके स्पेस को कम कर दिया है।एक लोकतांत्रिक बहुलतावादी देश में स्त्री की भूमिका महत्वपूर्ण और असंदिग्ध है।आधी आबादी के रूप में स्त्री की लोकतांत्रिक मुक्ति विशाल जनता की मानवीय मुक्ति से जुड़ी है।इसलिए अस्मिताओं की अन्य इकाइयों- दलित, आदिवासी, श्रमिक, अल्पसंख्यक आदि के अधिकारों के लिए संघर्ष से जुड़ना जरूरी है।समानता के लिए उभरते सभी सामूहिक स्वरों के साथ जुड़कर ही स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
(6) स्त्री विमर्श की अवधारणा और उसका उद्देश्य व्यापक है।आधी आबादी की जेंडर समानता और अधिकारों के बिना कोई भी सामाजिक मुक्ति अधूरी है।सभी स्वतंत्रता को दैहिक और यौन स्वतंत्रता के अर्थ तक सीमित करना इसकी गंभीरता को कम करना है।स्त्री विमर्श को एकरस और एकांगी स्त्री जीवन के मुद्दों, स्त्री-पुरुष संबंधों के दायरे से बाहर निकलकर सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरण जैसे मानवतावादी विमर्शों से भी जोड़ने की आवश्यकता है।
इसी तरह स्त्री पर केवल स्त्री ही लेखन कर सकती है, तभी वह प्रामाणिक होगा, यह धारणा भी अधूरी है।स्त्री विमर्श की सार्थकता पर चर्चा इस नजरिए से अधिक होनी चाहिए कि अपने समय, समाज और परिवेश की सभी मनुष्य विरोधी ताकतों से वह मुठभेड़ करता है।संकीर्ण सत्ता केंद्रों से कैसे संघर्ष करे, और कठिन चुनौतियों का सामना करे, इस पर सोचना होगा।इसलिए समाज से संवेदनात्मक संबंध और संवाद बनाकर ही स्त्री विमर्श अधिक सकारात्मक और रचनात्मक हो सकता है।युवा लेखिका।आलोचना की दो पुस्तकें प्रकाशित।अद्यतन आलोचना पुस्तक ‘समकालीन रचनशीलता की वैचारिकी’।
ए1-42, ऑर्किड ग्रीनील्ड सोसायटी, एपलवुड टाउनशिप, एस.पी.रिंग रोड, अहमदाबाद-380058 मो.9873806557
आज का स्त्री लेखन अलक्षित रास्तों की तलाश है
रजनी गुप्त वरिष्ठ कथाकार और लेखिका।एक सरकारी बैंक में मुख्य प्रबंधक पद पर।ताजा उपन्यास ‘तिराहे पर तीन’। |
(1) मैं स्त्री विमर्श से काफी हद तक संतुष्ट हूं, सिवाए इसके कि यह सुदूर गांवों, देहातों, पहाड़ी औरतों, आदिवासी औरतों के अंदरूनी और बाहरी जीवन की जटिलताओं को केवल बाहर से छूकर निकल जाता है।कड़ी धूप में पसीना चुआती पहाड़ी औरत के जीवनगान को सुनने के लिए या उनकी अंतश्चेतना की पुकार सुनने के लिए जब तक उनके बीच की स्त्री खुद अपनी पीड़ाओं या जटिल जीवन की दुश्वारियों को नही लिखेगी, हम केवल बाहरी आवरणों तक ही सिमटे रहकर महज स्त्री जीवन के कवर को पढ़ते या उसकी पहचान चिह्नित करते रह जाएंगे।
स्त्री की तलस्पर्शी जटिलताएं बहुआयामी हैं।स्त्री के पैदा होने से लेकर शिक्षा पाने तक की यात्रा में लैंगिंक असमानता की स्थितियों से जूझते हुए ही ज्यादातर लड़कियों की शिक्षा सिमट जाती है।कहीं-कहीं लड़कियां कॉलेज शिक्षा पूरी करते ही घर बिठा दी जातीं हैं।उच्च शिक्षा का मुंह देख पाना हर लड़की के लिए संभव नहीं हो पाता।यह एक बड़ी हकीकत है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।
ग्रामीण परिवेश, कस्बाई जीवन तक बमुश्किल हासिल शिक्षा आगे शहरों के कॉलेज तक नहीं पहुंच पाती, यह मैंने खूब देखा है।इस तरफ विशेष ध्यान देने की जरूरत है।बिना शिक्षा हासिल किए स्त्री चेतना के सदियों से बंद दरवाजों पर भला कैसे दस्तक दी जा सकती है? सजग, सचेत और शिक्षित स्त्री ही अपने निजी स्पेस, निजता, आजादी व आत्मनिर्णय जैसे मुद्दों पर अपना स्टैंड लेने में सक्षम होगी।कोई भी विमर्श जब तक जमीनी सचाइयों को नही छुएगा, वह क्रमश: सिकुड़ जाएगा।
मुझे लगता है कि पिछले कई दशकों से स्त्री विमर्श ने स्त्री जीवन की मुंदी, दबी, ढकी जीवन की परतों को साहसिक तरीके से उघाड़ने में अहम भूमिका निभाई है।स्त्री को स्त्री की दृष्टि से देखना, समझना और विचार करना स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी जरूरत है।इसके जरिए पितृसत्ता की निरंकुशता का विखंडन होता है।स्त्री विमर्श द्वारा पहली बार स्त्री को मनुष्य समझने की दिशा में ठोस काम हुआ है।पुरुष-वर्चस्वी समाज व्यवस्था में स्त्री दमन, उत्पीड़न, अन्याय एवं गैरबराबरी के मुद्दों को प्रमुखता से उभारा गया है।दरअसल पितृसत्ता के दमन से मुक्ति का सवाल पुरुष विरोध नहीं है।यह कट्टर एकाधिकारवादी पितृसत्तावादी व्यवस्था से मुक्त होना है।
देखा जा सकता है कि विश्वविद्यालयों में पहली बार स्त्री-अध्ययनन विषयक पाठ्यक्रम तथा वूमेंस स्टडी सेंटर आदि बहुआयामी गतिविधियां शुरू हुई हैं।स्त्री विमर्श का निहितार्थ गैरबराबरी, दमन, शोषण तथा वर्चस्व से मुक्त होना है।स्त्री-पुरुष को समानाधिकार, सम्मान, न्याय, स्वतंत्रता और सर्वत्र बराबरी की लड़ाई में विषमता के सभी टूल्स का अंत होना ही स्त्री विमर्श का अभिप्रेत है।
समकालीन कथा साहित्य, कविताएं, आत्मकथाओं तथा कथेतर गद्य में पहली बार स्त्री मुक्ति के सवाल तीक्ष्णता से उभरकर आए हैं।स्त्री के बहुआयामी जीवन की परतों को खुरेचने का साहसिक लेखन हुआ है, यह कम बड़ी बात नहीं।यह लेखन रेखांकित करता है कि स्त्री को महज मादा न समझकर उसे पुरुष के समकक्ष व्यक्ति का दर्जा दिया जाए।
पारिवारिक जीवन से लेकर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में स्त्री विमर्श ने बृहत्तर जीवन से जुड़े जरूरी प्रसंगों पर खुलकर, साहसिक तरीके से अपनी मौजूदगी दर्ज की है।आधी दुनिया की पड़ताल करते हुए इस स्त्री विमर्श के चलते पहली बार आधुनिक चेतना संपन्न स्त्री की चहलकदमी स्वागत योग्य पहल है।
बेशक, इसकी कुछ सीमाएं परिलक्षित हुई हैं, जैसे यह स्त्री लेखन, मध्यवर्गीय, उच्चमध्यवर्गीय तथा शहरी जीवन की स्त्रियों के जीवन को ही केंद्र में रखकर अध्ययन करता है।इसकी जड़ें सुदूर देहातों, कस्बों तक फैलनी चाहिए।
(2) समाज-संरचना में पितृसत्ता का वर्चस्व शोषणकारी, दमनकारी तथा अमानवीय रूप लेता रहा है।इसमें स्त्री की अस्मिता, निजता, आजादी एवं वैयक्तिकता के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा गया है।बेशक पितृसत्ता की निर्मितियों में धार्मिक कट्टरता से जुड़े रीतिरिवाज, परंपराएं, मिथकीय आख्यानों से जुड़ी गाथाएं हैं।इन सबकी स्त्री को दोयम दर्जे का बनाने में सबसे बड़ी भूमिका है।धार्मिक रूढ़ियों, गढ़े हुए मिथकों एवं अतार्किक कथाओं की परंपराओं की आड़ लेकर ऐसे पर्व, उपवास एवं तमाम कर्मकांड तय कर दिए गए हैं, जिनके जरिए पुरुष की श्रेष्ठता और स्त्री की हीन होती स्थिति निरूपित की जाती है।ऐसे दर्जनों व्रत-उपवासों और परंपरागत मिथकीय कथाओं को मीडिया में भी खूब भुनाया जाने लगा है।इन सबके मूल में पुरुष की दीर्घायु की कामना के जरिए उसी को श्रेष्ठ ठहराए जाने की युक्तियां होती हैं।यौन शुचिता, या पातिव्रत्य, एकनिष्ठता -जैसे परंपरागत मूल्यों की जड़ में पितृसत्ता हो।इसने धर्म की आड़ लेकर भय को इस ढंग से स्त्री पर थोप दिया है कि आतंकित होकर वह इन रूढ़ियों का निर्वहन करने को बाध्य हो।पितृसत्ता के ऐसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपकरण इन दिनों खूब प्रचलन में हैं।ये स्त्री चेतना को कुंद करते हैं या उसे दोयम दर्जे का साबित करते हैं।इससे स्त्री चेतना में लोकतंत्र की बयार नहीं आ पाती।
वह एक स्वतंत्रचेता, स्वाधीन, आत्मसंपन्न स्त्री है, उसकी बहुआयामी भूमिका है, ऐसी चेतना का विकास होना चाहिए।लेकिन उसे पीछे धकेलने की साजिशें पितृसत्ता रचती रहती है, जैसे उसे सौंदर्य प्रसाधनों में संलिप्त बनाए रहना या उसके मूल्यांकन का एकमात्र आधार अपनी देहयष्टि का प्रदर्शन समझ लेना।ऐसे दुष्चक्र में फँसी स्त्री की प्रतिभा का विकास नहीं हो पाता।
(3) पश्चिमी स्त्रीवाद और भारतीय चेतना के बीच समानता की बातें नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कोई भी विमर्श अपने देश-काल की स्थितियों के अनुसार विकसित होता है।बेशक लैंगिक असमानता तथा बलात्कार जैसी विश्वव्यापी समस्याएं स्त्री की दैहिक तथा मानसिक हिंसा के किस्से वैश्विक स्तर पर एक-जैसे देखे जाते रहे हैं।फिर भी हमारे देश की जमीनी सचाइयां अलग हैं।हमारे यहां विविध प्रांतों की स्त्रियों की समस्याओं की जमीन भी अलग-अलग है।गांवों-कस्बों में खेतों-खलिहानों में पुरुषों के कंधे से कंधा जोड़कर काम करती स्त्री की समस्या अलग है और शहरी जीवन की स्त्री की समस्या अलग है।भारतीय स्त्री चेतना की निर्मितियों में परंपरागत यौन शुचिता या चारित्रिक प्रमाणपत्र जैसे मूल्य शहरी जीवन की स्त्री का प्रतिनिधित्व करते हैं तो ग्रामीण चेतना व कस्बाई स्त्री चेतना की निर्मितियों में उसकी सामाजिक हैसियत के अन्य कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका है।स्त्री की निजता, आजादी व आत्मनिर्णय की समस्याएं वैश्विक स्तर पर सार्वभौमिक हैं, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता।
(4) सच बताएं तो स्त्री स्वयं में एक जाति है, प्रजाति है, एक समुदाय है।संसार भर की स्त्रियों की एक ही जाति है जिसका नाम है- स्त्री।किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय की स्त्री हो, उसकी समस्या के मूल में है- असमानता, उसकी मेधा- मेहतन की बेकद्री, परिवार और समाज में उसकी सशक्त भूमिका के प्रति नकार या अस्वीकृति और उसे घर से लेकर बाहर तक की दुनिया में मुकम्मल स्थान न मिल पाना।ये समस्याएं सार्वभौमिक हैं।मैं दहेज प्रथा को मजबूत बनाने में जाति की भूमिका को महत्वपूर्ण नहीं मानती, बल्कि दहेज प्रथा भी पितृसत्ता की देन है।इसके जरिए स्त्री को वस्तु में पर्यवसित करने की अलक्षित साजिशें रची गई होंगी, ऐसा अनुमान है।स्त्री को वस्तु के रूप में रिड्यूस करके दहेज जैसी कुप्रथा स्थापित करने या उसे स्वीकृति देने में संभवत: पितृसत्ता की ही कुटिल रणनीति है।
(5) आज के दौर में लोकतंत्र तथा सामाजिक न्याय का सवाल सबसे प्रासंगिक है, क्योंकि हमारे घरों में लोकतंत्र नहीं है।आर्थिक आजादी के साथ जब से स्त्री ने बाहर काम करना शुरू किया है, तब से उसका दुहरा-तिहरा शोषण बढ़ता जा रहा है।घर में वह पत्नी, मां या बहू की भूमिका में अपेक्षाओं के पहाड़ तले पिस रही है।बाहरी दुनिया में कामकाजी स्त्री के रूप में जब कभी वह कोई उपलब्धि हासिल करती है, तो उसकी मेधा और मेहनत की जगह निरर्थक कारकों की तलाश करने की मुहिम छिड़ जाती है।स्त्री की मजबूत पारिवारिक स्थिति, सामाजिक हैसियत, सजग कर्मठ नागरिक होने की सार्थक भूमिका की बात करना बहुत दूर की बात है, उसके मूल्यांकन का आधार महज स्त्री होना मान लिया जाता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की राह पर चलती आज की स्त्री भावनात्मक रूप से अकेली होती जा रही है।वह घर पर दुहरी अपेक्षाओं तले सांस लेती है, फिर धीरे-धीरे अलक्षित शोषण से गुजरने को अभिशप्त हो जाती हैं।अर्जन की समान योग्यता के बावजूद पितृसत्ता उसके साथ समान बरताव नहीं करती।उसकी मेधा तथा मेहनत का समान स्तर पर सम्मान नहीं किया जाता।उसके मूल्यांकन के औजार पुराने परंपरागत हैं, मसलन- वह मां कैसी है, पत्नी होने के कर्तव्यों को ठीक से निर्वहन कर पा रही है या नहीं इत्यादि।रिश्तों में टूटन की जवाबदेही भी उसकी होती है।दिमागी रूप से उसे समान स्तर की होने के बावजूद उसके स्टेटस को स्वीकार करने के प्रति हमारे घरों में लोकतंत्र नहीं है, यह सचमुच चिंताजनक स्थिति है।इसके चलते स्त्री के साथ समुचित न्याय नहीं हो पाता।
(6) स्त्रीलेखन होमोजीनियस नहीं है।बस बहस मूल मुद्दे से न हटे, न ही महज फेमिनिस्ट होने को फैशनेबल नारेवाजी के जुमलों से जोड़कर देखा जाए।स्त्री विमर्श एक समतामूलक, लोकतांत्रिक चेतना के जरिए सभी तरह के विषमतामूलक सांचे ढांचे को तोड़कर सर्वसम्मान्य व्यवस्था लाने का सपना देखता है।आधुनिक जीवन की जटिलताएं जिस तरह दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं, स्त्रीलेखन की दिशाएं और दशाएं भी परिवर्तनशील हैं, प्रगतिगामी हैं।सुखद है कि आज का स्त्रीलेखन नए और अलक्षित रास्तों को तलाश रहा है।यह लेखन नई पीढ़ी के बहुरूपिए जीवन की मीमांसा करे, तो बहुआयामी समय की जटिल उलझनों को सुलझा सकता है।
5/259 विपुलखंड, गोमतीनगर, लखनऊ-226010 मो.9452295943
स्त्री–पुरुष समानता के लिए जाति प्रथा का विरोध जरूरी है
सुशीला टाकभौरे दलित कथाकार, कवि और सामाजिक रूप से सक्रिय।चर्चित आत्मकथा, ‘शिकंजे का दर्द’। |
(1) स्त्री विमर्श की पृष्ठभूमि में सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि 1975 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया था।इसके साथ ही विश्व स्तर पर गांव-गांव और शहरों में स्त्री जागृति के कार्य तेजी से शुरू हो गए, जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियां संगठित एवं जागरूक होने लगीं।यह कार्य राजकीय स्तर पर और सामाजिक स्तर पर हुआ।इसमें सरकारी और गैर-सरकारी एनजीओ संस्थाओं ने बढ़-चढ़कर अपनी भूमिका निभाई।शिक्षा, नौकरी और राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ने लगी।स्त्रियों को जाग्रत करने के लिए विश्व स्तर पर सभी देश की सरकार और स्वायत्त सामाजिक संस्थाओं को प्रेरणा, प्रोत्साहन और सुविधाएं दी गई थीं।यही वह समय था, जब मैं मध्यप्रदेश के एक छोटे गांव बानापुरा से महाराष्ट्र के शहर नागपुर में आई थी।यहां मैंने अपनी आंखों से स्त्री मुक्ति आंदोलन देखा, मैं भी उसमें सहभागी बनी।
स्त्रियां जागरण, शिक्षा, संगठन और रोजगार के क्षेत्र में आगे बढ़ी हैं, फिर भी सामाजिक मानसिकता में अभी भी पितृसत्ता है।21वीं शताब्दी के दो दशक बीतने के बाद, अभी भी स्त्रियों का शोषण और उत्पीड़न किया जाता है।इसके विरुद्ध अधिक कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। ‘स्त्री विमर्श’ के निष्कर्ष और निर्णय सामाजिक-व्यवहार में लाने जरूरी हैं, तभी सफलता मिल सकेगी।
(2) हिंदू समाज व्यवस्था में ‘मनुस्मृति’ धर्मग्रंथ का महत्वपूर्ण स्थान है।इसमें पितृसत्ता के आधार पर पुरुषों को प्रथम स्थान और स्त्रियों को दोयम स्थान दिया गया है। ‘स्त्रियों को पुरुषों के पीछे ही रहना चाहिए, यह निर्देश देने वाला धर्मग्रंथ स्त्रियों के बराबरी के अधिकार को कभी स्वीकार नहीं करता।धर्मग्रंथों के विरुद्ध जाना अधर्म माना जाता है।पर इस तरह की धार्मिक कट्टरता पितृसत्ता को सतत मजबूत करती है।पुत्र को महत्व देने के कारण बेटियों की उपेक्षा की जाती है।
समाज की रीति-परंपराएं भी पितृसत्ता के पक्ष में बनाई गई हैं, जिनका अनुकरण स्त्रियों के लिए 21वीं शताब्दी में भी आवश्यक माना जाता है।धार्मिक अनुष्ठान, स्त्रियों के व्रत-उपवास पितृसत्ता का पोषण करते हैं।सधवा-विधवा के प्रति अलग-अलग भावना, इसी तरह पुत्रवती और निपूती स्त्री के प्रति पुरुषों के साथ स्त्रियों का दृष्टिकोण भी पितृसत्ता को ही मजबूत करता है।सवर्ण-संपन्न वर्ग की महिलाओं में यह भावना स्पष्ट दिखाई देती है।
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने भारतीय संविधान में स्त्रियों को पुरुषों के समान सभी अधिकार उनके हक के रूप में दिए हैं। ‘हिंदू कोड बिल’ द्वारा बाबा साहब अंबेडकर ने स्त्रियों को विशेष अधिकार देकर उनकी स्थिति मजबूत की है। ‘दलित स्त्री मुक्ति आंदोलन’ द्वारा सभी स्त्रियों को संगठित और जाग्रत करके, उनके अधिकारों से उन्हें परिचित कराया जाता है।इससे वे समानता और सम्मान के अपने अधिकार पाने का संघर्ष कर रही हैं।
वे संघर्ष कर रही हैं, फिर भी वे अभी तक पूर्ण रूप से समता, स्वतंत्रता और सम्मान के अधिकार नहीं पा सकी हैं।कुछ सबल स्त्रियों को छोड़कर 95%स्त्रियां अभी भी शोषण-उत्पीड़न की शिकार बनाई जाती हैं।वर्तमान समय में उनके साथ ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है।जब अंबेडकरवाद को नकार कर मनुवाद को ही स्थापित किया जाएगा, तब ऐसा होना स्वाभाविक है।
(3) स्त्री पश्चिम की हो या पूर्व की, भारत की हो या विदेश की- सभी ही पितृसत्ता से पीड़ित हैं।इस पीड़ा से मुक्ति के लिए ही स्त्रीवादी आंदोलन शुरू हुए, साथ ही स्त्रीवादी लेखन से स्त्रियों की व्यथा कथा विश्व स्तर पर समाज के सामने आई।
भारतीय स्त्री समाज के दो वर्ग हैं।उच्च सवर्ण स्त्रियां मनुवादी विचार और धर्म के बीच अपनी मुक्ति चाहती हैं, जबकि निम्न-दलित-पिछड़े वर्ग की स्त्रियां, अंबेडकरवादी विचार से चेतना पाती हैं।पुरुषों के बराबर समानता और सम्मान के अधिकार चाहती हैं।पश्चिमी परिवेश और भारतीय समाज व्यवस्था में जो अंतर है, वह पश्चिमी स्त्रीवाद और भारतीय स्त्रीवाद में भी है।भारतीय संस्कार स्त्रियों को पूर्णतः मुक्त नहीं होने देते।
(4) भारत में ‘स्त्री मुक्ति आंदोलन’ का नेतृत्व सर्वप्रथम जिन स्त्रियों ने किया था, वे सवर्ण और सुविधा-संपन्न महिलाएं थीं।उनके सामने ‘स्त्री मुक्ति’ ही मुख्य उद्देश्य था, जाति का मुद्दा नहीं।उन्होंने जाति का अपमान नहीं पाया था।वे उन मनुवादी बंधनों का विरोध करना चाहती थीं, जो बचपन से परंपरा के रूप में उन पर थोप दिए जाते थे।यद्यपि भारतीय संविधान में स्त्रियों को शिक्षा, संपत्ति, नौकरी पाने के समान अधिकार पहले से थे।दुष्ट पति को छोड़कर पुनर्विवाह करने का या पति से तलाक लेने का अधिकार भी उन्हें कानून के रूप में मिला था।मगर उच्च सवर्ण समाज में इन बातों का विरोध किया जाता था।पाश्चात्य स्त्री मुक्ति आंदोलन का अनुकरण करके इन सवर्ण संपन्न स्त्रियों ने स्त्री मुक्ति का आंदोलन चलाया।इसके माध्यम से वे स्वतंत्रता-उन्मुक्तता चाहती थीं।वे विवाह कब करें, किससे करें या न करें- इसे उन्होंने अपना अधिकार बताया।इसी तरह नौकरी करने, अकेले रहने, मां बनने या न बनने के अधिकार को भी अपनी स्वतंत्रता बताया।उन्होंने दहेज प्रथा की प्रताड़ना से बचने के लिए विवाह न करने और बिना विवाह किसी पुरुष के साथ पत्नी की तरह रहने को भी अपनी उन्मुक्तता का अधिकार बताया।प्रभा खेतान ने अपनी आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ में यह उजागार किया है।
अंबेडकर की विचारधारा से जब दलित स्त्रियों में जागृति आई, उन्होंने भी स्त्री मुक्ति आंदोलन चलाया।इनके आंदोलन में स्त्री मुक्ति के साथ जाति के मुद्दे का विरोध भी था।स्त्री-पुरुष समानता के लिए जाति भेद को मुख्य मुद्दा बनाया गया था।यद्यपि दलित जातियों में दहेज या हुंडा प्रथा नहीं है।दलित स्त्रियों ने हर क्षेत्रों में समान अवसर पाने की लड़ाई लड़ी है।इसमें ऊंच-नीच का भेदभाव और जातिभेद का विरोध भी शामिल है।
(5) लोकतंत्र में संपूर्ण प्रजा के लिए समता, स्वतंत्रता और भाईचारा का होना आवश्यक है।क्या हमारे देश के लोकतंत्र में यह सब है? नहीं है।ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अतिशूद्र की श्रेणी में बंटे हमारे देश में समता, सम्मान और भ्रातृत्व की भावना स्थापित नहीं हो सकी है।वर्चस्ववादी लोगों का ही हमेशा बोलबाला रहा है, सत्ता हमेशा उन्हीं के हाथों में रही है।दलित, पिछड़े वर्ग के नेताओं के चुने जाने के बाद भी सत्ता अगड़ों के हाथों में ही रही।वर्तमान समय में तो यह स्थिति अधिक स्पष्टता के साथ सामने है।दलित शोषण और स्त्री उत्पीड़न की घटनाएं खुलेआम दबंग जातियों द्वारा घटित हो रही हैं।
‘सामाजिक न्याय’ की अवधारणा एक बहुत बड़ी बात है।यह भारत के जातिवादी समाज व्यवस्था में सुनिश्चित नहीं हो सकी है। ‘सामाजिक न्याय’ की अवधारणा पर शिक्षण और सामाजिक संस्थाओं द्वारा चिंतन-मनन और विचार-विमर्श होते रहे हैं।निष्कर्ष रूप में यही कहा जाता है कि हमारे देश के पिछड़ा-दलित वर्ग और संपूर्ण स्त्री समाज अभी भी सामाजिक न्याय से वंचित हैं।हमारे देश में सफल रूप में लोकतंत्र कैसे स्थापित हो, सभी को सामाजिक न्याय कैसे प्राप्त हो, इस विषय पर काफी चिंतन-मनन करना होगा।
(6) पहले स्त्री लेखन होमोजिनियस जैसा ही था।उसमें स्त्री अपने व्यक्तिगत सुख-दुख का अनुभव अलग से नहीं बताती थी।वह परिवार और समाज के सम्मान को आदर्श मानती थी।वह अपनी आकांक्षा या सुख-दुख अलग से व्यक्त नहीं करती थी।पति खुश है तो वह भी खुश है, परिवार सुखी है तो वह भी सुखी है।घर-परिवार का सम्मान ही उसका सम्मान था।बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में लिखी गई स्त्री आत्मकथाओं में स्त्रियों ने अपने भाव इसी रूप में व्यक्त किए हैं।भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक जागरण के बाद संपन्न सवर्ण स्त्रियों के लेखन में उनके भाव होमोजिनियस रूप ही व्यक्त हुए हैं।वे अपने सुख और गौरव की बातों को अपने लेखन में लिखती थीं, जैसे अन्याय और लिंग भेद के कारण अपमान भी उनके लिए गौरव के तत्व हैं।
मगर अब ऐसा नहीं है।स्त्री लेखन पहले से अब पूरी तरह अलग रूप में आ रहा है।इसे हम स्त्री आत्मकथाओं में प्रामाणिक रूप में देख सकते हैं।साठोत्तरी कहानी और उपन्यासों में भी यह स्पष्ट रूप में व्यक्त हुआ है।कविताओं और नाटकों में भी व्यक्त हुआ है।स्त्री विमर्श के रूप में स्त्री लेखन का अध्ययन अब उसके सुख-दुख और उसके जीवन की समस्याओं के अध्ययन की दृष्टि से किया जा रहा है।दलित स्त्री लेखन अब खुली किताब के रूप में सामने है।यहां कुछ भी छिपाने की बात नहीं है।यहां आदर्श नहीं, यथार्थ है, सच्ची बातें हैं।
‘शील’ 2, गोपाल नगर, थर्ड बस स्टॉप के करीब, नागपुर-440022 मो.9588442591
संपर्क: हाउस नं. 41/1/2, बी.एल नं. 06, पोस्ट : कांकीनाड़ा, जिला : उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल–743126 मो.8450005143